Book Title: Jin Murti Lekh Vishelshan Tirthakar Manyata evam Bhattarak Parampara
Author(s): N L Jain
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

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Page 9
________________ 332 पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड भ० रनकोति अल्पज्ञात होंगे। भ. धर्मकीर्ति का कार्यकाल अल्प ही रहा होगा, ऐसा प्रतीत होता है। उन्होंने ललितकीति के समय में ही सम्भवतः मण्डलाचार्य के रूप में स्वतन्त्र प्रतिष्ठायें कराई होंगी। इनके द्वारा प्रतिष्ठित एक मूर्ति नैनागिर में 1609 ई० की है। कुछ मूर्तियाँ 1627 ई० को भी मिलती है। इनके शिष्य भ० पद्मकीति थे। इनके द्वारा 1637 में प्रतिष्ठित एक म तरपुर के मन्दिरों में पाई गई है। इनका कार्यकाल भी अल्प ही रहा होगा। इनका विवरण भी उपलब्ध नहीं होता। इनके शिष्य भ० सकलकीर्ति (1656-1670) के द्वारा प्रतिष्ठित अनेक मूर्तियां इस क्षेत्र में पाई जाती हैं, पर इनका जीवनवृत्त उपलब्ध नहीं होता। इनके शिष्य भट्टारक सुरेन्द्रकीति रहे है जिनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ 1687-1710 ई० के बीच पाई जाती है। इससे अनुमान लगता है कि भ० सकलकोति 1685 ई० तक रहे होंगे। भ० सुरेन्द्रकीति के शिष्यों में जिनेन्द्रकीर्ति प्रमुख थे। इनके शिष्य भ० देवेन्द्रकोर्ति हुए / इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ सन् 1741-61 की प्राप्त होती है / इनके शिष्य क्षेमकीर्ति हुए। उन्होंने भी सम-सामयिक प्रतिष्ठायें कराई हैं। इनके काफी दीर्घकाल बाद भ. सुरेन्द्रकीति का नाम आता है जिनके द्वारा सन् 1836 की एक प्रतिष्ठित प्रतिमा पाई गई है। इसके बाद भट्टारक-परम्परा का मूर्तिलेखों में उल्लेख अल्प ही मिलता है। इस विवरण से यह स्पष्ट है कि बुन्देलखण्ड क्षेत्र में प्रभावी अटेर और जेरहट की भट्रारक परम्परा के विषय में सन्तोषपूर्ण जानकारी का अभाव है। इसके लिये प्रयत्न किया जाना चाहिये / इस क्षेत्र के सभी जैन केन्द्रों (तोर्थों एवं संस्थाओं आदि) को अपनी आय के कुछ प्रतिशत को ऐसे ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक कार्य में सत्प्रयुक्त करना चाहिये / मूर्तिलेखों से अन्य जानकारियां उपरोक्त जानकारी के अतिरिक्त मूर्तिलेखों से राजवंश, मतिकार एवं लेखकार, प्रतिष्ठाकारक गृहस्थों के के परिवारों की नामावली एवं जैन उपजातियों के विवरणों का भी ज्ञान होता है। इस आधार पर सिद्धान्तशास्त्री जैनों की परवार-उपजाति के इतिहास को लेखबद्ध कर रहे हैं। इन जानकारियों की समीक्षा अगले निबन्ध में की जायेगी। . सन्दर्भ 1. डा. कस्तूरचन्द्र काशलीवाल (प्र० सं०); 2. कमलकुमार शास्त्री; 3. कमलकुमार जैन; 4. कैलाश भड़वैया; 5. नीरज जैन; पं. बाबूलाल जमादार अभि० ग्रन्य; शास्त्री परिषद्, बडौत, 1981 पेज 353-400 / पपौरा दर्शन, पपौरा क्षेत्र, टोकमगढ़, 1976 / जिनमूति प्रशस्ति लेख, दि० जेन बड़ा मन्दिर, छतरपुर, 1982 / बानपुर, दि० जैन अतिशय क्षेत्र, बानपुर (ललितपुर), 1978 / कुंडलपुर, सुषमा प्रकाशन, सतना, 1964 / बहोरीबन्द वैभव, दि० जैन अतिशय क्षेत्र, बहोरीबन्द, जबलपुर, 1984 / पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभि० ग्रन्थ, काशो, 1985 / 8. सन्दर्भ 3 पेज 28 देखिये / 9. वही, पेज 13 / 10. विमलकुमार सोरया, 11. काशलीवाल, के. सी० और जोहरापुरकर विद्याधर; 12. नेमचन्द्र शास्त्री; देखिये सन्दर्भ 1 पेज 392 / वीर शासन के प्रभावक आचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 1975 पेज 121 / तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, दि. जैन विद्वत परिषद्, सागर, 1974 पेज 492 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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