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स्वस्तिकः भावना एवं उद्धेश्य (Swastik Making Objective &
Intention)
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स्वास्तिक हमारी पूजा के उद्देश्य का सार्थक प्रतीक है।
निर्वाण होने पर भगवान का शरीर कपूर की तरह उड़ जाता है, केवल नख और केश शेष रह जाते हैं जिन्हें इंद्र संसारी जीवों की भावना के अनुरूप, मायावी शरीर से जोड़ कर दाह-संस्कार संपन्न करते है; और उस स्थली पर अपने वज्र से स्वास्तिक आकार का अमेटय स्वस्ति-चिह्न बनाता है, ताकि पवित्रता की रक्षा भी हो सके और स्थल भी अनंतकाल के लिए प्रकट और पूज्य बना रहे. यही चिह्न 'स्वास्तिक' अर्थात मांगलिक है जो अब ‘स्वस्तिक' भी बोला व लिखा जाने लगा है. भगवान का अंतिम सांसारिक प्रतीक होने से यही चिह्न हम हर उस स्थान पर बनाते हैं जहाँ जहाँ भगवान को विराजित देखने की भावना करते हैं, आह्वान-स्थापन करते हैं| पूजा की आसिका (लघु आसन) अर्थात् ठोना पर चन्दन-केशर से स्वास्तिक मांडने का विधान आचार्य जयसेन ने प्रतिष्ठा पाठ में उल्लेखित किया है। पूजन की थाली, कटोरा, जल, चन्दन आदि के पात्रों पर भी मंगल-प्रतीक स्वस्तिक मांडते हैं। यह हमारी अंतरंग भावनाओं का उत्कृष्ट प्रतीक है।
स्वास्तिक मांडने की विधि
सर्वप्रथम प्रासुक जल से हस्त प्रक्षालन कर, मंत्रित जल से स्वयं की एवं स्थल की शुद्धि करें। ठोने व द्रव्य चढ़ाने की थाली में दाहिने हाथ की अनामिका अंगुली से (ऊपर के चित्र के क्रम से ) स्वस्तिक की रेखाएं बनाते हुए भावना भावे कि हे भगवन!
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