________________
३५
. देवनन्दिका जैनेन्द्र व्याकरण मुखमखहुतप्रधानपुरुषपशूपहारः विघसविहस्तीकृतकृसान्ताभिमुखः शब्दावसारकारः देवभारतीनिबद्धवृहत्कथः किरातार्जुनीयपञ्चदशसर्गटीकाकारः दुनिनीतनामा..... -सूर एण्ड कुर्ग गजेटियर, प्रथम पृ. ३७३
परिशिष्ट ३
[भगववाग्वादिनीका विशेष परिचय] इसके प्रारंभमें पहले 'लघमीरात्यन्तिकी यस्य' श्रादि प्रसिद्ध मंगलाचरणका श्लोक लिखा गया था | परन्तु पीछेसे उसपर हरताल फेर दी गई है और उसकी जगह यह श्लोक और उत्थानिका लिख दी गई है--
ओं नमः पाश्र्वाय त्वरितमहिमदूतामंत्रितेनाद्भुतात्मा, विषममपि मघोना पृछता शब्दशास्त्रम् ।
श्रतमदरिपुरासीद् वादिवृन्दापणीनां परमपदपटुर्यः स श्रिये वीरदेवः ।। अष्टवार्षिकोऽपि सधाविधभक्ताभ्यर्थनामांसः स भगवानिई प्राह-सिद्धिरनेकान्तात् । १-१-१।
इसके बाद सूत्रपाठ शुरू हो गया है। पहले पत्रके ऊपर मार्जिन में एक टिप्पणी इस प्रकार दी है जिसमें पाणिनि आदि व्याकरणों को अप्रामाणिक ठहराया है
"प्रमाणबदव्यामुपेक्षणीयानि पाणिन्यादिप्रणीतसूयाणि स्यात्कारचादिप्रदरत्या परिवाजकादिभाषितबन् अप्रमाणानि च कपोलकल्पनामलिनानि हीनमातृकत्वात्तदेव ।"
इसके बाद प्रत्येक पादके अन्तमें और अादिमें इस प्रकार लिखा है जिससे इस सूत्र पाठके भगवत्प्रणीत होने में कोई सन्देह बाकी न रह जाय
"इति भगघद्वाग्वादिन्यां प्रथमाध्यायस्य वितीयः पादः । श्रीनमः पार्याय । स भगवानिदं प्राह।"
सर्वत्र 'नमः पार्थाय लिखना भी हेतुपूर्वक है | अब ग्रन्थकर्ता स्वयं महावीर भगवान् हैं तब उनके ग्रन्थमैं उनसे पहले के तीर्थंकर पार्श्वनाथको ही नमत्कार किया जा सकता है। देखिए, कितनी दूरतक विचार किया गया है!
श्रा अध्याय २ पाद २ के 'सह वह चल्यपतेरिः' [३४] सूपर निम्न प्रकार टिप्पणी दी है और सिद्ध किया है कि यदि यह व्याकरण भगवत्कृत न हो तो फिर सिद्ध हैमके अमुक सूत्रको उपपत्ति नहीं बैठ सकती
"इई शब्दानुशासनं भमवकर्तृकमेव भवति । 'सह वह चल्यपतेरिधामकृसृजनमेः कीलिट चवत्-को सासहिचावाहचाचलिपापति, सस्त्रिचाविधिधशिनेमीति सिद्ध हमसूत्रस्थाऽन्यथानुपपत्तेः। शर्ववर्मपाणिन्योस्तु आहवपधालीपिन किट्ठेच, श्रागमहनजनः किकिनी लिट् घेति २।" इसके याद ३-२-२२ सूत्रपर इस प्रकार टिप्पणी दी है
"कथं न मचः प्राग्भरतेष्वादि क्षेत्रादिनियापि शिक्षाविशेषाः । कुमारशब्दः प्राच्यानामाश्विन मासमूचिवान् । मैथुनं तु भिवक्तंने बाचक मधुसर्पिषः।।।
इस्यायन्यथानुपपत्तेरिति बौटिकतिमिरोपलक्षणम् ।” इसके बाद ३-४-४२ सूत्र [ स्तेयाहत्यम् ] पर फिर एक टिप्पणी दी है
"इदं शब्दानुशानं भगवत्कर्तृकमेव भवति । अर्हतस्तोन्त च १, सहावा २, सविशिम्भूनाग्रः ३, स्तेनानलुक चे ४, ति सिद्ध हैमसूत्रान्यथानुपपत्तेः । पाणिन्यादी स्वाहत्यशब्दं प्रति सूत्राभावात् । कथ सरस्वतीकंठाभरणे तदासिः । ऐन्दानुसारादर्हतशब्धयश्चेति पश्य ।
फिर ३-४-४० सूत्र [रानेः प्रभाषन्द्रस्य] पर एक टिप्पणी है। इसमें औटिको या दिगम्बरि मौका सत्कार किया गया है