Book Title: Jin Murti Lekh Vishelshan Tirthakar Manyata evam Bhattarak Parampara Author(s): N L Jain Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf View full book textPage 5
________________ ३२८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड मनोरञ्जक तथ्य यह है कि ८६२-११८० ई० के बीच इस क्षेत्र में, भ. महावीर की मूल प्रतिमा नहीं पाई जाती। क्या महावीर इस समय तक इस क्षेत्र के लिये सुज्ञान नहीं हुए थे-यह विषय शोचनीय है। उपरोक्त प्राचीन प्रतिमाओं के लेखों के आधार पर निम्न निष्कर्ष और दिये जा सकते हैं: (i) यद्यपि जैनसंघ में मूलसंघ, काष्ठासंघ, नन्दिसंघ और अन्य संघों की स्थापना बहुत पहले हो चुकी थी, पर इस क्षेत्र में बारहवीं सदी तक उनका विशेष महत्व नहीं था। यही कारण है कि प्राचीन प्रतिमाओं में ११८० तक किसी में भी संघ का उल्लेख नहीं है । संघ का नाम एवं अन्य विवरण उत्तरवर्ती काल से ही उल्लिखित मिलते हैं । (ii) सारणी १ से यह भी प्रकट होता है कि बारहवों सदी तक इस क्षेत्र में लेखों में प्रतिष्ठाकारक भट्टारकों के नाम नहीं है। देवगढ़ या बहोरीबन्द के प्रतिष्ठाकारक, सम्भवतः भट्टारक नहीं थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि भट्टारक परम्परा इस क्षेत्र में इस समय तक प्रभाव में नहीं आई थी। विद्वानों की यह धारणा है कि भट्टारक परम्परा का प्रारम्भ मुस्लिम शासन काल में सम्भवतः तेरहवीं सदी में हुआ है । भ० प्रभाचन्द्र के प्रगुरु भ० धर्मचन्द्र का पहला नाम प्रतिष्ठित भट्टारक के रूप में आता है जिन्होंने १२७५ ई० में प्रतिष्ठायें कराई थी"। मूतिलेखों के आधार पर भट्टारक परम्पराओं का अनुमान बुन्देल खण्ड क्षेत्र में स्थित अनेक स्थानों के जिन मन्दिरों की मूर्तियों पर उत्कीर्ण लेखों में भट्टारक परम्परा के सम्बन्ध में अनेक सूचनायें मिलती है। सर्वप्रथम हमें १२०३ (११४६ ई०) में छतरपुर में प्रतिष्ठित भ० नेमिनाथ की मूर्ति पर त्रिकाली पंडित देवकीति के शिष्य प्राकृत चक्रवर्ती माणिक्यनन्दि का प्रतिष्ठाकार के रूप में उल्लेख मिलता है। इसमें भट्टारक पद अंकित नहीं है। इसी प्रकार छतरपुर में ही प्राप्त १२०९ (११५२ ई०) में प्रतिष्ठित एक मूर्ति पर सकलकीति नाम का उल्लेख है, पर वहाँ भी भट्टारक पद अंकित नहीं है, लेकिन नाम से ये भट्टारक प्रतीत होते हैं । उत्तरवर्ती काल में इस नाम से अनेक भट्टारक हुए हैं जिनमें भट्टारक पद्मनन्दि के शिष्य (१३९९-१४५६ ई.) सकलकीति अत्यन्त प्रतिभाशाली हुए हैं। इसके बाद भ० धर्मचन्द्र, भ० जिनचन्द्र आदि का उल्लेख पाया जाता है। अनेक मतियों पर भट्टारक-परम्परा (शिष्य-प्रशिष्य) का उल्लेख मिलता है। वस्तुतः ऐसे उल्लेख अल्पमात्रा में ही मिलते है पर ये ही हमारे लिये सर्वाधिक उपयोगी हैं। इनसे ज्ञात होता है कि जैनाम्नाय के विभिन्न संघों (मूल, काष्ठा, देवसेन, नन्दि आदि) में भट्टारक परम्परा स्वतन्त्र रूप से विकसित हुई होगी। बुन्देल खण्ड के क्षेत्र के जिनमूति लेखों से तीन प्रकार की भट्टारक परम्पराओं का पता चलता है : (i) मूलसंघ कुंदकुंदान्वय (ii) काष्ठासंघ (ii) देवसेन संघ इनमें मूलसंघी भट्टारक परम्परा इस क्षेत्र में सर्वाधिक प्रभावशाली रही है। काष्ठा संघ के कुल छह भट्टारकों का नाम १३८९-१५४२ (१३३१-१४८५ ई०) के बीच पाया गया है : (अ) भट्टारक सहस्रकीति-गुणकीति-यशःकीति (१४१६ ई०)। (ब) भट्टारक गुणनदेव (१४१५ ई०), ग्वालियर। (स) भट्टारक विशाल कीर्ति-भट्टारक विश्वसेन (१५१९ ई.)। यह संघ मुख्यतः अग्रोतकान्वय (अग्रवाल) या गृहपत्यन्वय (गहोई) उपजातियों से सम्बन्धित है, ऐसा प्रतीत होता है। ये जातियां इस क्षेत्र में कम ही हैं, अतः इनके विषय में न तो अधिक उल्लेख ही मिले हैं और न ही इन पर अभी काई विवरण ही प्रकाशित हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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