Book Title: Jainendra Mahavrutti
Author(s): Abhaynanda Acharya, Shambhunath Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 11
________________ दो शब्द सात विभक्तियोंका विचार साधारणतया पाणिनीय अष्टाध्यायीसूत्रपाठ में ७ विभक्तियों के लिए प्रथमा, द्वितीया, तृतीया आदि शब्दोंका ही निर्देश किया है । पृथक किन्हीं संज्ञाओंका निर्देश नहीं किया है, किन्तु जैनेन्द्रकारने 'विभक्ती' दाब्दके प्रत्येक अक्षरको अलग करके स्वरके आगे 'पू' और व्यञ्जनके आगे 'श्री' जोड़कर सात विपक्तियोंकी संज्ञा निर्दिष्ट की हैः यथा - 'बा' [ प्रथमा ] हूप् [द्वितीया ], मा [तृतीया ] [] का [पचमी ता [ष्ठी] और ई [ससमी]। इस प्रकार 'विभक्ती' शब्द के आधारसे ही इन संज्ञार्थो का उल्लेख भन्यत्र कह देखने में नहीं आता ! १.५ जैनेन्द्र व्याकरण सम्बन्धी अनेक विशेषताएँ १. पानी में वैदिक एवं स्वरप्रक्रिया इन दो प्रकरणों के सूत्रों का स्वतन्त्र रूपमें उल्लेख है किन्तु जनेन्द्रकारने इन दोनों प्रकारणों के सूत्रों का उल्लेख नहीं किया है। क्योंकि वैदिक शब्दों व प्रयोगों की सिद्धि और स्वरविधानका प्रश्न जैनेन्द्रकार के समक्ष उपस्थित नहीं था । २. पाणिनीय व्याकरण में एकशेष प्रकरणके सूत्रोंका स्वतन्त्र रूप से उल्लेख है । किन्तु जैनेन्द्रकार इस प्रकरण के सूत्रों की आवश्यकताका अनुभव नहीं करते हुए मालूम देते हैं। उन्होंने इस प्रकरणको ध्यान में रखकर 'स्वाभाविकत्वादभिधानस्यैकशेषानारम्भ:' इस सूत्र की रचना की है। इससे विदित होता है कि उनका मत रहा है कि लोक व्यवहार में जो चीज याचाल वृद्ध प्रचलित है उसे सूत्रबद्ध निर्देश करके शास्त्र के कलेवर को बढ़ाना उचित नहीं है। और इसी लिए उन्होंने एकशेप प्रकरणको नहीं रखा है । ३. पाणिनीय व्याकरण से सम्वद्ध स्वतन्त्र रूपसे चार प्रकरण मिलते हैं-लिङ्गानुशासन, पाणिनीय शिक्षा धातुपाठ और गणपाठ । ग्रह कह सकना तो कठिन है कि इन सबका निर्माण स्वयं पाणिनिने किया होगा | उदाहरणार्थं — पाणिनीय शिक्षाको ही लीजिए। इसके प्रारम्भके प्रथम श्लोक में कहा है--' अथ शिक्षा प्रवच्यामि पाणिनीयं मतं यथा ।' अर्थात् पाणिनिके मतानुसार शिक्षाका निरूपण करते हैं । तथा इसी प्रकरण के अन्तमें एकाधिक बार पारिमुनिके लिए नमस्कार भी किया गया है। इसलिए बहुत सम्भव है कि इस प्रकरणका संकलन पाणिनीय व्याकरणको आधार मानकर किसी अन्य समर्थ विद्वान् ने किया हो । स्वामी दयानन्द सरस्वतीने विक्रम संवत् १६३६ में 'वर्णोच्चारण शिक्षा के नामसे भापानुवाद सहित एक पुस्तिका प्रकाशित की थी, उसमें उन्होंने किसी प्राचीन प्रतिके आधारसे पाणिनीय शिक्षा सूत्रोंका संकलन किया था 1 बहुत सम्भव है कि ये शिक्षासूत्र ही वर्तमान श्लोकबद्ध पाणिनीय शिक्षा के आधार रहे हों। ४, पाणिनीन लिङ्गानुशासनका समावेश अष्टाध्यायी में नहीं किया गया है । उपलब्ध पाणिनीय लिङ्गानुशासन में कुल १८१ सूत्र हैं। उनमें कुछ ऐसे भी सूत्र हैं जो अष्टाध्यायी में भी उपलब्ध होते हैं; परन्तु अधिकतर सूत्र श्रष्टाध्यायींसे सम्बन्ध नहीं रखते। इन सूत्रोंका निर्माण किसने किया यह प्रश्न विचारणीय है । बहुत सम्भव है कि पाणिनि व्याकरण में शब्दसिद्धि के आधार पर अन्य किसी विद्वान्ने लिङ्गानुशासनको सूत्रबद्ध कर दिया हो । जैनेन्द्र ब्याकरणमै लिङ्गानुशासन तथा जैनेन्द्र शिक्षा नामके तो प्रकरण अभी तक उपलब्ध नहीं हुए । ५. 'भूवादयो धातव:' [ १/३/१ ] 'अदिप्रभृतिभ्यः शपः [ २२४।७२ ] इत्यादि सूत्रों द्वारा गणशः प्रत्यय-विधान तथा 'हृदितो नुम् धातो:' [ ७|११५८ ], प्रयन्तक्षणश्व जागृणिश्व्येदिताम्' [ ७/२५ ], 'रुद्रश्च पञ्चभ्य:' [ ७|३|१८ ] आदि सूत्रों द्वारा अनुबन्ध तथा गणपाठका आश्रय लेकर धातुओंसे कार्य विधान किया गया है । इसी प्रकार गणपाटका आश्रय लेकर भी प्रकृति-प्रत्ययका विधान किया हुआ है । इससे यह सुनिश्चित है कि पाणिनिके समक्ष उनके स्वनिर्मित गणपाठ और धातुपाठ अवश्य ही विद्यमान थे । यही स्थिति जैनेन्द्र धातुपाठ तथा गणपाठके विषय में भी है। वहाँ भी 'भूवादयो धुः ' [ ११२१ ] 'उज्जुहोत्यादिभ्यः ' [ १|४|१४५ ] 'हदिद्धोर्नुम' [ ५/१/३७ ] श्रादि सूत्रों द्वारा धातुओं से संज्ञा, प्रत्यय और आगम एवं आदेश श्रादिका विधान किया गया है। तथा गणपाठके निमित्त से भी शास्त्र प्रवृत्ति देखी जाती है।

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