Book Title: Karan Siddhant Bhagya Nirman ki Prakriya
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 7
________________ करण सिद्धान्त : भाग्य - निर्माण की प्रक्रिया ] [ ८३ का उपयोग व प्रयोग कर उद्दण्ड, अनुशासनहीन, तोड़-फोड़ करने वाले अपराधीमनोवृत्ति के छात्रों एवं व्यक्तियों को उनकी रुचि के किसी रचनात्मक कार्य में लगा दिया जाता है । फलस्वरूप वे अपनी हानिकारक व अपराधी प्रवृत्ति का त्याग कर समाजोपयोगी कार्य में लग जाते हैं, अनुशासनप्रिय नागरिक बन जाते हैं । कुत्सित प्रकृतियों को सद् प्रकृतियों में संक्रमण या रूपान्तरण करने के लिए आवश्यक है कि पहले व्यक्ति को इन्द्रिय-भोगों की वास्तविकता को उसके वर्तमान जीवन की दैनिक घटनाओं के आधार पर समझाया जाये । भोग का सुख क्षणिक है, नश्वर है व पराधीनता में आबद्ध करने वाला है, परिणाम में नीरसता या प्रभाव ही शेष रहता है । भोग जड़ता व विकार पैदा करने वाला है | नवीन कामनाओं को पैदा कर चित्त को अशांत बनाने वाला है। संघर्ष, द्वन्द्व, अन्तर्द्वन्द्व पैदा करने वाला है । सुख के भोगी को दुःख भोगना ही पड़ता है । सुख में दु:ख अन्तर्गर्भित रहता ही है । भोगों के सुख के त्याग से तत्काल शान्ति, स्वाधीनता, प्रसन्नता की अनुभूति होती है । इस प्रकार भोगों के सुख क्षणिकअस्थायी सुख के स्थान पर हृदय में स्थायी सुख प्राप्ति का भाव जागृत किया जाय । भावी दुःख से छुटकारा पाने के लिये वर्तमान के क्षणिक सुख के भोग का त्याग करने की प्रेरणा दी जाय । इससे आत्म-संयम की योग्यता पैदा होती है फिर दूसरों को सुख देने के लिए भी अपने सुख व सुख सामग्री को दूसरों की सेवा में लगाने की प्रवृत्ति होती है । दूसरों की निःस्वार्थ सेवा से जो प्रेम का रस नाता है उसका आनन्द सुखभोगजनित सुख से निराला होता है । उस सुख में वे दोष या कमियाँ नहीं होतीं जो भोगजनित सुख में होती हैं । प्रेम के सुख का यह बीज उदारता में पल्लवित, पुष्पित तथा फलित होता है और अन्त में सर्वहितकारी प्रवृत्ति का रूप ले लेता है । जिस प्रकार कर्म सिद्धान्त में संक्रमण केवल सजातीय प्रकृतियों में सम्भव है, इसी प्रकार मनोविज्ञान में भी रूपान्तरण केवल सजातीय प्रकृतियों में ही सम्भव माना है । दोनों ही विजातीय प्रकृतियों के साथ संक्रमण या रूपान्तरण नहीं मानते हैं । संक्रमणकररण और रूपान्तरकरण दोनों ही में यह सैद्धान्तिक समानता आश्चर्यजनक है । कर्म सिद्धान्त के अनुसार पाप प्रवृत्तियों से होने वाले दु:ख, वेदना, अशान्ति आदि से छुटकारा, परोपकार रूप पुण्य प्रवृत्तियों से किया जा सकता है । इसी सिद्धान्त का अनुसरण वर्तमान मनोविज्ञानवेत्ता भी कर रहे हैं । उनका कथन है कि उदात्तीकरण शारीरिक एवं मानसिक रोगों के उपचार में बड़ा कारगर उपाय है । मनोवैज्ञानिक चिकित्सालयों में असाध्य प्रतीत होने वाले महारोग उदात्तीकरण से ठीक होते देखे जा सकते हैं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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