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३३० पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड साडौरा (गुना) से प्राप्त एक मूर्तिलेख से यह प्रकट होता है कि संवत् ६१० (५५३ ई०) से ही मूल संघ और पौरपाटान्वय का उल्लेख प्रारम्भ हो गया था। फिर भी, इस क्षेत्र में उसका उल्लेख पर्याप्त उत्तरवर्ती दिखता है। वस्तुतः जैन आम्नाय में अनेक संघों की स्थापना, दक्षिण एवं उत्तर भारत में, विभिन्न समयों में हुई है। जब उस ओर के लोग इधर आये, उसके सदियों बाद इन संघों का उल्लेख यहाँ प्रारम्भ हुआ । यहीं नहीं, इन संघों का गच्छ और गण के रूप में विशिष्टीकरण भी हुआ। यह विशिष्टोकरण भी सर्वप्रथम १००७ (९५० ई०) में सिरोज में प्रतिष्ठित मूर्ति के लेख में पाया गया है। बुन्देल खंड क्षेत्र की अधिकांश मूर्तियों में मूलसंध के सरस्वती गच्छ एवं बलात्कार गण का उल्लेख मिलता है नन्दिसंघ और काष्ठासंघ उत्तरवर्ती है । मूलसंघ में ही भट्टारक परम्परा, सम्भवतः सर्वप्रथम मुस्लिम शासन काल-११-१२वीं सदी में प्रचलित हुई होगी। इस परम्परा ने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये जिनमें (i) धर्म प्रभावना (ii) प्रतिष्ठायें (iii) साहित्य-निर्माण (iv) साहित्य-संरक्षण के कार्य मुख्य हैं। इन कार्यों से ही यह परम्परा लगभग ६०० वर्ष तक चली। वि० १८९३ (१८३६ ई.) के बाद भट्टारकों के उल्लेख इस क्षेत्र में कम ही मिलते हैं। अब यह दक्षिण भारत को छोड़कर शेष भारत में समाप्तप्राय है। जिनमूर्ति लेखों में प्रतिष्ठापक भट्टारक और उनकी गुरु-शिष्य परम्परा का उल्लेख मिलता है। इन उल्लेखों से भद्रारक परम्परा के विकास का अनुमान सहज लगाया जा सकता था । पर इस परम्परा में प्रारम्भिक काल को छोड़कर बाद में अनेक स्थानों पर शिष्य-प्रशिष्यों ने अपने पथक पोठ स्थापित कर लिये। उनके अनेक उत्तराधिकारियों के नामों में समानता होने से प्रत्येक परम्परा का सही रूप निश्चित कर पाना कठिन हो गया है। भट्टारक परम्परा के इतिहास एवं पट्टावलियों से पता चलता है कि दिल्ली, नागौर, जयपुर, अजमेर, डुंगरपुर, बाँसवाड़ा, सूरत, खंभात, कारंजा, नागपुर, श्रवणबेलगोल, सोनागिरि, ग्वालियर, चंदेरी एवं अन्य स्थानों पर समय-समय पर भट्रारक गादियाँ स्थापित हई जिनके अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र रहे । बन्देल खंड क्षेत्र में प्राप्त मूर्ति लेखों से पता चलता है कि इस क्षेत्र में काष्ठासंघ की ग्वालियर गद्दी तथा मूलसंघ की अनेक गद्दियों का प्रभाव रहा है। सारणी २ में इस क्षेत्र में विभिन्न मूर्तियों पर उल्लिखित भट्टारक और उनकी परम्परा के उल्लेखों को संक्षेपित किया गया है। इस आधार पर ही आगे का समीक्षण किया गया है।
रीवा, छतरपुर, कुंडलपुर और पपौरा की अनेक मूर्तियों पर भट्टारक परंपरा का विवरण मिलता है । इन्हें यहाँ दिया जा रहा है। सबसे स्पष्ट विवरण कंडलपुर के बड़े बाबा के मंदिर के प्रवेश द्वार पर अंकित शिलालेख में पाया जाता है । यह वि० सं० १७५७ (१७०० ई०) का है। इस आधार पर बुन्देलखंड क्षेत्र की निम्न भट्टारक-परंपरा मुख्यतः प्रतीत होती है : (म) कुंडलपुर क्षेत्र पर अंकित भ० परंपरा (ब) पपौरा को भ० परंपरा (स) रीवा की भ० परंपरा (द) छतरपुर यश-कीर्ति
यशःकीति ललितकीति (१५९१-१६४०)
ललितकीति ललितकीर्ति
ललितकीर्ति धर्मकीर्ति (१५९१-१६३६)
रत्लकीति धर्मकीति
धर्मकीर्ति पद्मकीर्ति (सकलकीर्ति)
पद्मकीति सकलचंद्र
पद्म कीति सुरेन्द्रकोति
सकलकीर्ति पद्मकीति
सकलकीति सुचंदगण एवं नमिसागर
(सुरेन्द्रकीति) सकलकीर्ति
सुरेन्द्रकीति (१७५७)
कीर्तिदेव गुणकर
जिनेन्द्र कीर्ति देवेन्द्रकीति
क्षेमकीर्ति (य) छतरपुर के मूर्तिलेखों की वैकल्पिक परंपरा में (अटेरशाखा)
(i) भ० जिनचंद, भ० सिंहकीति, भ० धर्मकीर्ति, भ० शीलभूषण, भ० ज्ञानभूषण, भ० जगत्भूषण, भ० विश्वभूषण, भ० देवेन्द्रभूषण, भ० सुरेन्द्रभूषण, भ० लक्ष्मीभूषण ।
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