Book Title: Jin Murti Lekh Vishelshan Tirthakar Manyata evam Bhattarak Parampara
Author(s): N L Jain
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखंड के जैन तीर्थ : जिनमूर्ति-लेख-विश्लेषण : तीर्थकर मान्यता एवं भट्टारक परम्परा डॉ० एन० एल० जैन, जैन केन्द्र, रीवा विश्व के इतिहास में सदैव ही विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे महापुरुषों का जन्म होता रहा है जिन्होंने दुखी मानव को सांसारिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से सुख और शान्ति की प्राप्ति के लिये मार्गदर्शी एवं प्रेरक उपदेश दिये। संसार को समुद्र की उपमा देकर उसकी अथाह एव भयंकर गहराई को पार करने में इन उपदेशों ने मानव की महान सेवा की है। ऐसे व्यक्तियों द्वारा उपदिष्ट मार्ग धर्मतीर्थ कहलाया। ये महापुरुष जगम तीर्थ कहलाते हैं। इसके क्रियाकलापों से, पञ्चकल्याणकों से सम्बन्धित विशिष्ट स्थान, क्षेत्र व भूमियां स्थावर तीर्थ कहलाते हैं। ये स्थावर तीर्थ अनेक प्रकार के होते हैं और उन्हें मंगलमय माना जाता है। उनकी यात्रा को पुण्यमय एवं ध्यानसाधक कहा जाता है । इनकी यात्रा के समय महापुरुषों के पुण्य कार्यों का स्मरण और तदनुरूप आचरण की शुभ प्रेरणा प्राप्त होती हैं, अन्तरंग उदार होता है, भावनायें निर्मल होती हैं। भावशुद्धि के प्रेरक ये तोथस्थान जैन संस्कृति के प्रतीक के रूप में सदा-से ही माने जाते रहे हैं। यही कारण है कि भारत में सर्वत्र इनका सद्भाव पाया जाता है। इनके अस्तित्व से यह भी अनुमान लगता है कि जैन धर्म एवं संस्कृति समग्न भारत में व्यापक रूप से प्रतिष्ठित रही है। वर्तमान में तो इसका महत्व और विस्तार और भी व्यापक होता जा रहा है । प्रारम्भ में तीर्थ स्थान शब्द धार्मिक दृष्टि से प्रेरक स्थानों को निरूपित करता रहा है। सामान्यतः दो प्रकार के तीर्थस्थानों को इस दृष्टि से महत्व प्राप्त है : सिद्ध तीर्थ और अतिशय तीर्थ । आजकल 'तीर्थ' शब्द के स्थान पर 'क्षेत्र' शब्द अधिक प्रयुक्त होता है। सिद्ध क्षेत्र ऐसे स्थान है जहाँ से व्यक्तियों एवं महामानवों ने अपना चरम आध्यात्मिक विकास कर परम पद पाया हो । ऐसे क्षेत्रों में पारसनाथ, चम्पापुर पावापुर (बिहार), गिरिनार, तथा कैलाश (गुजरात) प्राचीनता की दृष्टि से प्रसिद्ध है। बुन्देलखण्ड के कंडलगिरि, द्रोणगिरि, नयनगिरि तथा श्रमणगिरि के नाम सिद्ध क्षेत्रों में गिने जाते हैं। यह सिद्धक्षेत्रों की कोटि का उत्तरवर्ती विकास है। इनके विपर्याप्त में, अतिशय क्षेत्र ऐसे स्थान हैं जहाँ भक्तों, श्रद्धालुओं या दैवी कारणों से धर्म की प्रतिष्ठा को बढ़ाने वाली कुछ प्रभावक घटनाएं हुई हों, होती हों, या हो रही हों। इन क्षेत्रों की संख्या सिद्ध क्षेत्रों की तुलना में अधिक है। श्री महावीर जी, पपौरा, अहार, खजुराहो आदि के नाम इस कोटि के क्षेत्रों में लिये जा सकते हैं। इन अतिशय क्षेत्रों को यात्रा भी शास्त्रों में पुण्यकारी मानो गई है। वादोम सिंह, शुभचन्द्र एवं वसुनन्दि ने इनका महत्व बताया है। भारत का अतीत धर्मप्रधान एवं आध्यात्मिक गरिमा का संवर्धक रहा है । लेकिन इसका वर्तमान कुछ परिवर्धित प्रतीत होता है। आज धर्मक्षेत्रों के साथ कुछ अन्य प्रकार के क्षेत्रों का भी ज्ञान एवं उद्भावन हुआ है । इनमें ऐतिहासिक, पुरातात्विक (देवगढ़), एवं कलाक्षेत्र तो आते हो हैं, अब इनमें शिमला, कश्मोर आदि के समान प्राकृतिक सुषमामय पर्यटन क्षेत्र एवं भिलाई, टाटानगर, विशाखापटनम्, रूरकेला के समान औद्योगिक क्षेत्र भी समाहित होते लगे हैं। इनकी यात्रा हमारे वर्तमान की प्रगति एवं मनोरमता का अनुभव कराती है और भविष्य को और भी सुन्दर बनाने के लिये प्रेरित करती है। सम्भवतः यहो प्रेरणा हमारी आध्यात्मिक प्रगति को उत्प्रेरित करती है। प्रस्तुत लेखन केवल धर्मप्रधान क्षेत्रों तक सीमित है और उसका भौगोलिक सीमांकन भी बुन्देलखण्ड तक रखा गया है । