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8. प्रस्तावना
के भी संरक्षक और विद्वान भी थे । उनके शिष्य द्वारा यह भंडार किले के मुख्य भंडार में दे दिया गया है ।
बाकी के दोनों (गुजराती लुकागच्छ तथा लघु आचार्य गच्छ का) भंडार भी यही १७ वीं शताब्दी के आसपास ही स्थापित हुए लगते हैं । इनमें गुजराती लंकागच्छ का (श्री लोकाशाह के अनुयायियों का नहीं) और खरतरगच्छकी एक शाखा लघु आचार्यगच्छ का है । इन दोनों मंडारों की प्रतियाँ भी उच्चस्तरीय थी ।
जैसलमेर के ग्रंथभंडार पहले बहुत अधिक समृद्ध थे. परंतु जब से युरोपीय लोगोंका आगमन, शासन व वर्चस्व इस क्षेत्रमें बढ़ा तब से इन भंडारों का ह्रास होना शुरु हो गया और सैंकडो की तादाद में महत्वपूर्ण ग्रंथ यहाँ से बाहर चले गये । लगभग देढ सो वर्ष पूर्व कर्नल टॉड, जो यतिजी का शिष्य बनकर रहा था, अपनी पुस्तक पश्चिमी भारत में प्रवास खा २४९ पर लिखता है -
"लोगों को परिश्रम के लिये प्रोत्साहित करने के निमित्त में एक बात कह दूँ जो साधारणतया बार बार नहीं कही जा सकती कि मैं ने जैसलमेर से कागज और ताडपत्र की कितनी ही प्रतियाँ प्राप्त कर ली थी । ताडपत्र की प्रतियाँ तो ३-५ और ८ शताब्दियों तक पुरानी है जो रॉयल एशियाटिक सोसायटी के पुस्तकालय की अलमारियों में सुरक्षित रखी हुई अब भी शोभा बढ़ा रही है । (जौहरीमलजी पारख लिखित प्रस्तावना का अंश यहाँ समाप्त होता है)
इस बात के तथ्यांश की परीक्षा कलकत्ते की रोयल एशियाटिक सोसायटी में जाकर उन प्रतियों को देखकर करनी चाहिये ।
जैसलमेर की विश्वविख्यात 'पटया हवेली के मालिकोंमें से एक सुश्रावक महेन्द्रभाई बाफना ने ईसवी सन् १९९७ में 'जैसलमेर जुहारिये नामकी स्मारिका प्रकाशित की है जिसमें जैसलमेरके मंदिरोंकी, मंदिरके सर्जकोंकी तथा अन्य ऐतिहासिक दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण बातोंका विस्तृत विवरण दिया है । वह खास पढ़ने जैसा है । जैसलमेर तथा भारतके कई स्थानोंमें ग्रंथभंडारोंकी स्थापना करनेवाले प.पूज्य आचार्यदेव श्रीमद्विजय जिनभद्रसूरीश्वरजी महाराज साहबका तथा इन ग्रंथभंडारोंके सर्जकोंमें अद्भुत धर्मप्रेमी, आगमग्रंथोंके रसिक श्रेष्ठी श्री थाहरुशाहजी का अद्भुत चरित्र 'जैसलमेर जुहारिये नामक स्मारिकासे उद्धृत करके यहाँ दिया जाता है ।
("जैसलमेर जुहारिये स्मारिका से उद्धृत) (श्रुतोद्धारक प्रभावक श्री जिनभद्रसूरि)
- श्री भंवरलाल नाहटा आचार्य प्रवर श्री जिनराजसूरिजी के पद पर श्री सागरचन्द्राचार्य ने श्री जिनवर्द्धनसूरि को स्थापित किया था, किन्तु उन पर दैवी प्रकोप हो गया अतः चौदह वर्ष पर्यन्त गच्छनायक रहने के अनन्तर गच्छोन्नति के हेतु सं. १४७५ में श्री जिनराजसूरि के पट्ट पर उन्हीं के शिष्य श्री जिनभद्रसूरिजी को स्थापित किया गया । श्री जिनभद्रसूरि जी पट्टाभिषेक रास के अनुसार आपका परिचय इस प्रकार है ।
मेवाड़ देश में देउलपुर नामक नगर है । वहाँ के राजा लखपति के राज्य में समृद्धिशाली छाजहड गोत्रीय श्रेष्ठी श्री धीणिग नामक व्यापारी निवास करते थे । उनकी शीलादिगुणविभूषिता सतीस्त्री का नाम खेतलदेवी था । इनकी रत्नगर्भा कोख से रामणकुमार ने जन्म लिया, ये असाधारण गुणसम्पन्न थे ।
एकबार श्री जिनराजसूरिजी महाराज उस नगर में पधारे । रामणकुमार के हृदय में आचार्यजी के उपदेशों से वैराग्य परिपूर्ण रुप से जागृत हो गया । कुमार ने अपनी मातुश्री से दीक्षा के लिए आज्ञा मांगी । माता ने अनेक प्रकार के प्रलोभन दिए. मिन्नत की, पर वह व्यर्थ हुई । अन्त में स्वेच्छानुसार आज्ञा प्राप्त कर ही ली । बड़े भारी समारोह पूर्वक दीक्षा की तैयारियां हुई । शुभमुहूर्त में श्री जिनराजसूरिजीने रामणकुमार को दीक्षित कर कीर्तिसागर नाम से प्रसिद्ध किया । सूरि महाराज ने समस्त शास्त्रों का अध्ययन करने के लिए उन्हें याचक शीलचन्द्र गणि को सौंपा । उनके पास इन्होंने विद्याध्ययन किया ।
चंद्रगच्छ शृंगार आचार्य श्री सागरचंद्रसूरि ने गच्छाधिपति श्री जिनराजसूरिजी के पट्ट पर कीर्तिसागरजी को बैठाना तय किया । भाणसउलीपुर साहुकार नाल्हिग रहते थे जिनके पिता का नाम महुडा और माता का नाम आंबणि था । लीलादेवी के भरतार शाह ने सर्वत्र कुंकुमपत्रिकाएं भेजी । बाहर से संघ विशालरुप में आने लगा । सन् १४७५ में शुभमुहूर्त के समय श्री सागरचंद्रसूरि ने श्री कीर्तिसागर मुनि को सूरिपद पर प्रतिष्ठित किया । नाल्हिग शाह ने बडे समारोह पूर्वक पट्टामिषेक उत्सव मनाया । नाना प्रकार के वाजिन्द्र बजाये । याचकों को मनोवांछित दान देकर सन्तुष्ट किया गया ।
क्षमाकल्याणजी की पट्टावली में आपका जन्म सं० १४४६ चैत्र शुक्ल षष्ठी को आर्द्रा नक्षत्र में लिखते हुए. भणशाली गोत्र आदि सात भकार अक्षरों को मिलाकर सं. १४ माघ
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