Book Title: Jesalmer ke Prachin Jain Granthbhandaron ki Suchi
Author(s): Jambuvijay
Publisher: Motilal Banarasidas

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Page 20
________________ 6- प्रस्तावना यहाँ निदर्शित जैसलमेरके तथा अन्यान्य स्थानोंमे स्थित प्राचीन ग्रंथभंडार केवल जैनधर्मके ग्रंथोंके संग्रह रुप ही नहीं, बल्कि उसमें ब्राह्मण और बौद्ध ग्रंथोंको भी जैनोंने लिखवाकर संगृहीत किया है । इनमें ऐसे भी कोई ग्रंथ हैं जिसकी प्रति अन्यत्र उपलब्ध नहीं है, और ऐसे भी अजैन ग्रंथ हैं जिनकी सबसे प्राचीन प्रति जैनभंडारोंमें ही मिलती है । इस दृष्टिसे इन भंडारोंमें भारतीय वाङ्मयके प्राचीनतम ग्रंथ सुरक्षित है, उसमें कोई सन्देह नहीं, फिरभी इनमें जैनधर्मके ग्रंथोंकी विपुलता हो यह स्वाभाविक है । १) जिनभद्रसूरि जैन ग्रंथभंडार इस भंडारकी स्थापना खरतरगकीय युगप्रधान आचार्य श्री जिनभद्रसूरिजीने विक्रम के ५५ वे शतकके उतरार्धमें की थी । व्यवहारमें यह भंडार 'बडो भंडार' के नामसे प्रसिद्ध है। आचार्यश्री के उपदेशसे खंभातनिवासी परीक्षक-परीख धरणाशाहने बहुत ग्रंथोंको ताडपत्रों पर लिखवाये थे जिसमें से ४८ ग्रंथ आज भी इस भंडारमें विद्यमान है । उनके उपरांत खंभातनिवासी श्रेष्ठी श्री उदयराज और श्रेष्ठी श्री बलिराज नामक बंधुयुगलने भी इन आचार्यश्री के उपदेशसे अनेक ग्रंथोंको ताडपत्र पर लिखवाये होंगे । इन दो बंधुओंके लिखवाये हुए छः (६) ग्रंथ इस भंडारमें विद्यमान है । श्री हेमचंद्राचार्य ज्ञानमंदिर (पाटण) में स्थित श्री वासीपार्श्वनाथग्रंथभंडारकी स्थापना भी इन्हीं आचार्यश्रीकी प्रेरणासे हुई थी । इस भंडारमें विक्रमके १५वे शतक के अंतमें श्री जिनभद्रसरिके उपदेशसे कागज पर लिखे जैन आगमादि साहित्यके अतिरिक्त काव्य, कोश, अलंकार, छंद और दर्शनशास्त्रके भी महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं । इससे इन आचार्यश्रीकी विविध विद्याशाखाओंके प्रति रुधि, आदर और प्रेरणा विशेष उल्लेखनीय है | वाडीपार्श्वनाथग्रंथभंडारमें कई ग्रंथ ऐसे हैं जो जैसलमेरके ग्रंथभंडारकी ताडपत्रीय प्रतिकी नकल स्वरुप है । आचार्यश्री जिनभद्रसूरिजीके उपदेशसे जैसलमेर, जावाल, देवगिरि, अहिपुर (आहोर), पाटण (गुजरात), मंडपदुर्ग, आशापल्ली और खंभातके ग्रंथभंडारोंकी स्थापना हुई थी। प्रस्तुत श्री जिनभद्रसूरिग्रंथभंडारमें परीख धरणाशाह और श्रेष्ठीश्री उदयराज-बलिराज ने नही लिखवायी वैसी प्रतियाँ विक्रमके १२ वें शतक के पूर्वार्द्ध से लेकर १५ वे शतकके उत्तरार्द्ध तक अलग अलग महानुभावोंने लिखवायी है । सबसे प्राचीनतम प्रति विशेषावश्यक महाभाष्यकी है, जो विक्रमके दसवे शतकके पूर्वार्द्धमें लिखवायी है, (देखो जि.ता.