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखंड के जैन तीर्थ : ३२५ बुन्देलखण्ड क्षेत्र इस क्षेत्र के भू-भाग का प्राचीन नाम चेदि देश था। इसके पड़ोस में वत्स जनपद था। राजा वसु और महाराजा शिशुपाल चेदि वंश के हो राजा थे । ईसापूर्व पहली दूसरी सदो के कलिंग नरेश खारवेल के पूर्वज भी चेदिवंशी थे। उत्तरवर्ती काल में यहाँ कलचुरि चन्देल एवं बुन्देल राजाओं का शासन रहा । इस क्षेत्र का नाम भी डाहल (त्रिपुरी). जैजाक भुक्ति और बुन्देलखण्ड के रूप में परिवर्तित होता रहा। वर्तमान में यह क्षेत्र बुन्देलखण्ड कहा जाता है। इसकी सोमायें सामान्य और वृहत्तर बुन्देलखण्ड के आधार पर परिभाषित की जाती है। यह क्षेत्र चम्बल (ग्वालियर) और नमंदा (हुशंगाबाद), वेत्रवतो (देवगढ़) तमस और सोन (अमरकंटक) नदियों का मध्यवर्ती क्षेत्र है। इसके अन्तर्गत वर्तमान मध्यप्रदेश के ग्वालियर, हशगाबाद, सागर, जबलपुर तथा रोवा कमिश्नरी क्षेत्र एवं उत्तरप्रदेश के झांसी कमिश्नरी के क्षेत्र समाहित होते हैं। इसके अन्तर्गत लगभग १५-१८ जिले आते हैं । यह क्षेत्र अपनी वीरता, धर्मप्रियता, धार्मिक सहिष्णुता, स्थापत्य कला एवं मूर्तिकला के लिये पिछले एक हजार वर्ष से विख्यात है। इस क्षेत्र के सांस्कृतिक विहंगावलोकन से ज्ञात होता है कि यहां जैन धर्म सदा से महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली रहा है। यही कारण है कि इस क्षेत्र में जैन धर्म से सम्बन्धित अनेक धर्मतीर्थ एव कलातीर्थ पाये जाते हैं। नित नये उत्खननों से इस क्षेत्र में जैन संस्कृति के व्यापक प्रभाव का अनुमान लगाया जा सकता है। तीर्थ किसी भी कोटि का क्यों न हो, वहाँ मंदिर और मूर्तियां अवश्य पाये जाते हैं । जहाँ प्राचीन मन्दिर स्थापत्यकला के वैभव को निरूपित करते हैं, वहीं मन्दिरों में प्रतिष्ठित जिन मूर्तियाँ और उनपर उत्कीर्ष लेख मूर्तिकला के विकास एवं तत्तत्कालीन राजनीतिक एवं सामाजिक इतिहास पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं। इस क्षेत्र की जैन स्थापत्यकला पर अनेक शोधकों ने महत्वपूर्ण विवरण दिषे हैं, पर जिन मूर्तिलेखों के विवरणों का समीक्षापूर्ण अध्ययन कम ही हुआ है । अभी जैन और सिद्धान्तशास्त्री के कुछ निरीक्षण-समीक्षण प्रकाशित हुए हैं । इस कार्य को और भी आगे बढ़ाने की आवश्यकता है । प्रस्तुत विश्लेषण इसो क्रम में एक और प्रयत्न है । जिनमूति-लेखों का रूप और उसके फलितार्थ विभिन्न क्षेत्रों एवं ग्राम-नगरों में स्थित जैन मूर्तियों पर जो लेख पाये जाते है, उनमें निम्न सूचनाओं में से कुछ या पूरी सूचनायें रहती है : (१) प्रतिष्ठा का संवत् एवं तिथि-(संवत् मुख्यतः विक्रमी होता है जो ईस्वी सन् से ५७ वर्ष अधिक होता है।) (२) जैन-संघ एवं अन्वय परम्परा का नाम-इनमें मूलसंघ एवं कुंदकुंदान्वय प्रमुख पाया गया है। अनेक लेखों में काष्ठासंघ का भी नाम पाया जाता है । इसके अवान्तर गण और गच्छों की भी सूचना रहती है। (३) प्रतिष्ठाकारक भट्टारक और उनको गुरु परंपरा का विवरण-यह परंपरा अतिप्राचीन लेखों में (जब इस परंपरा का प्रारंभ ही नहीं हआ था अथवा यह प्रारंभ हो हई होगी) एवं उन्षीसवीं सदो के अन्तिम दशकों में प्रतिष्ठित मूर्तियो पर प्रायः नहीं पाई जाती (जब यह परंपरा ह्रासमान होने लगी है)। (४) प्रतिष्ठापक श्चेष्ठियों, युरुषों एवं उनके कुटुम्ब का विवरण-इस विवरण में कुटुम्ब के मुख्य व्यक्ति का नाम, उसकी पत्नी एवं पुत्रों आदि का विवरण रहता है। साथ ही, उनकी जैन जाति-उ पजातियों का नाम व विवरण भी पाया जाता है । बुन्देलखंड क्षेत्र को जैनमूर्तियों में प्रायः गोलापूर्व, पौरपट्ट या परवार, अग्रोतक या अग्रवाल एवं गोलाराड् या गोलालारे जातियों के नाम पाये जाते है । इन्हें 'अन्वय' कहा गया है । (५) तत्कालीन राजाओं और उनके वंशों का उल्लेख-ये उल्लेख उपरोक्त चार की तुलना में पर्याप्त उत्तरवर्ती प्रतीत होते है । फिर भी, इनसे क्षेत्र-विशेष के राजनीतिक इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त होती है । यह भो । ज्ञात होता है कि प्रतिष्ठाकालीन राजा उदारवृत्ति के थे और सभी धर्मों का आदर करते थे। