Book Title: Kalplatavatarika
Author(s): Amrutsuri
Publisher: Jain Sahityavardhak Sabha

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Page 13
________________ [12] एवं प्रकृतिवादोऽपि, विज्ञेयः सत्य एव हि / कपिलोक्तत्वतश्चैव, दिव्यो हि स महामुनिः // 31 // 44 // पूज्य उपाध्यायजी आना अनुसन्धानमा व्यङ्गय करतां कहे छे के-'हे सांख्य ! तु जगत्ने प्रकृतिजन्म माने छ, अने अमे पण एमज-संसार कर्मप्रकृतिजन्य-मानीए छीए, एमां आपणे बनेने सख्य-मैत्री छे, पण आत्मा धर्मी नथी ए जे तु कहे छे तेमां तो. अमारे तारी साथे संख्य-लड़ाईज छे. ते सूक्त आ प्रमाणे लेसांख्य ? सख्यमिदमेव केवलं, मन्यसे प्रकृतिजन्म यज्जगत् / आत्मनस्तु भणितौ विधर्मिणः, संख्यमेव भजदेवमात्रयोः / / ए प्रमाणे त्रीजो स्तवक समाप्त थाय छे.. 4-5-6 स्तवक-चार-पांच ,अने छ ए त्रण स्तवकमां बौद्धदर्शनना गंभीर विचारो विवेच्या छे. श्रीहरिभद्रसूरिजीना समयमा बौद्धोर्नु बळ अतिशय हतुं. अनेक दर्शनो साथे बौद्धोने अथडामणमां ऊतरवू पडतु. नवी नवी तर्क विचारणाओ बौद्धो विचारता हता. विजय वरवानी तेओने प्रबळ तमन्ना हती. बौद्धदर्शनमा अर्थमीमांसा अंगे चार भूमिका छे. केटलाक बौद्धो पदार्थने माने छे अने तेनुं ज्ञान थाय छे, एम पण माने छे. श्रा प्रकारनी मान्यता वाळा वैभाषिक कहेवाय छे. सौत्रान्तिक नामे प्रसिद्ध बौद्धो बाह्य पदार्थो प्रत्यक्ष नथी, एम कहे छे. ज्ञानज अर्थाकारे परिणत थई जाय छे, एवी मान्यता योगाचार नामना बौद्धोनी छे. माध्यमिक बौद्धो केवळ ज्ञानज छे, अन्य काई नथी, ए प्रमाणे समजावे छे. आ विचारणाने व्यक्त करतो एक प्रसिद्ध श्लोक पाछे

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