Book Title: Jainendra Mahavrutti
Author(s): Abhaynanda Acharya, Shambhunath Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 9
________________ दो शब्द मुग्धबोध व्याकरण के रचयिता बोपदेवके नामसे एक श्लोक प्रसिद्ध है; यथा “इन्मश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशी शाकटायनः । पाणिन्यमरजैनेन्दा जयन्त्यष्टौ च शारिदकाः ॥" इसमें मुख्य आठ व्याकरणों के साथ जैनेन्द्र व्याकरणका भी उल्लेख है। इस समय यद्यपि इस व्याकरणका पूर्ण रूपसे अध्ययनाध्यापन आदिमें उपयोग नहीं दिखाई देता तथापि ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से इसका अपना विशेष महत्व है। इतना होने पर भी जैनेन्द्रव्याकरणका कोई प्रामाणिक संस्करण अद्यावधि उपलब्ध न हो सका । लाजरस कम्पनी बनारसकी ओरसे इसका प्रकाशन हुआ भी तो भी वह अध्याय ३ पाद २ सूत्र ६० तकका ही हो सका। और इसलिए इस प्रन्यके सर्वाङ्गपूर्ण सुन्दर प्रकाशनको आवश्यकता बनी रही। लगभग ८-१० वर्ष भारतीय ज्ञानपीठके अधिकारियोंका ध्यान इस कमौकी ओर आकृष्ट हुआ। फलस्वरूप इसके सम्पादनका गुरुतर कार्य इसके अधिकारी विद्वान् श्री पं० शम्भुनाथ जी त्रिपाठी व्याकरणाचार्य समतीर्थको सौंपा गया । श्री त्रिपाठीजीने इसका पूरा प्रामाणिक सम्पादन करने का प्रयत्न तो किया किन्तु प्रेसमें देनेके पूर्व ही वे यहाँसे चले गये और उन्होंने यहाँ आनेका विचार ही त्याग दिया । तब भी ज्ञानपीठके मुयोग्य मन्त्री श्री अयोध्याप्रसाद जी गोयलीयने अपने प्रयत्नमें कमी न आने दी। उन्होंने श्चित किया कि यदि त्रिपाठी बी यहाँ नहीं आ सकते हैं तो श्राप इमे उनके पास ले जाकर सम्पादन सम्बन्धी सारी बातें समझ लीजिए और इसे पूर्ण निर्दोष बनाकर प्रकाशनके लिए दे दीजिए । तदनुसार मैं त्रिपाठी जीके मूल निवास स्थान दोस्तपुर [फोजाबाद] भी गया किन्तु उनसे साक्षात् भेंट न हो सकने के कारण मन्त्री जीकी सम्मतिसे मुझे ही इस कार्यमें लग जाना पड़ा। अभी तक सम्पादित शेकर मेरे नामसे कोई ग्रन्थ प्रकाशित तो नहीं हुआ है किर भी ज्ञानपीठम रहते हुए मैंने जो सम्पादन भन्यो शान प्रति किया है उसपर विश्वास करके मैंने माननीय मन्त्रीची, श्री पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री एवं डा. वासुदेवशरण अग्रवालके उत्साहपूर्ण श्रादेशसे यह कार्य अपने हाथमें ले लिया | 'अनन्तपारं किल शब्दशास्त्रम्' इस वचनके अनुसार यह शब्दशास्त्र अनन्त और अगाध है-इसका पार पाना कठिन है। फिर भी त्रिपाठी जी द्वारा किये गये सम्पादनरूप सेतुके रहनेसे उसपरसे चलने में मुझे विशेष कठिनाईका अनुभव नहीं करना पड़ा। इन सब प्रवल के फलस्वरूप जो भी कार्य हुआ है वह सामने है। __सम्पादनकी विशेषताएँ यह तो पहले ही निर्देश कर आये हैं कि इसका सर्वप्रथम सम्पादन श्रीमान् त्रिपाठी जीने किया था। उन्होंने भाण्डारकर इन्स्टीट्यूट पूना और स्यादवाद विद्यालय काशीकी हस्तलिखित प्रतियो तथा लाजरस कम्पनी बनारसकी मुद्रित प्रतिके श्राधारसे प्रस्तुत संस्करणका सम्पादन किया है। प्रतियोका परिचय ग्रन्थमें अन्यन्त्र दिया है। यद्यपि उपर्युक्त सभी प्रत्तियों में वृत्तिमें आये हुए सूर्तीको अध्याय व पादके अनुसार संख्याका उल्लेख नहीं किया है तथापि आवश्यक समझकर [ ] कोष्ठकमें उन्होंने उसका निर्देश कर दिया था जिसमें हमें बहुत कुछ अंशोधन भी करना पड़ा है। प्रायः सत्र प्रतियोंमें कुछ पाठ त्रुटित व अशुद्ध हो गये हैं। इस सम्बन्धमै वहाँ अशुद्ध पाठको वैसा ही रखकर उसके सामने अन्य ग्रन्यों के आधारसे शुद्ध पाठ देनेका प्रवास किया गया है; यथा--'अनियता [नियतवृत्तयः उरसेधजीविनः', 'रशोर [दृश्यमानेन] सम्भाध्यमानेन' [पृष्ठ ३०३] आदि । वृत्ति प्रायः वार्तिको और परिभाषाओं का उल्लेख किया गया है। उनके परिज्ञानके लिए बार्तिकों के अन्तर्ने [०] तथा परिभाषाओंके अन्तमै [प०] या परि० पेसा संकेतात्मक निर्देश कर दिया है । यद् तो मानी हुई बात है कि श्रीमान् विपाठीजीने इसके सम्पादन में बहुत भम किया है तथापि हमें जो अन्य विशेषताएँ लानी पड़ी हैं उनका विवरण इस प्रकार है १. किसी भी उपलब्ध प्रतिमें अध्याय व पादके साथ सूत्रसंख्या नहीं दी गई थी, किन्तु आवश्यक समझकर हमने अध्याय तया पादको संख्याका प्रत्येक सूत्र के साथ उल्लेख कर दिया है।

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