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ५० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड (६) मूर्तिकार का नाम एवं विवरण एवं प्रतिष्ठा का स्थान विशेष यह पाया गया है कि प्रायः मूत्तिलेखों में उपरोक्त छहों कोटि की सूचनायें एक साथ विरले ही पाई जाती हैं। छतरपुर के दि० जैन बड़े मंदिर जी में भ० पाश्र्वनाथ की प्रतिमा पर उत्तीर्ण एक ऐसा ही विरल लेख निम्न है : (अ) तिथि व सम्बत् : सम्वत् १५४२ वर्षे फागुन सुदी ५ गुरौ । (ब) स्थान : श्री गोपाचल दुर्गे । (स) राजन्य नाम : महाराजाधिराज श्री मांड्यसिंह राजा। (द) जैन संघ नाम : श्री काष्ठासंघे । (य) भट्टारक नाम : भट्ठारक श्री गुणनदेवः । (र) प्रतिष्ठापक विवरण : तदाम्नाये अग्रोतकान्वये गर्गगोत्रे सामहराजा तत्भार्या कोल्ही, पुत्र ४ साहणि । इसमें शिल्पकार के नाम को छोड़कर अन्य सभी सूचनायें पाई जाती है । अन्य मूर्तियों पर उपरोक्त में तीन-चार प्रकार की ही सूचनायें मिलती है। सम्बत् १५४८ में मुंडासा (राजस्थान) निवासी जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठापित मूर्तियों के लेख इसी श्रेणी के हैं । इनमें राजाओं एवं शिल्पकार के नाम नहीं हैं। एक लेख देखिये : (अ) तिथि व संवत् : संवत् १५४३ वैशाख सुदो ३ (वार नहीं है)। (ब) स्थान : सह सु (मु) रासा श्री (मुडासा राजस्थान में है) (स) जैन संघ नाम : श्री मूलसंघे (व) भट्टारक नाम । श्री जिनचंद्रदेव शाह (य) प्रतिष्ठापक नाम : जीवराज पापडीवाल नित्यं प्रणमते इन लेखों के सामान्य एवं तुलनात्मक अध्ययन से हमें जो जानकारी मिलती है, वह हमारे सामाजिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक महत्व का सम्वर्धन करती है । इन लेखों की उपयोगिता वर्तमान में अनेक प्रकार से सिद्ध हो रही है। उदाहरणार्थ, शास्त्री ने केसरिया-ऋषभदेव एवं कंभोज-बाहबली क्षेत्रों के दिगम्बर होने की पष्टि इन्हीं लेखों के आधार से की है । अनेक विवादों के समय ऐसे लेख काम आते हैं । इसीलिये उन्होंने सुझाया है कि भारत के सभी स्थानों पर विद्यमान जैन-मूर्तियों के लेखों को मुद्रित कराया जावे। बुन्देलखण्ड के जैनतीर्थों तथा अन्य स्थानों पर स्थित मन्दिरों की जिनमूर्तियों के लेखों के आधार पर शास्त्री मे यह निष्कर्ष निकाला है कि प्रारम्भ में बारहवों सदी तक इस क्षेत्र में गोलापूर्व जाति का महत्व रहा है क्योंकि इस अन्वय के श्रेष्ठियों द्वारा प्रतिष्ठापित प्रतिमायें ही यहाँ अधिकांश में उपलब्ध होती हैं। नैनागिर (११०९), बहोरीबन्व (११८७), पपौरा (१२०२) एवं अहार (१२३७) के लेखों से यह तथ्य पुष्ट होता है । बाद में इस भूभाग में परवार आदि अन्य जातियों के द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमायें मिलने लगती है । इससे यह अनुमान सहज लगता है कि इस क्षेत्र मे परवार जाति के लोग सम्भवतः गुजरात से बाद में आए। इसी प्रकार इन लेखों के सूक्ष्म या गहन अध्ययन से अन्य निष्कर्ष भो प्राप्त किये जा सकते है । हम यहां तीर्थकर-मान्यता और भट्टारक-परम्परा पर, इन लेखों से आधार से, कुछ चर्चा करेंगे। बहुमान्य तीर्थकर ___ जैन धर्म वर्तमान युग में चौबीस तीर्थंकरों की परम्परा को स्वीकर करता है । इनकी मूर्तियां ईसा-पूर्व सदियों में बनना प्रारम्भ हुई। विद्वानों की यह मान्यता है कि मूर्तियों पर तीर्थकर-पहिचान-परक लांछनों की परम्परा पर्याप्त उत्तरवर्ती है। इसीलिये अनेक प्राचीन प्रतिमाओं में लांछन (चिह्न) नहीं पाये जाते। कुछ लोगों का ऐसा भी कथन है कि अन्य धर्मों (हिन्दू, बुद्ध, पारसी एवं ईसाई) के समान जैनों में भी चौबीसी की परम्परा उत्तरकाल में विकसित हुई है। इसके विकास के उपरान्त ही लांछनों की प्रक्रिया चली होगी। सारणी १ से प्रकट होता है कि इस बुन्देलखण्ड क्षेत्र में Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखंड के जैन तीर्थ : ३२७ जिन मूर्तियों पर उत्कीर्ण लेख विक्रमी ९१९ (देवगढ़, ८६२ ई.) से प्राप्त होने लगते हैं। यह देखा गया है कि देवगढ़, बानपुर, मदनपुर, बजरंग गढ़, बहोरीबन्द ,अहार, खजुराहो आदि स्थानों पर ९१९-१२३७ वि० (८६२-१९८० ई०) के बीच भ० शान्तिनाथ और शान्ति-कुन्थु अरहनाथ की ही मुख्य प्रतिमायें पाई जाती है, पपौरा एवं नैनागिर (आदिनाथ, पार्श्वनाथ) इसके अपवाद है। पपौरा के पड़ोसी क्षेत्र जब भ. शान्तिनाथ के पूजक हों, तब पपौरा में आदिनाथ की मूल प्रतिमा स्थापित हो, यह तथ्य ऐतिहासिक और अन्य कारणों से शोध का विषय है। डा. ज्योतिप्रसाद जी ने इस क्षेत्र में भ० भान्तिनाथ की प्रतिमाओं की बहुलता का कारण तत्कालीन युद्ध एवं अशान्तिबहुल युग में शान्तिप्रदाता की सारणी १ : बुन्देलखंड के कतिपय क्षेत्रों एवं नगरों के जिनमन्दिरों की प्रमुख प्रतिमाओं का प्रशस्ति विवरण क्रमांक क्षेत्र नगर संघ भट्टारक प्रतिष्ठापक राज्य शिल्पकार प्रतिष्ठा तीर्थंकर वि० ई. ९१९ ८४२ शांतिनाथ १. देवगढ़ - कमलदेव शिष्य श्रीदेव पाहिलश्रेष्ठी धंगराज २. बानपुर ३. खजुराहो ४. खजुराहो ५. नैनागिर १००१ ९४४ शांतिनाथ १०११ ९५४ पार्श्वनाथ १०८५ १०२४ शांतिनाथ । ११०९ १०५७ पार्श्वनाथ । गोलापूर्वान्वयी पतरिया श्रेष्ठी सिं० मनसुख ६. डेरा पहाड़ी ११४९ १०९२ शांतिनाथ ७. कुंडलपुर ११८३ ११२७ मदनपुर" १२०० ११४३ शांतिनाथ ९. पपौरा १२०२ ११४५ आदिनाथ ।। ।। १०. पपौरा १२०२ ११४५ आदिनाथ । । ११. चौधरी मंदिर, १२०२ ११४५ नेमिनाथ छतरपुर १२. बहोरीबंद १२०५ ११४८ शांतिनाथ गोलापूर्वान्वय मदनवर्म देव साहू टडा सुत गोपाल साहू गल्ले - सुत अल्पकन लक्ष्मादित्य, मदनवर्म देव कुलादित्य गोला पूर्वान्वयी गयकर्ण देव महाभोज श्रेष्ठि साल्हे गृहपति मदनवमं देव जाहड, उदय- परमद्धि देव चन्द्र श्रेष्ठि पाणाशाह आसुभद्र १३. खजुराहो १४. अहार १२१५ ११५८ संभवनाथ १२३७ ११८० शांतिनाथ रामदेव पापट १५. बजरंगगढ़ १२३६ ११७९ शांतिनाथ धूबीन उपासना की कामना बताया है । भ० शान्तिनाथ के साथ भ० आदिनाथ और भ० पार्श्वनाथ की प्रतिमायें भी पाई गई है, पर संख्या की दृष्टि से ये कम ही हैं। खजुराहो की सम्भवनाथ की प्रतिमा भी एक अपवाद ही माननी चहिये । यहाँ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड मनोरञ्जक तथ्य यह है कि ८६२-११८० ई० के बीच इस क्षेत्र में, भ. महावीर की मूल प्रतिमा नहीं पाई जाती। क्या महावीर इस समय तक इस क्षेत्र के लिये सुज्ञान नहीं हुए थे-यह विषय शोचनीय है। उपरोक्त प्राचीन प्रतिमाओं के लेखों के आधार पर निम्न निष्कर्ष और दिये जा सकते हैं: (i) यद्यपि जैनसंघ में मूलसंघ, काष्ठासंघ, नन्दिसंघ और अन्य संघों की स्थापना बहुत पहले हो चुकी थी, पर इस क्षेत्र में बारहवीं सदी तक उनका विशेष महत्व नहीं था। यही कारण है कि प्राचीन प्रतिमाओं में ११८० तक किसी में भी संघ का उल्लेख नहीं है । संघ का नाम एवं अन्य विवरण उत्तरवर्ती काल से ही उल्लिखित मिलते हैं । (ii) सारणी १ से यह भी प्रकट होता है कि बारहवों सदी तक इस क्षेत्र में लेखों में प्रतिष्ठाकारक भट्टारकों के नाम नहीं है। देवगढ़ या बहोरीबन्द के प्रतिष्ठाकारक, सम्भवतः भट्टारक नहीं थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि भट्टारक परम्परा इस क्षेत्र में इस समय तक प्रभाव में नहीं आई थी। विद्वानों की यह धारणा है कि भट्टारक परम्परा का प्रारम्भ मुस्लिम शासन काल में सम्भवतः तेरहवीं सदी में हुआ है । भ० प्रभाचन्द्र के प्रगुरु भ० धर्मचन्द्र का पहला नाम प्रतिष्ठित भट्टारक के रूप में आता है जिन्होंने १२७५ ई० में प्रतिष्ठायें कराई थी"। मूतिलेखों के आधार पर भट्टारक परम्पराओं का अनुमान बुन्देल खण्ड क्षेत्र में स्थित अनेक स्थानों के जिन मन्दिरों की मूर्तियों पर उत्कीर्ण लेखों में भट्टारक परम्परा के सम्बन्ध में अनेक सूचनायें मिलती है। सर्वप्रथम हमें १२०३ (११४६ ई०) में छतरपुर में प्रतिष्ठित भ० नेमिनाथ की मूर्ति पर त्रिकाली पंडित देवकीति के शिष्य प्राकृत