Book Title: Jainagama Digdarshan
Author(s): Nagrajmuni, Mahendramuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 8
________________ प्रास्ताविक "जैनागम दिग्दर्शन" पुस्तक मैंने पढ़ी। जैनागम के विषय में परिचय देने वाले कई ग्रन्थ हैं किन्तु संक्षेप में आगमों के विषय में जानना हो तो यह ग्रन्थ उपयोगी सिद्ध होगा। लेखक डा. मुनि श्री नगराजजी ने इसमें श्वेताम्बर सम्प्रदाय मान्य 45 आगमों का परिचय उनकी टीकाओं के उल्लेख के साथ करा दिया है। प्रागम के विषय में सामान्य जिज्ञासा की पूर्ति यह ग्रन्थ अच्छी तरह से कर देगा, ऐसा मेरा विश्वास है । अतएव लेखक को धन्यवाद देना और वाचकों की ओर से आभार मानना मेरा कर्तव्य हो जाता है । लेखक ने जैनागमों की उत्पत्ति और संकलन की चर्चा सर्वप्रथम की है और तदनन्तर कौन शास्त्र सम्यक् और कौन मिथ्या इस ओर जो अनेकान्त - दृष्टि से वाचक का ध्यान आकर्षित किया है, वह ध्यान देने योग्य बात है। नन्दीसूत्र में यह विचारणा हुई है किन्तु इस ओर हमारा ध्यान विशेष जाता नहीं । अतएव इस विषय की चर्चा जो लेखक ने प्रारम्भ में की है उसके लिये पाठक उनका ऋणी रहेगा। प्रायः प्रागम का परिचय देने वाले इस बात को सम्यक् प्रकार से कहते नहीं। अतएव लेखक ने इस ओर पाठक का ध्यान दिलाया है वह उनकी उदार दृष्टि का परिणाम है। जैनागमों की रचना किसने और कब की ? यह एक समस्या है। और जब तक एक-एक पागम का विशिष्ट अध्ययन नहीं होगा तब तक यह समस्या बनी रहेगी। विदेशी विद्वानों ने इस समस्या का समाधान ढूढने का प्रयत्न किया है और उसमें सफल भी हुए हैं। उनके विचार में प्राचारांग (प्रथम श्रुतस्कन्ध), सूत्रकृतांग (प्रथम श्रुतस्कन्ध), उत्तराध्ययन और दशवैकालिक (शय्यंभवकृत) ये चार पागम सभी आगमों में प्राचीन हैं। सचमुच देखा जाय तो जैनों के ये चार वेद हैं । आगमों को वेद की संज्ञा भी दी गई है, वह इसलिए कि पार्यों में वेदों का सर्वाधिक महत्व था। अतएव ज्ञान-विज्ञान की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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