Book Title: Jiv Vichar Prakaran aur Gommatsara Jiva Kanda Author(s): Ambar Jain Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf View full book textPage 2
________________ २५४ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्य [खण्ड सदी का बताया है । ऐसा प्रतीत होता है कि नेमचंद्राचार्य की तुलना में आ० शान्ति सूरीश्वर के विषय में किंचित अधिक सूचनायें उपलब्ध है। नेमचन्द्राचार्य के जीवन के विषय में अनेक विद्वानों ने विचार किया है। उनका निष्कर्ष यह है कि वे देशीयगण के थे और दक्षिण भारत के कर्णाटक क्षेत्र के गंगराज राजमल्ल और उसके मंत्री गोम्मट या चामुंडराय के समकालीन थे। अपने ग्रन्थों में उन्होंने अभयनंदि, इंद्रनंदि, वीरनंदि, कनकनंदि और अजितसेन आचार्यों का गुरु के रूप में उल्लेख किया हैं। इनमें से अभयनंदि सबके गुरु हैं और अन्य आचार्य नेमचन्द्र के वरिष्ठ सहपाठी हैं। ये सभी महाकवि रन्न के समकालीन है। शास्त्री ने वीरनंदि का समय ९५०-१०१९ ई० बताया है। गोम्मटेश्वर बाहबली का मतिप्रतिष्ठाकाल ९८१ ई. का पूर्वार्ध माना जाता है। इसी आधार पर १९८१ में इसका सहस्राब्दि समारोह मनाया गया । गंग राजलल्ल का राज्यकाल भी ९७२-९८२ ई० माना जाता है। उपरोक्त प्रतिष्ठा नेमचंद्र की प्रेरणा से ही संपन्न हई थी। नेमचंद्र के ग्रन्थों में प्रतिष्ठित मति का विवरण भी मिलता है। विक्रमी ग्यारहवीं सदी के कुछ शिलालेखों के प्रमाण भी उपलब्ध हए है। इनसे नेमचंद्र का समय दशवीं सदी ईस्वी का उत्तरार्ध और ग्यारहवीं सदी ईस्वी का पूर्वाधं माना जा सकता है। गण, गुरु और अनुमानित समय के अतिरिक्त इनके विषय में, इनकी कृतियों ( मुख्यतः पाँच ) के अतिरिक्त, अन्य कोई जानकारी नहीं मिलती। इनके ग्रंथों से एवं सिद्धान्तचक्रवर्ती की उपाधि से इनकी आगमज्ञता एवं अगाध ज्ञानगरिमा का अनुमान अवश्य लगता है। ये दिगंबराचार्य थे। __ आ० शान्तिसूरिश्वर ने 'जीव विचार' के कर्ता के रूप में पचासवीं गाथा में अपना नाम दिया है । जोहरा 'पुरकर और कासलीवाल ने अपने ग्रन्थ में इन्हें ९७३ से १०७३ ई० के बीच का माना है । पालनपुर के समीप रामसिने जैनमंदिर में प्राप्त शिलालेख से ज्ञात होता है कि इन्होंने १०२७ ई० में एक भगवत् प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई था । ये तपागच्छ या बड़गच्छ के अंतर्गत प्रचलित थारापद्र गच्छ के श्वेताम्बराचार्य थे। इनके जीवन का विवरण चन्द्रप्रभसरि रचित प्रभावकचरित में प्राप्त होता है। यह ग्रन्थ निर्णयसागर प्रेस से १९०९ में प्रकाशित हुआ है । तपागच्च पट्टावली से भी इनके जीवन की कुछ घटनाओं का ज्ञान होता है ।। आ० शान्तिसूरि का जन्म अणहिलपुर पाटन ( गुजरात ) में तत्कालीन प्रसिद्ध राजा भीम के समय में हुआ था। इनके माता-पिता का नाम क्रमशः धनदेव सेठ और धनश्री था। इनका बचपन का नाम भोम रखा गया था। इनके बाल्यकाल में ही पाटन में आ० विजयसिंह पधारे। उन्होंने भीम को देखकर उसके स्वणिम भविष्य का अनुमान लगाया। उन्होंने इनके माँ-बाप से भीम को अपने साथ रखने के लिये अनुज्ञा चाही और वे आ० विजयसिंह के साथ हो गये । समुचित अध्ययन एवं चरित्र की योग्यता प्राप्त करने पर उन्हें संघ में दीक्षित किया गया और उनका नाम शांति ( भद्र ) सूरि रखा गया। ये मूर्तिपूजक आचार्य थे । ये अच्छे कवि और बादी थे । राजा भीभ की सभा में इनका बहुत सम्मान था । इनकी प्रतिष्ठा सुनकर मालवा की धारा नगरी ( अब मध्यप्रदेश ) के महाकवि धनपाल ने इन्हें उज्जैन बुला लिया। उस समय वहाँ राजा भोज का राज्य था। उनकी राजसभा में भी इन्होंने अपने काव्य एवं वाद-विद्या के प्रकांड पांडित्य से अपनी प्रतिष्ठा अजित की । धनपाल की 'तिलकमंजरी' का भी इन्होंने संशोधन संपादन किया। इससे प्रसन्न होकर राजा भोज ने इन्हें 'वादिवताल' की उपाधि प्रदान की। ये आगम के साथ-साथ मंत्र और ज्योतिष विद्या के भी ज्ञाता थे। पाटन के सेठ जिनदेव के पुत्र पद्मदेव के सर्पदंश को इन्होंने अमृतत्व मंत्र के द्वारा दूर किया था। इसी प्रकार पद्मावती एवं चक्रेश्वरी देवी के प्रभाव से इन्होंने भविष्यवाणी की थी कि धूलिकोट (गुजरात) नगर का पतन होनेवाला है । इससे वहाँ के श्रीमाली जैनों के ७०० परिवार समय रहते सुरक्षित स्थानों पर पहुँच गये। यह १०४० ई० की घटना है। सोढ श्रावक के साथ गिरिनार को वन्दनार्थ गये थे। इनके अनेक शिष्य थे। इनमें वीर, शालिभद्र और सर्वदेव प्रमुख बताये जाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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