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बुन्देलखंड के जैन तीर्थ : ३२५ बुन्देलखण्ड क्षेत्र
इस क्षेत्र के भू-भाग का प्राचीन नाम चेदि देश था। इसके पड़ोस में वत्स जनपद था। राजा वसु और महाराजा शिशुपाल चेदि वंश के हो राजा थे । ईसापूर्व पहली दूसरी सदो के कलिंग नरेश खारवेल के पूर्वज भी चेदिवंशी थे। उत्तरवर्ती काल में यहाँ कलचुरि चन्देल एवं बुन्देल राजाओं का शासन रहा । इस क्षेत्र का नाम भी डाहल (त्रिपुरी). जैजाक भुक्ति और बुन्देलखण्ड के रूप में परिवर्तित होता रहा। वर्तमान में यह क्षेत्र बुन्देलखण्ड कहा जाता है। इसकी सोमायें सामान्य और वृहत्तर बुन्देलखण्ड के आधार पर परिभाषित की जाती है। यह क्षेत्र चम्बल (ग्वालियर) और नमंदा (हुशंगाबाद), वेत्रवतो (देवगढ़) तमस और सोन (अमरकंटक) नदियों का मध्यवर्ती क्षेत्र है। इसके अन्तर्गत वर्तमान मध्यप्रदेश के ग्वालियर, हशगाबाद, सागर, जबलपुर तथा रोवा कमिश्नरी क्षेत्र एवं उत्तरप्रदेश के झांसी कमिश्नरी के क्षेत्र समाहित होते हैं। इसके अन्तर्गत लगभग १५-१८ जिले आते हैं । यह क्षेत्र अपनी वीरता, धर्मप्रियता, धार्मिक सहिष्णुता, स्थापत्य कला एवं मूर्तिकला के लिये पिछले एक हजार वर्ष से विख्यात है।
इस क्षेत्र के सांस्कृतिक विहंगावलोकन से ज्ञात होता है कि यहां जैन धर्म सदा से महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली रहा है। यही कारण है कि इस क्षेत्र में जैन धर्म से सम्बन्धित अनेक धर्मतीर्थ एव कलातीर्थ पाये जाते हैं। नित नये उत्खननों से इस क्षेत्र में जैन संस्कृति के व्यापक प्रभाव का अनुमान लगाया जा सकता है। तीर्थ किसी भी कोटि का क्यों न हो, वहाँ मंदिर और मूर्तियां अवश्य पाये जाते हैं । जहाँ प्राचीन मन्दिर स्थापत्यकला के वैभव को निरूपित करते हैं, वहीं मन्दिरों में प्रतिष्ठित जिन मूर्तियाँ और उनपर उत्कीर्ष लेख मूर्तिकला के विकास एवं तत्तत्कालीन राजनीतिक एवं सामाजिक इतिहास पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं। इस क्षेत्र की जैन स्थापत्यकला पर अनेक शोधकों ने महत्वपूर्ण विवरण दिषे हैं, पर जिन मूर्तिलेखों के विवरणों का समीक्षापूर्ण अध्ययन कम ही हुआ है । अभी जैन और सिद्धान्तशास्त्री के कुछ निरीक्षण-समीक्षण प्रकाशित हुए हैं । इस कार्य को और भी आगे बढ़ाने की आवश्यकता है । प्रस्तुत विश्लेषण इसो क्रम में एक और प्रयत्न है । जिनमूति-लेखों का रूप और उसके फलितार्थ
विभिन्न क्षेत्रों एवं ग्राम-नगरों में स्थित जैन मूर्तियों पर जो लेख पाये जाते है, उनमें निम्न सूचनाओं में से कुछ या पूरी सूचनायें रहती है :
(१) प्रतिष्ठा का संवत् एवं तिथि-(संवत् मुख्यतः विक्रमी होता है जो ईस्वी सन् से ५७ वर्ष अधिक होता है।)
(२) जैन-संघ एवं अन्वय परम्परा का नाम-इनमें मूलसंघ एवं कुंदकुंदान्वय प्रमुख पाया गया है। अनेक लेखों में काष्ठासंघ का भी नाम पाया जाता है । इसके अवान्तर गण और गच्छों की भी सूचना रहती है।
(३) प्रतिष्ठाकारक भट्टारक और उनको गुरु परंपरा का विवरण-यह परंपरा अतिप्राचीन लेखों में (जब इस परंपरा का प्रारंभ ही नहीं हआ था अथवा यह प्रारंभ हो हई होगी) एवं उन्षीसवीं सदो के अन्तिम दशकों में प्रतिष्ठित मूर्तियो पर प्रायः नहीं पाई जाती (जब यह परंपरा ह्रासमान होने लगी है)।
(४) प्रतिष्ठापक श्चेष्ठियों, युरुषों एवं उनके कुटुम्ब का विवरण-इस विवरण में कुटुम्ब के मुख्य व्यक्ति का नाम, उसकी पत्नी एवं पुत्रों आदि का विवरण रहता है। साथ ही, उनकी जैन जाति-उ पजातियों का नाम व विवरण भी पाया जाता है । बुन्देलखंड क्षेत्र को जैनमूर्तियों में प्रायः गोलापूर्व, पौरपट्ट या परवार, अग्रोतक या अग्रवाल एवं गोलाराड् या गोलालारे जातियों के नाम पाये जाते है । इन्हें 'अन्वय' कहा गया है ।
(५) तत्कालीन राजाओं और उनके वंशों का उल्लेख-ये उल्लेख उपरोक्त चार की तुलना में पर्याप्त उत्तरवर्ती प्रतीत होते है । फिर भी, इनसे क्षेत्र-विशेष के राजनीतिक इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त होती है । यह भो । ज्ञात होता है कि प्रतिष्ठाकालीन राजा उदारवृत्ति के थे और सभी धर्मों का आदर करते थे।
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