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जैन संस्कृति का आलोक
जैनागम : पर्यावरण संरक्षण
0 श्री कन्हैयालाल लोढ़ा
जैन-आगमों में षट्काय के हनन का साधकों को त्रिकरण-त्रियोग से निषेध इसलिए किया गया है कि प्राकृतिक सन्तुलन बना रहे एवं पर्यावरण में विकृति न आये। व्रतों/अणुव्रतों की संरचना का भी यही उद्देश्य था। एक पूर्ण पर्यावरण की साधना है तो दूसरी आंशिक साधना। पर्यावरण प्रदूषण का संबंध प्रकृति से ही नहीं है अपितु आत्मिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, आर्थिक जगत् भी प्रदूषण की परिधि में आते हैं । इसी को विश्लेषित कर रहे हैं - श्री कन्हैयालालजी लोढ़ा।
- सम्पादक
पर्यावरण शब्द परि उपसर्ग पूर्वक आवरण से बना है। जिसका अर्थ है जो चारों ओर से आवृत्त किए हो, चारों ओर छाया हुआ हो, चारों ओर से घेरे हुए हो। पर्यावरण शब्द का अन्य समानार्थक शब्द है -- वातावरण। वातावरण का शाब्दिक अर्थ वायुमंडल होता है परन्तु वर्तमान में वातावरण शब्द व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है, जिसे कहा जाता है कि व्यक्ति जैसे वातावरण में रहता है उसके वैसे ही भले-बुरे संस्कार पड़ते हैं। इस रूप में पर्यावरण शब्द भारत के प्राचीन धर्मों में वातावरण अर्थात् मानव जीवन से संबंधित सभी क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है। पर्यावरण दो प्रकार का होता है - परिशुद्ध, अशुद्ध। जो पर्यावरण जीवन के लिये हितकर होता है वह परिशुद्ध पर्यावरण है और जो पर्यावरण जीवन के लिये अहितकर होता है वह अशुद्ध पर्यावरण है। इसी अशुद्ध पर्यावरण को प्रदूषण कहते हैं।
पाश्चात्य देशों में प्रदूषण का सूचक प्राकृतिक प्रदूषण है। परन्तु भारतीय धर्मों में विशेषतः जैन धर्म में पर्यावरण प्रदूषण केवल प्रकृति तक ही सीमित नहीं है प्रत्युत आत्मिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, आर्थिक आदि जीवन से संबंधित समस्त क्षेत्र इसकी परिधि में आते हैं। जीवन संबंधित ये सभी क्षेत्र परस्पर जुड़े हुए हैं। इनमें से किसी भी एक क्षेत्र में उत्पन्न हुए प्रदूषण का प्रभाव
अन्य सभी क्षेत्रों पर पड़ता है। जैन धर्म में प्रदूषण, दोष, पाप, विकार, विभाव, एकार्थक शब्द हैं। जैन धर्म सभी क्षेत्रों के प्रदूषणों का मूल कारण आत्मिक प्रदूषण को मानता है शेष सभी प्रदूषण इसी प्रदूषण के कटु फल, फूल, पत्ते व कांटे हैं। अतः जैनधर्म मूल प्रदूषण को दूर करने पर जोर देता है और इस प्रदूषण के मिटने पर ही अन्य प्रदूषण मिटाना संभव मानता है, जबकि अन्य संस्थाएँ, सरकारें, राजनेता प्राकृतिक प्रदूषण को मिटाने पर जोर देते हैं। परन्तु उनके इस प्रयल से प्रदूषण मिट नहीं पा रहा है। एक रूप से मिटने लगता है तो दूसरे रूप में फूट पड़ता है, केवल रूपान्तर मात्र होता है जबकि जैन वाङ्गमय में प्रतिपादित सूत्रों से सभी प्रदूषण समूल रूप से नष्ट होते हैं। इसी विषय का अति संक्षिप्त विवेचन किया जा रहा है।
