Book Title: Karan Siddhant Bhagya Nirman ki Prakriya Author(s): Kanhaiyalal Lodha Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 9
________________ करण सिद्धान्त : भाग्य - निर्माण की प्रक्रिया ] [ ८५ करता है कि किसी ने पहले कितने ही अच्छे कर्म बांधे हों यदि वह वर्तमान में दुष्प्रवृत्तियां कर बुरे (पाप) कर्म बान्ध रहा है तो पहले के अच्छे (पुण्य) कर्म बुरे (पाप) कर्म में बदल जायेंगे, फिर उनका कोई अच्छा सुखद फल नहीं मिलने वाला है । इसके विपरीत किसी ने पहले दुष्कर्म (पाप) किए हैं, बांधे हैं परन्तु वर्तमान में वह सत्कर्म कर रहा है तो वह अपने बुरे कर्मों के दुःखद फल से छुटकारा पा लेता है । दूसरे शब्दों में कहें तो हम हमारे वर्तमान जीवन काल का सदुपयोग-दुरुपयोग कर अपने भाग्य को सौभाग्य या दुर्भाग्य में बदल सकते हैं । इसकी हमें पूर्ण स्वाधीनता है तथा हमारे में सामर्थ्य भी है । इसे उदाहरण से समझें 'क' एक व्यापारी है । 'ख' उसका प्रमुख ग्राहक है । 'क' को उससे विशेष लाभ होता है । 'क' के लोभ की पूर्ति होती है तथा 'ख' 'क' के व्यवहार की बहुत प्रशंसा करता है जिससे 'क' के मान की पुष्टि होती है । अतः 'क' का 'ख' के साथ लोभ और मान रूप घनिष्ठ सम्बन्ध या बन्ध है परन्तु 'क' ने 'ख' को लोभ वश असली माल के बजाय नकली माल दे दिया । इस धोखे का जब 'ख' को पता चला तो वह रुष्ट हो गया और उस पर 'क' की जो रकम उधार थी. उसने उसे देने से मना कर दिया । गाली-गलोच कर 'क' का अपमान कर दिया । इससे 'क' को क्रोध आया । अब 'क' का 'ख' के प्रति लोभ व मान रूप जो राग का सम्बन्ध था वह क्रोध व द्व ेष में रूपान्तरित संक्रमित हो गया । नियम : ( १ ) प्रकृति संक्रमण बध्यमान प्रकृति में ही होता है । (२) संक्रमण सजातीय प्रकृतियों में ही होता है । नोट : १. उद्वेलना संक्रमण, २. विध्यात संक्रमण, ३. अधःस्तन संक्रमण, सर्व संक्रमण आदि संक्रमण के अनेक भेद-प्रभेद कर्म विस्तार भय से यहाँ उसका वर्णन नहीं किया ४. गुरण संक्रमण, ५. शास्त्रों में कहे गये हैं, गया है । ७. उदीरणा कररण : धे हुए कर्म का नियत काल में फल देने को उदय कहा जाता है और नियत काल के पहले कर्म के फल देने को उदीरणा कहते हैं । जैसे श्रम बेचने बाला आमों को जल्दी पकाने के लिए पेड़ से तोड़कर भूसे आदि में दबा देता है। जिससे ग्राम समय से पूर्व जल्दी पक जाते हैं । इसी प्रकार जो कर्म समय पाकर उदय में आने वाले हैं अर्थात् अपना फल देने वाले हैं उनका प्रयत्न विशेष से किसी निमित्त से समय से पूर्व ही फल देकर नष्ट हो जाना उदीरणा है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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