Book Title: Jinandji Bhav Jal Par Utar
Author(s): Padmaratnasagar
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 5
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशकीय... - भक्ति अर्थात् भक्त हृदय की संवेदना - वह संवेदना जब प्रबलतम बनती है तब इलिका-भ्रमर-न्याय से भक्त स्वयं भगवान के रूप में परिवर्तित हो जाता है, जिन-कथित मोक्षमार्ग के असंख्य योगों में से भक्तियोग भक्त आत्मा को अनन्त अनन्त पाप बन्धनों से मुक्त करने के लिए सक्षम है, लेकिन शर्त यह है कि भक्ति विवेक प्रधान होनी चाहिए. विवेक बिना भक्ति स्व-कार्य करने में सक्षम नहीं है. सर्वथा दोष रहित जिनेश्वर भगवान की विवेकयुक्त भक्ति आत्मा की शुद्धि जब प्रचुर मात्रा में हो तब ही संभवित है. अप्राप्त सम्यग्दर्शन की प्राप्ति और प्राप्त सम्यग्दर्शन की शुद्धि-पुष्टि ही भक्ति का प्रमुख कार्य है. इस बात की साक्षी उपमिति ग्रंथ, सिरि सिरिवाल कहा और त्रिषष्टी चरित्र आदि अनेक ग्रंथो से मिलती है. - इस पुस्तक की गुजराती लिपी की आवृत्ति 'चरणोनी सेवा नित-नित चाहुं..: हेतु संस्था के पंडितवर्य श्री नवीनभाई जैन ने क्रम आयोजन में सराहनीय सहयोग प्रदान किया है अतः वे साधुवाद के पात्र हुए है. उसी की देवनागरी लिपी की आवृत्ति प्रस्तुत पुस्तक का भी कंपोझींग कार्य श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा स्थित श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर के कम्प्यूटर विभाग में हुआ है, उस विभाग में कार्यरत श्री केतनभाई और संजयभाई ने खूब परिश्रम लेकर प्रस्तुत ग्रंथ को सुंदर बनाने में योगदान दिया है. उनका भी यहां पर स्मरण किया जाता है. पूज्यपाद श्रुतसमुद्धारक परम वागीश गुरुदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के अन्तेवासी पू. मुनिश्री पद्मरत्नसागरजी म. सा. द्वारा संपादित यह पुस्तक अनेक आत्माओं के सम्यग्दर्शन की विशुद्धि का कारण बने यही मंगलकामना. For Private And Personal Use Only

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