ऊपर कह आए हैं कि समस्त प्रदूषणों का मूल कारण है - आत्मिक प्रदूषण अर्थात् आत्मिक विकार । आत्मिक विकार है – हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार आदि अगण्य पाप। इन सब पापों की जड़ है विषय-कषाय से मिलने वाले सुखों के भोग की आसक्ति । भोगों की पूर्ति के लिये भोग सामग्री व सुविधा चाहिये। भोगजन्य, सुख सामग्री व सुविधा प्राप्ति के लिये धन-सम्पत्ति चाहिये । धन प्राप्त करने के लिये लोभ से ही मानव हिंसा, झूठ, चोरी,
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संग्रह, परिग्रह, शोषण करता है, स्वास्थ्य के लिये हानि लगे, हानि पहुँचे वह प्राणातिपात है। वह प्राणातिपात कारक वस्तुओं का उत्पादन करता है, असली वस्तुओं में प्राणी का ही अर्थात् चेतना का ही होता है निष्प्राण हानिप्रद नकली वस्तुएँ मिलाता है कई प्रकार के प्रदूषणों . अचेतन का नहीं। क्योंकि अचेतन (जड़) जगत् पर को जन्म देता है। वर्तमान में विश्व में जितने भी प्रदूषण प्राकृतिक प्रदूषण या अन्य किसी भी प्रकार का प्रदूषण दिखाई देते हैं इन सबके मूल में भोग लिप्सा व लोभ वृत्ति का कोई भला-बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है न ही उसे सुखही मुख्य है।
दुख होता है। अतः प्रदूषण का संबंध प्राणी से ही है। जब तक जीवन में भोग-वृत्ति की प्रधानता रहेगी
इस प्रकार के प्रदूषण से प्राणी के ही प्राणों का अतिपात तब तक भोग सामग्री प्राप्त करने के लिये लोभ वृत्ति भी
होता है। प्राणातिपात को वर्तमान में प्रदूषण कहा जाता रहेगी। कहा भी है कि लोभ पाप का बाप है अर्थात् जहाँ
है अतः प्रत्येक प्रकार का प्रदूषण प्राणातिपात है, प्राणातिपात लोभ होता है वहाँ पाप की उत्पत्ति होगी ही। पाप प्रदूषण
से बचना प्रदूषण से बचना है, प्रदूषण से बचना प्राणातिपात पैदा करेगा ही। अतः प्रदूषण के अभिशाप से बचना है तो
से बचना है। पापों से बचना ही होगा, पापों को त्यागना ही होगा। पापों . जैन धर्म में समस्त पापों का, दोषों का प्रदूषणों का का त्याग ही जैन धर्म की समस्त साधनाओं का आधार व मूल प्राणातिपात को ही माना है। अब यह प्रश्न पैदा सार है। पापों से मुक्ति को ही जैन धर्म में मुक्ति कहा होता है कि प्राणी प्राणातिपात या प्रदूषण क्यों करता है? है। अतः जैन धर्म की समस्त साधनाएँ, प्रदूषणों (दोषों) उत्तर में कहना होगा कि प्राणी को शरीर मिला है इससे को दूर करने की साधना है। जैन धर्म में अनगार एवं उसे चलना, फिरना, बोलना, खाना, पीना, मल विर्सजन आगार ये दो प्रकार के धर्म कहे हैं। अनगार धर्म के आदि कार्य व क्रियाएँ करनी होती हैं परन्तु इन सब धारण करने वाले साधू होते हैं जो पापों के पूर्ण त्याग की क्रियाओं से प्रकृति का सहज रूप में उपयोग करे तो न तो साधना करते हैं। आगार धर्म के धारण करने वाले प्रकृति को हानि पहुँचती है और न प्राण शक्ति का ह्रास