Book Title: Jainagam Paryavaran Samrakshan
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 2
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि संग्रह, परिग्रह, शोषण करता है, स्वास्थ्य के लिये हानि लगे, हानि पहुँचे वह प्राणातिपात है। वह प्राणातिपात कारक वस्तुओं का उत्पादन करता है, असली वस्तुओं में प्राणी का ही अर्थात् चेतना का ही होता है निष्प्राण हानिप्रद नकली वस्तुएँ मिलाता है कई प्रकार के प्रदूषणों . अचेतन का नहीं। क्योंकि अचेतन (जड़) जगत् पर को जन्म देता है। वर्तमान में विश्व में जितने भी प्रदूषण प्राकृतिक प्रदूषण या अन्य किसी भी प्रकार का प्रदूषण दिखाई देते हैं इन सबके मूल में भोग लिप्सा व लोभ वृत्ति का कोई भला-बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है न ही उसे सुखही मुख्य है। दुख होता है। अतः प्रदूषण का संबंध प्राणी से ही है। जब तक जीवन में भोग-वृत्ति की प्रधानता रहेगी इस प्रकार के प्रदूषण से प्राणी के ही प्राणों का अतिपात तब तक भोग सामग्री प्राप्त करने के लिये लोभ वृत्ति भी होता है। प्राणातिपात को वर्तमान में प्रदूषण कहा जाता रहेगी। कहा भी है कि लोभ पाप का बाप है अर्थात् जहाँ है अतः प्रत्येक प्रकार का प्रदूषण प्राणातिपात है, प्राणातिपात लोभ होता है वहाँ पाप की उत्पत्ति होगी ही। पाप प्रदूषण से बचना प्रदूषण से बचना है, प्रदूषण से बचना प्राणातिपात पैदा करेगा ही। अतः प्रदूषण के अभिशाप से बचना है तो से बचना है। पापों से बचना ही होगा, पापों को त्यागना ही होगा। पापों . जैन धर्म में समस्त पापों का, दोषों का प्रदूषणों का का त्याग ही जैन धर्म की समस्त साधनाओं का आधार व मूल प्राणातिपात को ही माना है। अब यह प्रश्न पैदा सार है। पापों से मुक्ति को ही जैन धर्म में मुक्ति कहा होता है कि प्राणी प्राणातिपात या प्रदूषण क्यों करता है? है। अतः जैन धर्म की समस्त साधनाएँ, प्रदूषणों (दोषों) उत्तर में कहना होगा कि प्राणी को शरीर मिला है इससे को दूर करने की साधना है। जैन धर्म में अनगार एवं उसे चलना, फिरना, बोलना, खाना, पीना, मल विर्सजन आगार ये दो प्रकार के धर्म कहे हैं। अनगार धर्म के आदि कार्य व क्रियाएँ करनी होती हैं परन्तु इन सब धारण करने वाले साधू होते हैं जो पापों के पूर्ण त्याग की क्रियाओं से प्रकृति का सहज रूप में उपयोग करे तो न तो साधना करते हैं। आगार धर्म के धारण करने वाले प्रकृति को हानि पहुँचती है और न प्राण शक्ति का ह्रास गृहस्थ होते हैं उनके लिये बारह व्रत धारण करने. तपस्या. होता है इससे प्राणी का जीवन तथा प्रकृति का संतलन कव्यसनों के त्याग का विधान किया गया है। यही बना रहता है। यही कारण है कि लाखों-करोड़ों वर्षों से आगार धर्म प्रदूषणों से बचने का उपाय है। इसी परिपेक्ष्य इस पृथ्वी पर पशु-पक्षी, मनुष्य आदि प्राणी रहते आए हैं में यहाँ बारह व्रतों का विवेचन किया ज रहा है: - परन्तु प्रकृति का संतुलन बराबर बना रहा। पर जब प्राणी के जीवन का लक्ष्य सहज प्राकृतिक/स्वाभाविक (१) स्थूल प्राणातिपात का त्याग जीवन से हटकर भोग भोगना हो जाता है तो वह भोग के प्राणातिपात उसे कहा जाता है जिससे किसी भी सुख के वशीभूत हो अपने हित-अहित को, कर्तव्यप्राणी के प्राणों का घात हो। प्राण दश कहे गये हैं। अकर्तव्य को भल जाता है। वह भोग के वशीभूत हो वह श्रोत्रेन्द्रिय बल प्राण २. चक्षु इन्द्रिय बल प्राण ३. घ्राणेन्द्रिय कार्य भी करने लगता है जिसमें उसका स्वयं का ही बल प्राण ४. रसनेन्द्रिय बल प्राण ५. स्पर्शनेन्द्रिय बल अहित हो। उदाहरणार्थ- किसी भी मनुष्य से कहा जाय प्राण ६. मन बल प्राण ७. वचन बल प्राण ८. कायबल कि तुम्हारी आँखों का मूल्य पाँच लाख रुपये देते हैं तुम प्राण ६. श्वासोश्वास बल प्राण और १०. आयुष्य बल अपनी दोनों आँखों को हमें बेच दो तो कोई भी आँखें प्राण। इन दस प्राणों में से किसी भी प्राण को आघात बेचने को तैयार नहीं होगा। अर्थात् वह अपनी आँखों को १६४ जैनागम : पर्यावरण संरक्षण | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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