चक्रवर्ती माणिक्यनन्दि का प्रतिष्ठाकार के रूप में उल्लेख मिलता है। इसमें भट्टारक पद अंकित नहीं है। इसी प्रकार छतरपुर में ही प्राप्त १२०९ (११५२ ई०) में प्रतिष्ठित एक मूर्ति पर सकलकीति नाम का उल्लेख है, पर वहाँ भी भट्टारक पद अंकित नहीं है, लेकिन नाम से ये भट्टारक प्रतीत होते हैं । उत्तरवर्ती काल में इस नाम से अनेक भट्टारक हुए हैं जिनमें भट्टारक पद्मनन्दि के शिष्य (१३९९-१४५६ ई.) सकलकीति अत्यन्त प्रतिभाशाली हुए हैं। इसके बाद भ० धर्मचन्द्र, भ० जिनचन्द्र आदि का उल्लेख पाया जाता है। अनेक मतियों पर भट्टारक-परम्परा (शिष्य-प्रशिष्य) का उल्लेख मिलता है। वस्तुतः ऐसे उल्लेख अल्पमात्रा में ही मिलते है पर ये ही हमारे लिये सर्वाधिक उपयोगी हैं। इनसे ज्ञात होता है कि जैनाम्नाय के विभिन्न संघों (मूल, काष्ठा, देवसेन, नन्दि आदि) में भट्टारक परम्परा स्वतन्त्र रूप से विकसित हुई होगी। बुन्देल खण्ड के क्षेत्र के जिनमूति लेखों से तीन प्रकार की भट्टारक परम्पराओं का पता चलता है : (i) मूलसंघ कुंदकुंदान्वय (ii) काष्ठासंघ (ii) देवसेन संघ इनमें मूलसंघी भट्टारक परम्परा इस क्षेत्र में सर्वाधिक प्रभावशाली रही है। काष्ठा संघ के कुल छह भट्टारकों का नाम १३८९-१५४२ (१३३१-१४८५ ई०) के बीच पाया गया है : (अ) भट्टारक सहस्रकीति-गुणकीति-यशःकीति (१४१६ ई०)। (ब) भट्टारक गुणनदेव (१४१५ ई०), ग्वालियर। (स) भट्टारक विशाल कीर्ति-भट्टारक विश्वसेन (१५१९ ई.)। यह संघ मुख्यतः अग्रोतकान्वय (अग्रवाल) या गृहपत्यन्वय (गहोई) उपजातियों से सम्बन्धित है, ऐसा प्रतीत होता है। ये जातियां इस क्षेत्र में कम ही हैं, अतः इनके विषय में न तो अधिक उल्लेख ही मिले हैं और न ही इन पर अभी काई विवरण ही प्रकाशित हुआ है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखंड के जैन तीर्थ : ३२९ मूर्तिलेख संवत् विक्रमी १२०९ १२७२ १७४२ १३४२ १३४५ १४२० १४८० १५०९ १५२१ १५३५ १५२१ १५४२ १५४८ १५४७ १५५१ १५८० १५८० १६१५ १६४६ १६६४ सारणी २ : मूर्तिलेखों में भट्टारक परंपरा भट्टारक नाम या परंपरा मूर्तिलेख संवत् विक्रमी सकलकीति १६९४ भ० धर्मचंद्र शाह भ० नरेन्द्रकीर्ति भ० देवेन्द्रकीति-क्षेमकीर्ति १६२७ भ० प्रभाचंद्र भ० जिनचंद्र १७१३, १६, १८ भ० जिनचंद्र १७१८ भ. धर्मचंद्र-कनकसागर भ० भुवनकीति (१५०८-३५) १७२५, २६ १७३५ भ. भुवनकीति भ० सिंहकीर्ति भ० पद्मचंद्र-जिनचंद्र १७४४ भ० जिनचंद्र १७४४ भ० जिनेन्द्रभूषण भ० त्रिभुवनकीति १७४६ भ० जिनचंद्र १७४६ भ० श्रुतचंद्र पाटनी १७५४ भ० पद्मनंदि भ. यशकीति-ललितकीति १७५५ भ० जिनेन्द्र भूषण १७६५ भ. जोवराज १७६६ भ० धर्मकीर्ति (नैनागिर) १७७३ भ० सकलकीर्ति यशकीति, ललितकीति, १७७९ चक्रकीति, चंद्रकीर्ति भ० ललितकीर्ति १७९३ भ० धर्मकीर्ति १७९८ भ० ललितकीति-रत्नकोति भ• धर्मकीति, शीलभूषण, १७९९ ज्ञानभूषण, जगत्भूषण १८३० भ० शीलभूषण-जगत्भूषण १८३५ भ० सुरेन्द्रकीति, जिनेन्द्रकीति, १८३९ देवेन्द्र कीति १८७६ भ० पद्मकीर्ति १८९३ भट्टारक नाम या परंपरा भ० देवकीर्ति भ० ललितकीर्ति-धर्मकीति पद्मकीति भ० धर्मकीति-शीलभूषणज्ञानभूषण-जगतभूषण भ० पद्मकीति-सकलकीति भ. धर्मकीर्ति-पद्मकीति सकलकीर्ति भ० सकलकीर्ति भ० जगद्भूषण-विश्वभूषण देवेन्द्रभूषण भ० जगद्भूषण भ० सुरेन्द्रकीर्ति भ० पद्मकीर्ति-सकलकीति सुरेन्द्रकीर्ति भ० सुरेन्द्रकीर्ति भ० जगत्कीर्ति धर्मकीति-पद्मकीति-सकलकीतिसुरेन्द्रकीर्ति सकलकीति-सुरेन्द्रकीति सकलकीति भ० जगत्कोति भ० विश्वभूषण, देवेन्द्रभूषण, सुरेन्द्रभूषण, लक्ष्मीभूषण भ० धर्मकीति, पद्मकीर्ति, सकलकीति, कीतिदेव भ० देवेन्द्रकीति, क्षेमकीति सुरेन्द्रकीति, जिनेन्द्रकीति, देवेन्द्रकीर्ति सुरेन्द्रकीति शिष्य पं. भीमसेन भ० जिनवर जी भ० महेन्द्रकीति भ० जिनेन्द्रभूषण भ. नरेन्द्रकीति भ० सुरेन्द्रकीति १६७८ १६८२ १६८४ १६८७ १६८७, ८९ १६८८ १६९३ १६९४ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड साडौरा (गुना) से प्राप्त एक मूर्तिलेख से यह प्रकट होता है कि संवत् ६१० (५५३ ई०) से ही मूल संघ और पौरपाटान्वय का उल्लेख प्रारम्भ हो गया था। फिर भी, इस क्षेत्र में उसका उल्लेख पर्याप्त उत्तरवर्ती दिखता है। वस्तुतः जैन आम्नाय में अनेक संघों की स्थापना, दक्षिण एवं उत्तर भारत में, विभिन्न समयों में हुई है। जब उस ओर के लोग इधर आये, उसके सदियों बाद इन संघों का उल्लेख यहाँ प्रारम्भ हुआ । यहीं नहीं, इन संघों का गच्छ और गण के रूप में विशिष्टीकरण भी हुआ। यह विशिष्टोकरण भी सर्वप्रथम १००७ (९५० ई०) में सिरोज में प्रतिष्ठित मूर्ति के लेख में पाया गया है। बुन्देल खंड क्षेत्र की अधिकांश मूर्तियों में मूलसंध के सरस्वती गच्छ एवं बलात्कार गण का उल्लेख मिलता है नन्दिसंघ और काष्ठासंघ उत्तरवर्ती है । मूलसंघ में ही भट्टारक परम्परा, सम्भवतः सर्वप्रथम मुस्लिम शासन काल-११-१२वीं सदी में प्रचलित हुई होगी। इस परम्परा ने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये जिनमें (i) धर्म प्रभावना (ii) प्रतिष्ठायें (iii) साहित्य-निर्माण (iv) साहित्य-संरक्षण के कार्य मुख्य हैं। इन कार्यों से ही यह परम्परा लगभग ६०० वर्ष तक चली। वि० १८९३ (१८३६ ई.) के बाद भट्टारकों के उल्लेख इस क्षेत्र में कम ही मिलते हैं। अब यह दक्षिण भारत को छोड़कर शेष भारत में समाप्तप्राय है। जिनमूर्ति लेखों में प्रतिष्ठापक भट्टारक और उनकी गुरु-शिष्य परम्परा का उल्लेख मिलता है। इन उल्लेखों से भद्रारक परम्परा के विकास का अनुमान सहज लगाया जा सकता था । पर इस परम्परा में प्रारम्भिक काल को छोड़कर बाद में अनेक स्थानों पर शिष्य-प्रशिष्यों ने अपने पथक पोठ स्थापित कर लिये। उनके अनेक उत्तराधिकारियों के नामों में समानता होने से प्रत्येक परम्परा का सही रूप निश्चित कर पाना कठिन हो गया है। भट्टारक परम्परा के इतिहास एवं पट्टावलियों से पता चलता है कि दिल्ली, नागौर, जयपुर, अजमेर, डुंगरपुर, बाँसवाड़ा, सूरत, खंभात, कारंजा, नागपुर, श्रवणबेलगोल, सोनागिरि, ग्वालियर, चंदेरी एवं अन्य स्थानों पर समय-समय पर भट्रारक गादियाँ स्थापित हई जिनके अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र रहे । बन्देल खंड क्षेत्र में प्राप्त मूर्ति लेखों से पता चलता है कि इस क्षेत्र में काष्ठासंघ की ग्वालियर गद्दी तथा मूलसंघ की अनेक गद्दियों का प्रभाव रहा है। सारणी २ में इस क्षेत्र में विभिन्न मूर्तियों पर उल्लिखित भट्टारक और उनकी परम्परा के उल्लेखों को संक्षेपित किया गया है। इस आधार पर ही आगे का समीक्षण किया गया है। रीवा, छतरपुर, कुंडलपुर और पपौरा की अनेक मूर्तियों पर भट्टारक परंपरा का विवरण मिलता है । इन्हें यहाँ दिया जा रहा है। सबसे स्पष्ट विवरण कंडलपुर के बड़े बाबा के मंदिर के प्रवेश द्वार पर अंकित शिलालेख में पाया जाता है । यह वि० सं० १७५७ (१७०० ई०) का है। इस आधार पर बुन्देलखंड क्षेत्र की निम्न भट्टारक-परंपरा मुख्यतः प्रतीत होती है : (म) कुंडलपुर क्षेत्र पर अंकित भ० परंपरा (ब) पपौरा को भ० परंपरा (स) रीवा की भ० परंपरा (द) छतरपुर यश-कीर्ति यशःकीति ललितकीति (१५९१-१६४०) ललितकीति ललितकीर्ति ललितकीर्ति धर्मकीर्ति (१५९१-१६३६) रत्लकीति धर्मकीति धर्मकीर्ति पद्मकीर्ति (सकलकीर्ति) पद्मकीति सकलचंद्र पद्म कीति सुरेन्द्रकोति सकलकीर्ति पद्मकीति सकलकीति सुचंदगण एवं नमिसागर (सुरेन्द्रकीति) सकलकीर्ति सुरेन्द्रकीति (१७५७) कीर्तिदेव गुणकर जिनेन्द्र कीर्ति देवेन्द्रकीति क्षेमकीर्ति (य) छतरपुर के मूर्तिलेखों की वैकल्पिक परंपरा में (अटेरशाखा) (i) भ० जिनचंद, भ० सिंहकीति, भ० धर्मकीर्ति, भ० शीलभूषण, भ० ज्ञानभूषण, भ० जगत्भूषण, भ० विश्वभूषण, भ० देवेन्द्रभूषण, भ० सुरेन्द्रभूषण, भ० लक्ष्मीभूषण । