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भ्रमण करना पड़ा कि श्रीमुनिजी के स्वास्थ्य में दुर्बलता आ गई । कभी बम्बई, कभी पूना, कभी पाटन । शांति-निकेतन की जलवायु में मलेरिया का जब तब आक्रमण होता रहा । अतः सिंघीजी के परामर्श से अहमदाबाद वापस आ गए।
इसी बीच सन् ३५-३६ के लगभग राजस्थान के प्रसिद्ध जैन तीर्थ ऋषभदेवजी (केसरियाजी) के विषय में उदयपुर राज्य में एक आयोग बिठाया गया जिसमें केसरियाजी के स्वामित्व के अधिकारों का विवाद निपटाना था ।
जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेन्स के नेताओं के आग्रह के कारण मुनिजी ने इस विवाद के ऐतिहासिक पहलुओं को सुलझाने के लिये प्रमुख भाग लिया। इस विवाद में एक पक्ष की ओर से स्व० सर चिमनलाल सेतलवाड़ तथा उनके सुपुत्र भारत के विशिष्ठ विधिवेत्ता श्री मोतीलाल सेतलवाड़ जैसे महारथी भाग ले रहे थे । दूसरे पक्ष की ओर से स्व० कायदे आजम मि० जिन्ना तथा स्व० के० एम० मुंशी जैसे चोटी के न्यायवेत्ता थे।
मुनिजी ने इस विवाद में कोई तीन महीने उदयपुर में रह कर अपने ऐतिहासिक ज्ञान का परिचय कराया। जिससे दोनों पक्षों के महारथी विस्मित हुए।
सन् १९३८-३६ में श्री मुंशीजी ने भारतीय विद्या भवन की योजना के लिए श्रीमुनिजी को साग्रह आमंत्रित किया । उस समय श्रीमुंशी बम्बई राज्य के गृहमंत्री थे। योजना बन गई और १६३६ई. में इसकी स्थापना हुई। इसी वर्ष उदयपुर में सर्वप्रथम राजस्थान हिन्दी साहित्य सम्मेलन हुआ जिसकी
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