Book Title: Jiv Vichar Prakaran aur Gommatsara Jiva Kanda
Author(s): Ambar Jain
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

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Page 1
________________ जैन विद्याओं में जीवविज्ञान जीवविचार प्रकरण और गोम्मटसार जीवकांड कु० अंबर जैन शोधछात्रा, अ० प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा, (म० प्र०) जैनधर्म अध्यात्मप्रधान है। उसका लक्ष्य मनुष्य तो क्या, सभी कोटि के जीवों को परम उत्कर्ष की स्थिति में पहुंचाने का मार्ग एवं प्रक्रिया प्रस्तुत करना है । वह मनुष्य को 'उत्तम सुख' का प्रेरक है। इसीलिये उसके विपुल साहित्य में आचार्यों ने जीव और जीवन के विषय में पर्याप्त ग्रन्थ लिखे हैं। उन्होंने समय-समय पर षड्-द्रव्यमय संसार का विवरण देते हुए इसकी दुखमयता तथा अचिर सुखमयता का वर्णन करते हए जीवन को नैतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से तत्वबोध कराया है । इसी प्रक्रिया में उन्होंने भौतिक जगत में विद्यमान तत्वों, घटनाओं एवं प्राकृतिक चक्रों का भी वर्णन किया है। धर्म का आधार मुख्यतः मानव जीवन है जो समग्र प्रकार के जीवित प्राणियों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। अनेक प्राचीन ग्रन्थों आचारांग, प्रज्ञापना, जीवाभिगम, षड्खंडागम आदि में जीवजगत का विवरण पाया जाता है। तत्वार्थपूत्र ओर उसकी विविध टोकाओं में भी जीव का अच्छा वर्णन है। इन सभी ग्रन्थों में यह वर्णन एक लघु अंश के रूप में है । इसके विपर्यास में, कुछ ग्रन्थ ऐसे भी है जिनमें केवल जीवों का ही वर्णन दिया गया है । ये ग्रन्थ उत्तरकालोन ग्रन्थ है । इनमें से दसवीं सदी के उत्तरार्ध से ग्यारहवीं सदी के बीच लिखे गये दा महत्वपूर्ण ग्रन्थों के विवरणों के विषय में इस लेख में विवेचन किया जा रहा है। ये दो ग्रन्थ है-गुजरात तथा धारानगरी के वासी आचार्य शान्तिभद्रसूरीश्वर का जीवविचार प्रकरण ओर' सुदूर दक्षिण के दिगंबराचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती का गोम्मटसार जोवकांड । प्रथम ग्रन्थ लघुकाय है। इसमें कुल ५० गाथायें है । इस पर वहदत्ति और लघुत्ति नामक दो टोकायें भी लिखी गई है। यह मुनि रत्नप्रभ विजय जो द्वारा संपादित तथा श्री जयंत ठाकर द्वारा अंग्रेजी में अनुदित होकर १९५० में जैन मिशन सोसायटो, मद्रास द्वारा प्रकाशित हुआ है। यह अल्पज्ञात ग्रन्थ है पर इसके विवरण महत्वपूर्ण है। इसी के किंचित पूर्ववर्ती समय में आचार्य नेमचंद्र ने गोम्मटसार लिखा है । यह वृहत्काय है। इसमें ७३४ गाथायें है । इसके हिन्दी व अंग्रेजी में अनुदित संस्करण प्रकाशित हुए हैं । इसकी भी दो संस्कृत टोकायें हैं-जीवप्रदीपिका ( १६वों सदी ) व मंदप्रबोधिनी ( १२वीं सदी)। एक कन्नड़ टोका भी है। दिगंबरों में यह सुज्ञात ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ का विवरण विशद है। पर्याप्त गहन भी है। यह भौतिक और भावात्मक-दोनों कोटि का है । प्रथम ग्रन्थ के चार अध्यायों की तुलना में इसमें बाइस अध्याय हैं। दोनों ही ग्रन्थों में जीव के भेद, शरीर, आयु, स्वकायस्थिति, योनि एवं प्राणों का वर्णन दिया गया है। पर जीवकांड में भावात्मक गुणस्थान आधारित वर्णन भी है जो जीव विचार प्रकरण में नहीं है। जोवों के वर्गीकरण भी दोनों ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न प्रकार से दिये गये हैं। जहाँ जीवकांड में जीवों के ९८ जीवसमास बताये गये है, वहाँ जीव विचार में ३२ तक को संख्या ही पहुँची है । दोनों ग्रन्थों की प्रायः समसामयिकता को देखते हुए इनके विवरणों का तुलनात्मक अध्ययन रोचक विषय है। लेखक आचार्यों का जीवनवृत्त यह संयोग की ही बात है कि उपरोक्त दोनों ग्रन्थों के लेखक आचार्यों का जीवनवृत सुज्ञात नहीं है। यह केवल परोक्ष आधारों पर हो, आंशिक रूप में, ज्ञात किया जा सका है । बेलाणो ने दानों ही आचार्यों को विक्रमो ग्यारहवीं . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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