Book Title: Jainagama Digdarshan
Author(s): Nagrajmuni, Mahendramuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ जब सम्प्रदाय का रूप ले लेता है तब सब विषयों की व्यवस्था अपनीअपनी दृष्टि से करनी अनिवार्य हो जाती है, इसी बात का संकेत है। आगमों में उपांग आदि अन्य जो ग्रन्थ हैं उन्हें तो परम्परा में भी स्थविर-कृत ही माना जाता है। अतएव ये सभी सर्वज्ञ प्रणीत हैं यह मानना जरूरी नहीं है। ऐसा मानने से ही प्रागमों में जहां भी परस्पर विरोध दिखाई देता है उनका भी समाधान आसान हो जाता है। एककर्तृक में विसंवाद प्रायः नहीं होता, किन्तु अनेक कर्तृक अनेक-कालिक ग्रन्थों में विसम्वाद सम्भव हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । अतएव आगमों का अभ्यास करके यह निर्णय करना जरूरी है कि कौनसी मौलिक बात भगवान् ने कही है और कौनसी बात बाद में प्राचार्यों ने जोडी है। प्रस्तुत ग्रन्थ में आगमों का परिचय-मात्र है और वह सामान्य जिज्ञासु के लिए ठीक ही है। किन्तु डा० मनि श्री नगराजजी से हमारी अपेक्षा तो यह है कि वे अपना सामर्थ्य इस ओर लगाकर यह बतावें कि पागम में कौन-कौन से ग्रन्थ का क्या-क्या काल हो सकता है और विचारों तथा मन्तव्यों का नवीनीकरण आगमों में किस प्रकार हुआ है ? अगली पुस्तक ऐसे विशिष्ट अध्ययन के साथ वे हमें दें ऐसी विनंती करना मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूं। जब प्रागमपरिचय देना उन्होंने प्रारम्भ ही किया है तब उनके सामर्थ्य को देखकर हमारी ऐसी अपेक्षा हो, यह स्वाभाविक है। यह कार्य उनके लिए असम्भव नहीं है जबकि वे प्रागम और त्रिपिटक के निष्णातक रूप में हमारे आदर के पात्र हैं। पुस्तक की छपाई अच्छी है किन्तु प्राकृत उद्धरण कुछ अशुद्ध छपे हैं उन्हें दूसरे संस्करण में शुद्ध करके छापा जाना जरूरी है । इस ग्रन्थ में कुछ स्थल चिन्त्य हैं, जैसे-पु. 33 में नन्दीसूत्र को देवधि की रचना कहा है, किन्तु पृ. 151 में उसे देव वाचक की रचना मानी है। पृ० 49, सूत्रकृतांग का अन्य नाम सूत्राकृत न होकर सूचाकृत है। पृ० 19, पं० 14 में 'उपयोग' शब्द के स्थान पर वचोगतवाङ्मय होना चाहिए। प्रारम्भ में अंगों का जो परिचय दिया है वह अति (vii ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 ... 212