Book Title: Jainendra Mahavrutti
Author(s): Abhaynanda Acharya, Shambhunath Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 12
________________ रक्ष जैनेन्द्र-व्याकरणम् अतः सुनिश्चत है कि जैनेन्द्र के समक्ष भी अपने स्वरचित धातुपाठ तथा गणपाठ अवश्य रहे होंगे किन्तु कालक्रम वे आज अनुपलब्ध हो गये हैं। ६. पाणिनि व्याकरण, उपादि-सिद्ध कार्यों के लिए "उणावयो बहुखम्" [ ३१३।१] सूत्र आता है। जैनेन्द्र ध्याकरणमें भी इसी रूपमै इस सूत्रका उल्लेख है [२१२।१६ । इन दोनों मूल व्याकरणों में इस प्रकरण में आये हुए प्रयोगों की सिद्धि के विषयमें इससे अधिक कुछ नहीं कहा गया है। मात्र जैनेन्द्र महावृत्तिमें इस सूत्रकी व्याख्या करते समय कुछ सूत्रों के उल्लेखके साथ उनके द्वारा सिद्ध होनेवाले प्रयोगोंके कतिपय प्रकार दिखलाये गये हैं । यह निश्चित कहना कठिन है कि जैनेन्द्र महावृत्तिमें ये उणादि सूत्र कहाँ से आये। यदि इन्हें जैनेन्द्रकारका माना जाय तो शंका होती है कि पञ्चाध्यायी में इनका संकलन क्यों नहीं हुआ ? यद्यपि महावृत्ति में उल्लिखित उणादि सूत्रों में कहीं-कहीं जैनेन्द्रव्याकरणकी संज्ञाओंका प्रयोग किया हुआ दिखाई देता है यथा 'भस् सर्वधुभ्यः' [ पृष्ठ १७ ]; पर जबतक कोई निश्चित आधार नहीं मिलता तश्तफ इन सूत्रों को स्वयं जैनेन्द्रकारका मान लेनेको मन नहीं होता। उणादि प्रकरणका संकलन करते हुए भट्टोजिदीक्षितने सिद्धान्तकौमुदी में ७५५ सूत्र प्रमाण पञ्चपादी उणादि सूत्रोंकी सोदाहरण व्याख्या दी है। किन्तु पाणिनिकी अष्टाध्यायीमें ये सूत्र उपलब्ध नहीं होते। उणादिका निर्देश करनेवाला 'उणादयो बहुलम् [३।३.१] सूत्र अष्टाध्यायीमें उपलब्ध होता है किन्तु उसका संकलन भट्टोजिदीजितने नणादि किया : हे सगर कटन में किया है। विद्वानों का मत है कि ये उणा दिसूत्र शाकटायन प्रणीत हैं जिनके समयका उल्लेख करते हुए. श्रीयुधिष्ठिर मीमांसक ने लिखा है कि 'इस्का काल विक्रमसे लगभग ३१०० वर्ष पूर्व होगा। [ संस्कृत व्याकरणशास्त्रका इतिहास पृष्ठ ११६ ] पातञ्जल महाभाष्यमें एक वाक्य मिलता है; यथा--'नाम व धानुजममह निरुक्त व्याकरणे शकरस्य च तोकः। इसका आशय यह है कि 'निरुक्तमें सभी संज्ञाशब्दोको धातुम कहा है और व्याकरण शास्त्रमें शकटके पुत्र [शाकटायन] भी ऐसा ही कहते हैं। इससे मालूम पड़ता है कि शाटकाधन विरचित कोई ऐसा प्रकरण अवश्य रक्ष होगा जिसमें धातुश्रों के निमित्तसे प्रत्यय विधान करके संज्ञाशब्दोंकी सिद्धि की गई हो । वह प्रकरण उणादिके सिवा और क्या ले सकता है ? उणादिके दश पादौ तथा त्रिपादी पाठ भी उपलब्ध होते हैं। विशेष विवरण के लिए इसो ग्रन्थमें प्रकाशित श्री युधिष्टिर मीमांसकका 'जैनेन्द्र शब्दानुशान और उसके खिलपाठ' शीपक निबन्ध देखिए। श्री डा. वासुदेवशरणजी अग्रवालने ज्ञानपीठके अनुरोधसे इसकी अनुसन्धानपूर्ण भूमिका लिखकर इसके महत्त्वको बढ़ाने की कृपा की तथा इनके ही अनुरोधसे ऐतिहासिक सामग्रीको पूर्णताके लिए श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने 'जैन साहित्य और इतिहास' में मुद्रित 'देवनन्दि तथा उनका जैनेन्द्र व्याकरण' शीर्षक गवेषणापूर्ण निबन्ध छापनेकी अनुमति-पूर्वक उसके दूसरे संस्करणके फार्म भिजवानेकी कृपा की जिससे अन्धकारके विषय में ऐतिहासिक अन्वेषणके कठिन कार्यसे मुझे छुट्टी मिल गई। श्री युधिष्ठिर मीमांसकने भी 'जैनेन्द्रशब्दानुशासन तथा उसके खिलपाठ शीर्षक अनुसन्धानपूर्ण निबन्ध लिखकर हमारी बहुत बड़ी सहायता की है। इतना ही नहीं, उन्होंने, प्रस्तुत संस्करणमैं जो थोड़ी बहुत त्रुटियाँ रह गई है, उनका उल्लेख करके अात्मीयतापूर्वक सौहार्द भी प्रदर्शित किया है। अतः उक्त तीनों विद्वानों का विशेष श्राभारी हूँ। श्री पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्रीने भी समय समय पर उपयोगी सुझाव देकर इस प्रन्यको शुद्ध, सर्वाङ्गपूर्ण तथा सर्वोपयोगी बनाने में सहायता दी तया मेरे उत्साहको बढ़ाया इसलिए मैं उनका भी विशेष आभारी हूँ। कार्य बहुत बड़ा था और सम्पादनका मेरा यह पहला अवसर है, इसलिए सम्भव है कि इसमें अभी भी कुछ दोष रह गये हों। मेरा विश्वास है कि विद्वान् पाठक इसके लिए क्षमा करेंगे। वाराणसी दीपावली वि० सं० २०१३ । —महादेव चतुर्वेदी

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