Book Title: Kailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 27
Author(s): Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

View full book text
Previous | Next

Page 453
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हस्तलिखित जैन साहित्य १.१.२७ ४३७ १२३६५९ (७) शत्रुंजयतीर्थमाला रास- जैसलमेरसंघ, अपूर्ण, वि. १९वी मध्यम, पू. २४-१० (१०, १५ से २३) = १४, पू.वि. बीच-बीच व अंत के पत्र नहीं हैं. प्र. वि. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैवे. (२४.५४११, ११४५०). Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शत्रुंजय तीर्थमाला रासजैसलमेर संघ, मु. चतुरकुशल, मा.गु., पद्य, आदि सासननायक समरीये वंदो अति (-). (पू.वि. डाल- ६ दोहा १८ अपूर्ण तक है व बीच-बीच के पाठ नहीं हैं.) १२३६६१. उत्तराध्ययनसूत्र सह टबार्थ, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. १, पू. वि. मात्र प्रथम पत्र है., जैदे., (२५X११.५, १२X४२). उत्तराध्ययनसूत्र. मु. प्रत्येकबुद्ध, प्रा., प+ग, आदि: संजोगाविष्यमुक्कस्स अंति: (-) (पू.वि. अध्ययन- १ गाथा-४ तक है.) उत्तराध्ययनसूत्रव-टबार्थ *, मा.गु., गद्य, आदि: पूर्व संयोग मातादिक; अंति: (-). १२३६६२. श्लोक संग्रह जैनधार्मिक, अपूर्ण, वि. १९वी श्रेष्ठ, पृ. २- १ (१) = १, पू. वि. मात्र बीच का ही एक पत्र है., जैदे., (२५X११, 1 ९x२९). " लोक संग्रह जैनधार्मिक, प्रा. सं., पद्य, आदि (-); अति (-) (पू.वि. श्लोक-१४ अपूर्ण से २३ अपूर्ण तक है.) १२३६६६ (०) रघुवंश सह शिशुबोधिनी टीका, अपूर्ण वि. १७वी, मध्यम, पू. ११-८ (१ से ३,५,७ से १०) = ३, पू.वि. बीच-बीच के पत्र हैं., प्र.वि. पंचपाठ-संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२५.५X११, ८x४२). रघुवंश क. कालिदास, सं., पद्य, आदि (-) अति (-) (पू.वि. सर्ग १ श्लोक-४१ अपूर्ण से ५८ तक, ७४ अपूर्ण से ९० अपूर्ण तक व सर्ग-२ श्लोक-५३ अपूर्ण से ७० तक है.) रघुवंश - शिशुबोधिनी टीका, ग. गुणरत्न, सं., गद्य, वि. १६६७, आदि (-); अति (-). १२३६६७. (+) कथा संग्रह, अपूर्ण, वि. १७वी, मध्यम, पृ. ७८-७४(१ से ६८, ७० से ७४, ७७)=४, पू.वि. बीच-बीच के पत्र हैं., प्र. वि. संशोधित, जैदे. (२६११. १७४६९). कथा संग्रह, सं., पद्य, आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. सुलसश्रावक कथा अपूर्ण से अतिथिदान कथा अपूर्ण तक है व बीच-बीच के पाठ नहीं हैं. वि. अजितप्रभसूरि कृत द्वादशव्रतकथा संग्रह सम्मिलित है. १२३६६८ (४) पाक्षिकसूत्र, अपूर्ण, वि. १९वी मध्यम, पृ. ८-१ ( १ ) = ७, प्र. वि. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैवे., (२५४१०.५, १३४४३). पाक्षिकसूत्र, हिस्सा, प्रा., प+ग, आदि (-); अंति मिच्छामि दुक्कडं, (पू.वि. प्रथम महाव्रत आलापक अपूर्ण से है.) १२३६६९. (+) शत्रुंजय महाकल्प, संपूर्ण, वि. १५५५, मार्गशीर्ष शुक्ल, १३, सोमवार, मध्यम, पृ. २, पठ. सा. धर्मश्री, प्र.ले.पु. सामान्य, प्र. वि. संशोधित, जैवे. (२६११, ९३०). . शत्रुंजयतीर्थ लघुकल्प, प्रा., पद्य, आदि अइमुत्तयकेवलिणा कहिअ अति: लहइ सेतुंजजत्तफलं, गाथा-२५. १२३६७१. पार्श्वजिन व औपदेशिक लावणी, संपूर्ण वि. १९१२ ज्येष्ठ कृष्ण, १२, शनिवार, मध्यम, पृ. १. कुल पे. २, प्रले. श्राव. पूनमचंद, प्र.ले.पु. सामान्य, दे., ( २६११, १२x३२). १. पे. नाम. पार्श्वजिन लावणी, पृ. १अ १आ, संपूर्ण. पार्श्वजिन लावणी-मगसीमंडन, मु. जिनदास, पुहिं., पद्य, आदि: मुगतगढ जीत लिया वंका; अंति: मनदुख मेटोरे अकारे, गाथा-४. २. पे नाम औपदेशिक लावणी, पृ. १आ. संपूर्ण. मु. जिनदास, पुहिं., पद्य, वि. १७वी, आदि: चल चेतन अब उठकर अपने; अंति: (-), (अपूर्ण, पू.वि. प्रतिलेखक द्वारा अपूर्ण., गाथा- ३ तक लिखा है.) १२३६७४ (+०) खंदक अधिकार, अपूर्ण, वि. १६०५ वैशाख, मध्यम, पू. ७-६ (१ से ६) = १, ले. स्थल. कोछ, प्र. वि. संशोधित पदच्छेद सूचक लकीरें अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैवे. (२५.५४११, १२४५०). भगवतीसूत्र-हिस्सा शतक २ उद्देशक १गत स्कंधक अधिकार, प्रा., गद्य, आदि: (-); अंति: अंतं करेहिति, (पू. वि. मात्र अंतिम पत्र है., संयमचर्या प्रतिज्ञा प्रसंग अपूर्ण से है.) י १२३६७६. (+) भक्तामर व सकलार्हत् स्तोत्र सह टवार्थ, अपूर्ण, वि. १८६३, ज्येष्ठ शुक्ल, मध्यम, पू. ११-५ (१ से ५) =६, कुल पे. २, ले. स्थल, रूपनगर, प्र. वि. संशोधित. जैये. (२६११.५, ६४३३). For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624