Book Title: Karan Siddhant Bhagya Nirman ki Prakriya
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 10
________________ ८६ ] [ कर्म सिद्धान्त जिस प्रकार शरीर में स्थित कोई विकार कालान्तर में रोग के रूप में फल देने वाला है । टीका लगवाकर या दवा आदि के प्रयत्न द्वारा पहले ही उस विकार को उभार कर फल भोग लेने से उस विकार से मुक्ति मिल जाती है । उदाहरणार्थ – चेचक का टीका लगाने से चेचक का विकार समय से पहले ही अपना फल दे देता है । भविष्य में उससे छुटकारा मिल जाता है । वमन रेचन ( उल्टी या दस्त) द्वारा किए गए उपचार में शरीर का विकार निकाल कर रोग से समय से पूर्व ही मुक्ति पाई जा सकती है । इसी प्रकार अन्तस्तल में स्थित कर्म की ग्रंथियों ( बंधनों) को भी प्रयत्न से समय के पूर्व उदय में लाकर फल भोगा जा सकता है । वैसे तो कर्मों की उदीरणा प्रारणी के द्वारा किए गए प्रयत्नों से अपनाए गए निमित्तों से सहज रूप में होती रहती है परन्तु अन्तरतम में अज्ञात अगाध गहराई में छिपे व स्थित कर्मों की उदीरणा के लिए विशेष पुरुषार्थ करने की आवश्यकता होती है, जिसे तप के द्वारा कर्मों की निर्जरा करना कहा जाता है । वर्तमान मनोविज्ञान भी उदीरणा के उपर्युक्त तथ्य को स्वीकार करता है । मनोविज्ञान में इस प्रक्रिया से अवचेतन मन में स्थित मनोग्रंथियों का रेचन या वमन कराया जाता है । इसे मनोविश्लेषण पद्धति कहा जाता है । इस पद्धति से अज्ञात मन में छिपी हुई ग्रंथियाँ, कुठाएँ, वासनाएँ, कामनाएँ ज्ञात मन में प्रकट होती हैं, उदय होती हैं और उनका फल भोग लिया जाता है तो वे नष्ट हो जाती हैं । आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि मानव की अधिकतर शारीरिक एवं मानसिक बीमारियों का कारण ये अज्ञात मन में छिपी हुई ग्रंथियाँ ही हैं । जिनका संचय हमारे पहले के जीवन में हुआ है । जब ये ग्रन्थियाँ बाहर प्रकट होकर नष्ट हो जाती हैं तो इनसे सम्बन्धित बीमारियाँ भी मिट जाती हैं । मानसिक चिकित्सा में इस पद्धति का महत्त्वपूर्ण स्थान है । अपने द्वारा पूर्व में हुए पापों या दोषों को स्मृति पटल पर लाकर गुरु के समक्ष प्रकट करना, उनकी आलोचना करना, प्रतिक्रमण करना, उदीरणा या मनोविश्लेषण पद्धति का ही रूप है । इससे साधारण दोष- दुष्कृत मिथ्या हो जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं, फल देने की शक्ति खो देते हैं । यदि दोष प्रगाढ़ हो, भारी हो तो उनके नाश के लिए प्रायश्चित लिया जाता है । प्रतिक्रमण कर्मों की उदीरणा में बड़ा सहायक है । हम प्रतिक्रमण के उपयोग से अपने दुष्कर्मों की उदीरणा करते रहें तो कर्मों का संचय घटता जायेगा जिससे प्रारोग्य में वृद्धि होगी । जो शारीरिक एवं मानसिक आरोग्य, समता, शान्ति एवं प्रसन्नता के रूप में प्रकट होगी । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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