Book Title: Kaluyashovilas Part 02
Author(s): Tulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
Publisher: Aadarsh Sahitya Sangh

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Page 12
________________ बावजूद मैं इस जीवनवृत्त-रूप ग्रन्थ-सिन्धु का पार पाने में सफल हुआ, इसका श्रेय कालूगणी के वर्चस्वी जीवन को ही दिया जाना चाहिए। कालूगणी के सान्निध्य की सुखद स्मृतियां अब भी मेरी आंखों में तैरती रहती हैं, पर उनकी साक्षात अनुभूति कैसे हो? 'ते हि नो दिवसा गताः'-हमारे वे दिन चले गए, अब तो उन यादों से ही मन को समाधान देना है। रचना-कार्य की संपन्नता के तत्काल बाद मैंने गंगाशहर की विशाल परिषद में 'कालूयशोविलास' का वाचन शुरू कर दिया, जिसका समापन वि. सं. २००१, फाल्गुन कृष्णा दशमी, लाडनूं में हुआ। ‘कालूयशोविलास' की प्रथम हस्तलिखित प्रति इसकी रचना के साथ-साथ मैंने तैयार की। दूसरी प्रति वि. सं. २००३ में मुनि नवरत्न (मोमासर) ने लिखी। उस प्रति से पचासों प्रतियां लिखी गईं और साधु-साध्वियों द्वारा परिषद में कालूयशोविलास का वाचन होता रहा। वि. सं. २०३२ तक 'कालूयशोविलास' हमारी पुस्तक-मंजूषा में ज्यों का त्यों पड़ा रहा। कई बार इसके पुनर्वीक्षण और संशोधन का प्रसंग चला, पर काम शुरू नहीं हुआ। गत वर्ष जयपुर चातुर्मास में साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा इस कार्य को पुनः हाथ में लेने में निमित्त बनी। वह उत्तर-साधिका के रूप में काम करने के लिए तैयार हुई और मैंने अपना काम प्रारंभ कर दिया। __ मेरे सामने बत्तीस वर्ष पूर्व निर्मित एक कृति थी, जिसे अब जी भरकर तराशना था। मैंने भाषा, लय, संदर्भ आदि शिल्पों में खुलकर परिवर्तन किया, किंतु मूलभूत शिल्प-शैली को नहीं बदला। आज यदि ‘कालूयशोविलास' की रचना होती तो इसका स्वरूप कुछ दूसरा ही होता। फिर भी बत्तीस वर्ष पूर्व की प्रति के साथ परिवर्तित प्रति की तुलना की जाएगी तो काफी अंतर परिलक्षित होगा। कालूयशोविलास' का संशोधन करते समय मुझे जयाचार्य के युग की स्मृति हो आई। ‘भगवती सूत्र की जोड़' का निर्माण करते समय जयाचार्य बोलते और साध्वीप्रमुखा गुलाबसती लिखतीं। उनकी स्मरण-शक्ति और ग्रहण-शक्ति इतनी तीव्र थी कि उन्हें लिखने के लिए दूसरी बार पूछना नहीं पड़ता। इतिहास स्वयं को दोहराता है, इस जनश्रुति को मैंने साकार होते हुए देखा। 'कालूयशोविलास' के संशोधन एवं परिवर्धन-काल में बहुत स्थलों पर मैं बोलता गया और साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा लिखती गई। ‘कालूयशोविलास' ही नहीं, 'माणक-महिमा', 'डालिम-चरित्र' आदि जीवन-चरित्रों के संपादन में भी उसने काफी श्रम किया। इससे मुझे काम करने में सुविधा हो गई और उसको राजस्थानी भाषा पढ़ने-लिखने का अभ्यास हो गया। परिवर्तित-परिवर्धित 'कालूयशोविलास' की नई प्रतिलिपि तैयार होते ही १० / कालूयशोविलास-२

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