क्रमांक ११६) । प्राचीनता और लिपिकी दृष्टिसे यह प्रति असाधारण महत्त्वकी है। इस भंडारमें लंबी और छोटे नापकी कुल मिलाके ४०३ ताडपत्रीय प्रतियाँ है, जबकी उनमें अंतर्गत छोटे बडे ग्रंथ मिलाकर कुलं ग्रंथसंख्या लगभग ७५० से भी ज्यादा होती है ।। इसमें यहाँ बताये हुए विशेषावश्यकमहाभाष्य, सर्वसिद्धांतप्रवेश, तत्त्वसंग्रह, सांख्यकारिकाकी दो टीकायें, मल्लवादिका धर्मोत्तरटिष्पन, पादलिप्तसूरिकृत ज्योतिषकरण्डक की टीका, ओघनियुक्तिभाष्य, गुणपालकृत जंबूचरिय और चंद्रलेखाविजयप्रकरण आदि अनेक अलभ्य-दुर्लभ्य ग्रंथ इस भंडारमें है। उसके अतिरिक्त जैन आगम उसकी व्याख्यायें, व्याकरण, काथ्य कोश, अलंकार, छंद और दर्शनशास्त्रके प्राचीन-प्राचीनतम महत्त्वपूर्ण ग्रंथ इसमें हैं, जो अभ्यासी. अन्वेषक इस सूचीपत्रमें से जान सकेंगे। २) वेगडगच्छीय ग्रंथभंडार खरतरगच्छकी बेगडशाखाके विद्वानोंने इस भंडारकी स्थापना की थी । इसमें विक्रमके १३ वें शतकसे २० में शतक तक लिखे हुए ग्रंथ हैं । २० वे शतकमें लिखे हुए ग्रंथोंको आचार्य श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजीने लिखवाकर रखे हैं । इसमें विक्रमके १५ ये शतकमें पाटण (गुजरात) में लिखवाये हुए ग्रंथोंकी पुचिकाएं देखते यह पता लगता है की, उस कालके वेगङगच्छीय आचार्योने जैसलमेरके भंडारके लिए पाटण के प्राचीन ग्रंथोंकी नकलें करवाई हो । श्री जिनभद्रसूरिजीके पाटणमें स्थापित भंडार के लिए लिखवाई हुई प्रतियाँ भी इस भंडारमें है । (पृ.४७ से ११६) इस भंडारके क्रमांक १ से १३३० तक के सभी कागजपर लिखवाये हुए ग्रंथ इसी भंडारके है । जि.का, ग्रंथांक १३२७ ज्योतिषके अपूर्ण और प्रकीर्णक पन्नोंके संग्रह स्वरूप है और जि.का.ग्रंथांक १३२८ से १३३० तककी तीनों प्रतियोंमें स्तवन-सज्झाय आदि के प्रकीर्णक पन्ने हैं । सूचीपत्रमें इस भंडारका नाम 'श्री जैसलमेरस्थित खरतरगच्छीय युगप्रधान श्री जिनभद्रसूरि ग्रंथभंडार स्थित कागजपर लिखे ग्रंथोंका सूचीपन्न' ऐसा शीर्षकमें दिया हुआ है, लेकिन वास्तवमें यह कागज पर लिखा हुआ ग्रंथभंडार वेगडगच्छीय गंधमंडार है । पूज्यपाद आगमप्रभाकरश्रीजीसे भी पहले जिस कीसीने इस भंडारको देखा उन्होंने उसे किलेके तलघरमें ही देखा है, अर्थात् अनेक वर्षासे यह भंडार किलेमें ही रखा गया है । इसीलिये जैसे यहां बताया गया वैसे भंडारका शीर्षक दीया गया है । ३) खरतरगच्छीय बडाउपाश्रयका या पंचका मंडार प्रस्तुत सूचिपत्रमें ताडपत्रीय क्रमांक ४०४ से ४२६ तक के इस भंडारके ग्रंथोंको पंचका ग्रंथभंडार-जैसलमेर' यह नामसे सूचित किया है । वास्तवमें यह ग्रंथ वडे उपाश्रयके भंडारके ही है । इन ग्रंथों में स्थविर श्री अगस्त्यसिंहगणिकृत दशवकालिकसूत्रकी चूर्णिकी अति महत्वपूर्ण प्राचीन प्रति है, जिनभद्रसूरि ताडपत्रीय ग्रंथांक ४१०/१. जो अन्यत्र कीसी भंडारमें नहीं है । १. देखो पुरातत्त्वाचार्य 'मुनि श्री जिनविजयजी संपादित विज्ञप्तित्रिवेणी की प्रस्तावना पृ.५० से ५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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