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नीतिक घटनाचक्रों के कारण विश्वविद्यालय न बन सका और श्रीमुशी भी मुक्त होकर चले गए। श्रीमुनिजी भी दिल्ली की कॉन्स्टीट्यूट असेम्बली की ओर से भाषा विषयक समिति से सदस्य हो गए जिसके कारण उनका दिल्ली प्राना जाना बना रहा।
जीवन के अनेक वर्ष अथक परिश्रम में बीत चुके थे। श्रीमुनिजी का विचार हुअा कि राष्ट्रीय तीर्थ चित्तौड़गढ़ के निकट कहीं पाश्रम बनाया जाये । अतः मई १६५० में चन्देरिया में सर्वोदय साधना पाश्रम की स्थापना की। ऐसे महामानव
और कर्मठ तपस्वी को राष्ट्र खाली कब बैठने देता । परिणामस्वरूप राजस्थान सरकार ने उनके तत्त्वावधान में "राजस्थान पुरातन मंदिर'' (अब राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान) की स्थापना की। आज इसका मुख्य कार्यालय जोधपुर में है। यहाँ से श्रीमुनिजी के निर्देशन में 'राजस्थान पुरातन ग्रंथ-माला'' के अन्तर्गत बहुत से अल्पज्ञात एवं प्राचीन ग्रंथों का प्रकाशन हुआ। इसमें कोई सन्देह नहीं कि "सिन्धी . जैन ग्रंथमाला' एवं 'राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला'' के माध्यम से श्रीमुनिजी ने राष्ट्र की वह सेवा की है कि आज से सौ वर्ष बाद उनके नाम की पूजा तक हो सकती है।
सन् १९५२ में विश्वविख्यात "जर्मन ओरियण्टल सोसायटी'' ने उन्हें सम्मान्य सदस्य (ऑनरेरी मेम्बर) बनाकर सर्वोच्च सम्मान दिया । श्रीमुनिजी भारत में दूसरे व्यक्ति हैं जिन्हें यह दुर्लभ सम्मान प्राप्त हुआ है । सन् १९६२ में
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