Book Title: Jin Murti Lekh Vishelshan Tirthakar Manyata evam Bhattarak Parampara Author(s): N L Jain Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf View full book textPage 8
________________ बुन्देलखंड के जैन तीर्थ : ३३१ अन्य परम्परायें भी हैं, पर विरल है। ये परम्पराये मूलसंधी हैं और भ० पद्मनन्दि (१३००-९४ ई०) के शिष्य प्रशिष्यों ने प्रारम्भ की है । मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय की जेरहट (मालवा) शाखा इनके साक्षात् शिष्य भ० देवेन्द्रकीति ने भ० सकलकीति के प्रभाव को नियन्त्रित करने के लिये सूरत से प्रारम्भ की थी। इसकी अनेक उपशाखायें हुईं। इसमें भ० त्रिभुवनकीति, सहस्रकीर्ति, पद्मनन्दि, यशःकोति, ललितकीर्ति (रत्नकीति), धर्मकीर्ति, पद्मकीर्ति एवं अन्य भट्टारक समाहित हैं । बुन्देलखण्ड क्षेत्र में पाये जाने वाले अधिकांश मूर्तिलेखों में यही परम्परा पाई जाती है । दूसरी मूलसंघो नई शाखा भ० पद्मनन्दि के प्रशिष्य भ० जिनचन्द्र के शिष्य सिंहकीति ने प्रारम्भ की थी। इसे अटेर शाखा कहा जाता है। इसके कम से कम दस भट्टारकों के नाम सुज्ञात है। इन शाखाओं के भट्टारकों के विषय में मनोरंजक तथ्य यह है कि सम्भवतः इन शाखाओं के अधिकांश भट्टारकों के जीवन एवं क्रियावृत्त के विषय में अभी तक सही जानकारी नहीं है। जो भी जानकारी उपलब्ध है, वह मूर्तिलेखों के आधार पर ही संग्रहीत है। ___इन मूर्तिलेखों से प्रथम तो यह बात स्पष्ट होती है कि भट्टारक प्रतिष्ठित मूर्तियाँ तेरहवीं सदी के प्रारम्भ से प्रमुखता से मिलती हैं। इनमें भ, धर्मचन्द्र (१२१५ ई०), प्रभाचन्द्र (१२३३-१३५१), पद्मनन्दि (१४०८) का समय एवं कार्य अधिकांश में ज्ञात है। इनके बाद पद्मनन्दि के शिष्य-प्रशिष्यों ने अनेक स्थानों पर पृथक्-पृथक् शाखायें या गादियां स्थापित की। राजस्थानो गादियों का तो कुछ इतिहास मिलता भी है, पर अन्य स्थानों की गादियों का इतिहास प्रायः अस्पष्ट है। जैन संस्कृति के विकास, संरक्षण एवं प्रभावकत्व हेतु भट्टारकों के योगदान को जानने के लिए इसका महत्व स्पष्ट है। इस दिशा में प्रयत्न आवश्यक है । उदाहरणार्थ, बुन्देलखण्ड क्षेत्र के जिनमूर्ति लेखों में जेरहट और अटेर शाखा के महत्वपूर्ण भट्टारकों के विषय में जोहरापुर, शास्त्रो एवं काशलीवाल द्वारा प्रदत्त जानकारी नितान्त अपूर्ण है। अटेर शाखा के संस्थापक भ० सिंहकीति के गुरु भ० जिनचन्द्र (१४८०-१५८०) का पर्याप्त विवरण उपलब्ध है। इनके माध्यम से सेठ जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठापित प्रतिमायें प्रायः प्रत्येक जैन मन्दिर में पाई जाती है। पर इनके विषय में जानकारी का अभाव है। पर इस शाखा के भट्टारकों की परम्परा छतरपुर की मूर्तियों में मिलती है। यहाँ १७१६ ई० में प्रतिष्ठित यन्त्र पर भ० लक्ष्मोभूषण को अटेर-परम्परा के नाम दिये हुए हैं। इसके बाद इस परम्परा का उल्लेख नहीं मिलता। इसीप्रकार भ० जिनेन्द्रभूषण के द्वारा १७८२ ई० में महत्वपूर्ण प्रतिष्ठा कराई गई थों । इनका विवरण भी अनुपलब्ध है। जेरहट शाखा का सम्बन्ध भ० पद्मनन्दि के शिष्य भ० देवेन्द्रकोति से है। ये भ० सकलकीर्ति के समकालीन थे, पर इनका पूर्ण विवरण उपलब्ध नहीं होता। इनके शिष्य भ० त्रिभुवनकोति के द्वारा प्रतिष्ठित एक मूर्ति १४९४ की इस क्षेत्र में पाई गई है। इनके प्रशिष्य भ० पद्मनन्दि के द्वारा १५४२ ई० में प्रतिष्ठित एक मूर्ति भी यहाँ पाई गई है। इन भ० पद्मनन्दि के विषय में भी जानकारी अपूर्ण है। इनके शिष्य भ० यश.कोर्ति १५९१ ई० के पूर्व रहे होंगे, ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि इस समय से भ० ललितकोति द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां मिलने लगती है। ये १५९१-१६४० ई. तक अत्यन्त विश्रत भट्टारक रहे हैं, पर इनके विषय में कोई विवरण नहीं मिलता । शास्त्रो ने अनेक प्रकरणों के विपर्यास में. यह भी नहीं बताया कि ललितकीर्ति नामक अनेक भट्टारक भी थे। वस्तुतः सकलकीति के समान ललितकीति नाम के अनेक भट्टारक हुए हैं। इनमें एक भ० प्रभाचन्द्र के प्रशिष्य एवं भ० धर्मचन्द्र के शिष्य हैं जो १५१४-७५ ई. के बीच रहे है और इनका प्रमुख कार्यक्षत्र राजस्थान रहा है। एक अन्य ललितकीर्ति काष्ठासंघ को दिल्ली गादो में हए हैं। इनका भी विवरण नगण्य ही उद्धृत है । जेरहट गादी के भट्टारक ललितकीति तीसरे ही हैं। कुंडलपुर, पपौरा, छतरपुर आदि में इनकी परम्परा का उल्लेख है। मति-प्रतिष्ठा के समय के आधार पर इस परम्परा के भदारकों का स मानित किया जा सकता है। भ० ललितकीर्ति के दो प्रमुख शिष्य थे, धर्मकीति और रत्नकोति । इन दानों ने ही मतियों की प्रतिष्ठा कराई है। पपौरा क्षेत्र पर रत्न कीति और धर्मकीर्ति दोनों के द्वारा प्रतिष्टित मुर्ति छतरपुर की मूर्तियाँ धर्मकीर्ति परम्परा में हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि ललितकीर्ति के पट्टशिष्य धर्मकीति ही रहे होंगे। जोर पकात दाना कहारा प्रातात मूतियाह । कडलपूर, रावा एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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