Book Title: Kalplatavatarika
Author(s): Amrutsuri
Publisher: Jain Sahityavardhak Sabha
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________________ [10] नुसार मंजरी आदि आवे छे, पूर्वकृत सुकृतानुसार फळरूपे ते परिणमे छे. अने उद्यम न करवामां तो कांई पण ऊपजतु नथी, रक्षणादि उद्यम पण श्रावश्यक छे.. - सम्मतितर्क महाग्रन्थमा श्रीसिद्धसेनदिवाकरे प्रौढशब्दमा श्रा हकीकत जणावी छ- ते आ प्रमाणे- कालो सहाव णियई, पुवकयं पुरिसकारणेगन्ता / मिच्छतं ते चेव उ, समासनो हुन्ति सम्मत्तं // आ पंच समवायवादने विशदरीते समजावतो द्वितीय स्तवक छे. ३-स्तवक-त्रीजा स्तवकमां मुख्यत्वे सांख्यमतनी विचारणा छे. सांख्य अने योग बहुधा सर्व विचारोमा मळ्ता छे, फक्त सांख्ये ईश्वरनुं जगत्कर्तृत्व स्वीकार्यु नथी अने योगे स्वीकार्य छे. काळादिनी विचारणाना अनुसन्धानमा केटलाक ईश्वरनेज जगत्ना कर्ता-नियन्तारूपे माने छ, ए चर्चा अहिं गम्भीरपणे करी छे. श्रा चर्चा खूबज महत्त्वनी छे. श्रा स्तवकनी ए रीते अति उपयोगिता छे. ईश्वरना कर्तृत्वने स्थापित करनारा वादीओमां पतञ्जलि अने अक्षपाद (नैयायिक) मुख्य छे. पूर्वपक्षमा ईश्वर जगत्कर्ता होवोज जोईए ए वात जणावी छे. तेमां ते ते ग्रन्थोना प्रमाणो पण रजू कर्या छ. उदयनाच यनो कुसुमाञ्जलि ग्रन्थ आ विषयमां खूबज विशिष्ट छे. तेमां कार्यायोजनधृत्यादेः, पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः / . वाक्यात संख्याविशेषाच्च, साध्यो विश्वविदव्ययः॥ _____ ए श्लोक प्रधान छ, तेनुं उपपादन करीने पछी क्रमशः तेनु खण्डन कर्यु छे. ईश्वरनु कर्तृत्व उपपादान करवामां जैनदर्शनने

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