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धोक – नमस्कार सामान्यता तीन प्रकार से किया जाता है ( ऊपर के चित्र के अनुसार ) :
1. अष्टांग नमस्कार : इस मुद्रा में जमीन पर लेटने में शरीर आठ अंगों से धरती छूता है: दो पैर, दो जंघाएँ, छाती, दो हाथ एवं मस्तक ।
2. पंचांग नमस्कार : इस मुद्रा में जमीन पर बैठकर धोक देने में शरीर पाँच अंगों से धरती छूता है: दो पैर, दो हाथ,
मस्तका
3. गवासन नमस्कार : केवल जैन आचार में ही गवासन नाम की एक विशेष मुद्रा है | जिस तरह गाय एक ही ओर पैर कर के बैठती है, शील गुण के उत्कृष्ट पालक हमारे आचार्य उपाध्याय व साधु गण उसी तरह दोनों पैर एक ओर कर के बैठ कर पांचों अंगों से ढोक देते हैं| समस्त नारी वर्ग के लिए इसी मुद्रा में ढोक देने की शिक्षा देते हैं| इसे पुरुष वर्ग भी अपना सकता है |
किसी अन्य की दर्शन-क्रिया में किसी भी प्रकार से बाधक नहीं बनना चाहिए। प्रदक्षिणा देते समय, यदि कोई नमस्कार कर रहा हो, तो उसके सामने से न निकलें, रुक जावें या उसके पीछे से निकलें। पाठ, विनती या स्तोत्र धीरे-धीरे, धीमे स्वर में पढ़ना चाहिए और पढ़ते समय इस बात का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए कि दूसरों को बाधा न हो।
भगवान के दर्शन के समय यह विचार रहना चाहिए कि यह जिनमन्दिर समवसरण है और उसमें साक्षात् जिनेन्द्रदेव के समान जिनप्रतिमा विराजमान हैं। समवसरण में भी भगवान् के बाह्यरूप के ही दर्शन होते हैं। वही रूप जिनबिम्ब (प्रतिमा) का है। किन्तु, साक्षात् जिनेन्द्रदेव के मुख से निकली दिव्यध्वनि सुनने का सौभाग्य जिनबिम्ब से संभव नहीं है, इसीलिए वेदिकाजी में जिनबिम्ब के साथ जिनवाणी भी विराजमान रहती है। जिनबिम्ब और जिनवाणी दोनों मिलकर ही समवसरण का रूप बनाती हैं। अतः देवदर्शन के पश्चात् शास्त्र -स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए। ऐसा करने से साक्षात् जिनेन्द्रदेव के दर्शन और उनके उपदेश -श्रवण जैसा लाभ प्राप्त होता है।
प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ और यंत्र ही पूज्य होते हैं और उन्हीं को नमस्कार करना चाहिए। मन्दिर में बने ' हुए हुई तस्वीरें मन्त्रों द्वारा प्रतिष्ठित नहीं होते, अतः वे नमस्कार के योग्य नहीं होते।
चित्र तथा टंगी
मंदिर में हँसी-मज़ाक, खोटी - कथा जैसे – स्त्रीकथा, भोजनकथा, चोर आदि की कथा, श्रृंगार, कलह, निद्रा, खानपान तथा थूकना आदि कार्य नहीं करने चाहिए। मुख स्वच्छ होना चाहिए। पान- इलायची वगैरह खाया हो, तो कुल्ला करके ही मंदिर में जाना चाहिए। मंदिर आत्म-साधना का पवित्र स्थान है। वहाँ आरम्भ-परिग्रह (घरेलू काम-काज तथा धन-सम्पत्ति) के विचारों को त्यागकर अत्यन्त शांतिपूर्वक धार्मिक भावनाएँ ही मन में लानी चाहिए। धर्म-चर्चा
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