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखंड के जैन तीर्थ : ३३१ अन्य परम्परायें भी हैं, पर विरल है। ये परम्पराये मूलसंधी हैं और भ० पद्मनन्दि (१३००-९४ ई०) के शिष्य प्रशिष्यों ने प्रारम्भ की है । मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय की जेरहट (मालवा) शाखा इनके साक्षात् शिष्य भ० देवेन्द्रकीति ने भ० सकलकीति के प्रभाव को नियन्त्रित करने के लिये सूरत से प्रारम्भ की थी। इसकी अनेक उपशाखायें हुईं। इसमें भ० त्रिभुवनकीति, सहस्रकीर्ति, पद्मनन्दि, यशःकोति, ललितकीर्ति (रत्नकीति), धर्मकीर्ति, पद्मकीर्ति एवं अन्य भट्टारक समाहित हैं । बुन्देलखण्ड क्षेत्र में पाये जाने वाले अधिकांश मूर्तिलेखों में यही परम्परा पाई जाती है । दूसरी मूलसंघो नई शाखा भ० पद्मनन्दि के प्रशिष्य भ० जिनचन्द्र के शिष्य सिंहकीति ने प्रारम्भ की थी। इसे अटेर शाखा कहा जाता है। इसके कम से कम दस भट्टारकों के नाम सुज्ञात है। इन शाखाओं के भट्टारकों के विषय में मनोरंजक तथ्य यह है कि सम्भवतः इन शाखाओं के अधिकांश भट्टारकों के जीवन एवं क्रियावृत्त के विषय में अभी तक सही जानकारी नहीं है। जो भी जानकारी उपलब्ध है, वह मूर्तिलेखों के आधार पर ही संग्रहीत है। ___इन मूर्तिलेखों से प्रथम तो यह बात स्पष्ट होती है कि भट्टारक प्रतिष्ठित मूर्तियाँ तेरहवीं सदी के प्रारम्भ से प्रमुखता से मिलती हैं। इनमें भ, धर्मचन्द्र (१२१५ ई०), प्रभाचन्द्र (१२३३-१३५१), पद्मनन्दि (१४०८) का समय एवं कार्य अधिकांश में ज्ञात है। इनके बाद पद्मनन्दि के शिष्य-प्रशिष्यों ने अनेक स्थानों पर पृथक्-पृथक् शाखायें या गादियां स्थापित की। राजस्थानो गादियों का तो कुछ इतिहास मिलता भी है, पर अन्य स्थानों की गादियों का इतिहास प्रायः अस्पष्ट है। जैन संस्कृति के विकास, संरक्षण एवं प्रभावकत्व हेतु भट्टारकों के योगदान को जानने के लिए इसका महत्व स्पष्ट है। इस दिशा में प्रयत्न आवश्यक है । उदाहरणार्थ, बुन्देलखण्ड क्षेत्र के जिनमूर्ति लेखों में जेरहट और अटेर शाखा के महत्वपूर्ण भट्टारकों के विषय में जोहरापुर, शास्त्रो एवं काशलीवाल द्वारा प्रदत्त जानकारी नितान्त अपूर्ण है। अटेर शाखा के संस्थापक भ० सिंहकीति के गुरु भ० जिनचन्द्र (१४८०-१५८०) का पर्याप्त विवरण उपलब्ध है। इनके माध्यम से सेठ जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठापित प्रतिमायें प्रायः प्रत्येक जैन मन्दिर में पाई जाती है। पर इनके विषय में जानकारी का अभाव है। पर इस शाखा के भट्टारकों की परम्परा छतरपुर की मूर्तियों में मिलती है। यहाँ १७१६ ई० में प्रतिष्ठित यन्त्र पर भ० लक्ष्मोभूषण को अटेर-परम्परा के नाम दिये हुए हैं। इसके बाद इस परम्परा का उल्लेख नहीं मिलता। इसीप्रकार भ० जिनेन्द्रभूषण के द्वारा १७८२ ई० में महत्वपूर्ण प्रतिष्ठा कराई गई थों । इनका विवरण भी अनुपलब्ध है। जेरहट शाखा का सम्बन्ध भ० पद्मनन्दि के शिष्य भ० देवेन्द्रकोति से है। ये भ० सकलकीर्ति के समकालीन थे, पर इनका पूर्ण विवरण उपलब्ध नहीं होता। इनके शिष्य भ० त्रिभुवनकोति के द्वारा प्रतिष्ठित एक मूर्ति १४९४ की इस क्षेत्र में पाई गई है। इनके प्रशिष्य भ० पद्मनन्दि के द्वारा १५४२ ई० में प्रतिष्ठित एक मूर्ति भी यहाँ पाई गई है। इन भ० पद्मनन्दि के विषय में भी जानकारी अपूर्ण है। इनके शिष्य भ० यश.कोर्ति १५९१ ई० के पूर्व रहे होंगे, ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि इस समय से भ० ललितकोति द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां मिलने लगती है। ये १५९१-१६४० ई. तक अत्यन्त विश्रत भट्टारक रहे हैं, पर इनके विषय में कोई विवरण नहीं मिलता । शास्त्रो ने अनेक प्रकरणों के विपर्यास में. यह भी नहीं बताया कि ललितकीर्ति नामक अनेक भट्टारक भी थे। वस्तुतः सकलकीति के समान ललितकीति नाम के अनेक भट्टारक हुए हैं। इनमें एक भ० प्रभाचन्द्र के प्रशिष्य एवं भ० धर्मचन्द्र के शिष्य हैं जो १५१४-७५ ई. के बीच रहे है और इनका प्रमुख कार्यक्षत्र राजस्थान रहा है। एक अन्य ललितकीर्ति काष्ठासंघ को दिल्ली गादो में हए हैं। इनका भी विवरण नगण्य ही उद्धृत है । जेरहट गादी के भट्टारक ललितकीति तीसरे ही हैं। कुंडलपुर, पपौरा, छतरपुर आदि में इनकी परम्परा का उल्लेख है। मति-प्रतिष्ठा के समय के आधार पर इस परम्परा के भदारकों का स मानित किया जा सकता है। भ० ललितकीर्ति के दो प्रमुख शिष्य थे, धर्मकीति और रत्नकोति । इन दानों ने ही मतियों की प्रतिष्ठा कराई है। पपौरा क्षेत्र पर रत्न कीति और धर्मकीर्ति दोनों के द्वारा प्रतिष्टित मुर्ति छतरपुर की मूर्तियाँ धर्मकीर्ति परम्परा में हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि ललितकीर्ति के पट्टशिष्य धर्मकीति ही रहे होंगे। जोर पकात दाना कहारा प्रातात मूतियाह । कडलपूर, रावा एवं Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड भ० रनकोति अल्पज्ञात होंगे। भ. धर्मकीर्ति का कार्यकाल अल्प ही रहा होगा, ऐसा प्रतीत होता है। उन्होंने ललितकीति के समय में ही सम्भवतः मण्डलाचार्य के रूप में स्वतन्त्र प्रतिष्ठायें कराई होंगी। इनके द्वारा प्रतिष्ठित एक मूर्ति नैनागिर में 1609 ई० की है। कुछ मूर्तियाँ 1627 ई० को भी मिलती है। इनके शिष्य भ० पद्मकीति थे। इनके द्वारा 1637 में प्रतिष्ठित एक म तरपुर के मन्दिरों में पाई गई है। इनका कार्यकाल भी अल्प ही रहा होगा। इनका विवरण भी उपलब्ध नहीं होता। इनके शिष्य भ० सकलकीर्ति (1656-1670) के द्वारा प्रतिष्ठित अनेक मूर्तियां इस क्षेत्र में पाई जाती हैं, पर इनका जीवनवृत्त उपलब्ध नहीं होता। इनके शिष्य भट्टारक सुरेन्द्रकीति रहे है जिनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ 1687-1710 ई० के बीच पाई जाती है। इससे अनुमान लगता है कि भ० सकलकोति 1685 ई० तक रहे होंगे। भ० सुरेन्द्रकीति के शिष्यों में जिनेन्द्रकीर्ति प्रमुख थे। इनके शिष्य भ० देवेन्द्रकोर्ति हुए / इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ सन् 1741-61 की प्राप्त होती है / इनके शिष्य क्षेमकीर्ति हुए। उन्होंने भी सम-सामयिक प्रतिष्ठायें कराई हैं। इनके काफी दीर्घकाल बाद भ. सुरेन्द्रकीति का नाम आता है जिनके द्वारा सन् 1836 की एक प्रतिष्ठित प्रतिमा पाई गई है। इसके बाद भट्टारक-परम्परा का मूर्तिलेखों में उल्लेख अल्प ही मिलता है। इस विवरण से यह स्पष्ट है कि बुन्देलखण्ड क्षेत्र में प्रभावी अटेर और जेरहट की भट्रारक परम्परा के विषय में सन्तोषपूर्ण जानकारी का अभाव है। इसके लिये प्रयत्न किया जाना चाहिये / इस क्षेत्र के सभी जैन केन्द्रों (तोर्थों एवं संस्थाओं आदि) को अपनी आय के कुछ प्रतिशत को ऐसे ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक कार्य में सत्प्रयुक्त करना चाहिये / मूर्तिलेखों से अन्य जानकारियां उपरोक्त जानकारी के अतिरिक्त मूर्तिलेखों से राजवंश, मतिकार एवं लेखकार, प्रतिष्ठाकारक गृहस्थों के के परिवारों की नामावली एवं जैन उपजातियों के विवरणों का भी ज्ञान होता है। इस आधार पर सिद्धान्तशास्त्री जैनों की परवार-उपजाति के इतिहास को लेखबद्ध कर रहे हैं। इन जानकारियों की समीक्षा अगले निबन्ध में की जायेगी। . सन्दर्भ 1. डा. कस्तूरचन्द्र काशलीवाल (प्र० सं०); 2. कमलकुमार शास्त्री; 3. कमलकुमार जैन; 4. कैलाश भड़वैया; 5. नीरज जैन; पं. बाबूलाल जमादार अभि० ग्रन्य; शास्त्री परिषद्, बडौत, 1981 पेज 353-400 / पपौरा दर्शन, पपौरा क्षेत्र, टोकमगढ़, 1976 / जिनमूति प्रशस्ति लेख, दि० जेन बड़ा मन्दिर, छतरपुर, 1982 / बानपुर, दि० जैन अतिशय क्षेत्र, बानपुर (ललितपुर), 1978 / कुंडलपुर, सुषमा प्रकाशन, सतना, 1964 / बहोरीबन्द वैभव, दि० जैन अतिशय क्षेत्र, बहोरीबन्द, जबलपुर, 1984 / पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभि० ग्रन्थ, काशो, 1985 / 8. सन्दर्भ 3 पेज 28 देखिये / 9. वही, पेज 13 / 10. विमलकुमार सोरया, 11. काशलीवाल, के. सी० और जोहरापुरकर विद्याधर; 12. नेमचन्द्र शास्त्री; देखिये सन्दर्भ 1 पेज 392 / वीर शासन के प्रभावक आचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 1975 पेज 121 / तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, दि. जैन विद्वत परिषद्, सागर, 1974 पेज 492 /