गृहस्थ होते हैं उनके लिये बारह व्रत धारण करने. तपस्या. होता है इससे प्राणी का जीवन तथा प्रकृति का संतलन कव्यसनों के त्याग का विधान किया गया है। यही बना रहता है। यही कारण है कि लाखों-करोड़ों वर्षों से आगार धर्म प्रदूषणों से बचने का उपाय है। इसी परिपेक्ष्य इस पृथ्वी पर पशु-पक्षी, मनुष्य आदि प्राणी रहते आए हैं में यहाँ बारह व्रतों का विवेचन किया ज रहा है: - परन्तु प्रकृति का संतुलन बराबर बना रहा। पर जब
प्राणी के जीवन का लक्ष्य सहज प्राकृतिक/स्वाभाविक (१) स्थूल प्राणातिपात का त्याग
जीवन से हटकर भोग भोगना हो जाता है तो वह भोग के प्राणातिपात उसे कहा जाता है जिससे किसी भी सुख के वशीभूत हो अपने हित-अहित को, कर्तव्यप्राणी के प्राणों का घात हो। प्राण दश कहे गये हैं। अकर्तव्य को भल जाता है। वह भोग के वशीभूत हो वह श्रोत्रेन्द्रिय बल प्राण २. चक्षु इन्द्रिय बल प्राण ३. घ्राणेन्द्रिय कार्य भी करने लगता है जिसमें उसका स्वयं का ही बल प्राण ४. रसनेन्द्रिय बल प्राण ५. स्पर्शनेन्द्रिय बल अहित हो। उदाहरणार्थ- किसी भी मनुष्य से कहा जाय प्राण ६. मन बल प्राण ७. वचन बल प्राण ८. कायबल कि तुम्हारी आँखों का मूल्य पाँच लाख रुपये देते हैं तुम प्राण ६. श्वासोश्वास बल प्राण और १०. आयुष्य बल अपनी दोनों आँखों को हमें बेच दो तो कोई भी आँखें प्राण। इन दस प्राणों में से किसी भी प्राण को आघात बेचने को तैयार नहीं होगा। अर्थात् वह अपनी आँखों को
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किसी भी मूल्य पर बेचने को तैयार नहीं होगा, वह आँखों विश्व में पचास करोड़ कारें, लाखों दुपहिये वाहन, करोड़ों को अमूल्य मानता है। परन्तु वही मनुष्य चक्षु इन्द्रिय के कारखानों में अरबों टन पैट्रोल जलाया जा रहा है, जिससे सुख भोग के वशीभूत हो टेलीविजन, सिनेमा, आदि अधिक पेट्रोल के भंडार खाली होते जा रहे हैं इससे एकदिन भावी समय देखकर अपनी आँखों की शक्ति क्षीण कर देता है, पीढ़ियों के लिए कुछ भी नहीं बचेगा। इस प्रकार पेट्रोल वह अपनी आँखों की अमूल्य प्राण शक्ति को हानि पहुँचा तथा लोहा आदि धातुओं का दोहन तथा इनसे पैदा होने कर अपना ही अहित कर लेता है। यही बात कान, जीभ वाला जल-वायु प्रदूषण व तापमान वृद्धि का दुष्प्रभाव - ये आदि समस्त इन्द्रिय के प्राणों के प्राणातिपात पर होती है। सब भावी पीढ़ियों के लिए अभिशाप बनने वाले हैं। जैन धर्म में पृथ्वी, पानी, हवा तथा वनस्पति में जीव माना है, इन्हें प्राण माना है, इन्हें विकृत करने को इनका।
___ अप्काय का प्राणातिपात प्रदूषण प्राणातिपात माना है परन्तु मनुष्य अपने सुख-सुविधा संपत्ति जल में अन्य पदार्थ मिलने से अप्काय के प्राण का के लोभ से इनका प्राण हरण कर इन्हें निर्जीव, निष्प्राण हरण होता है यही जल प्रदूषण है, वर्तमान काल में धन प्रदूषित कर रहा है यथा -
कमाने के लिये बड़े-बड़े कारखाने लगे हैं, उनमें प्रतिदिन पृथ्वीकाय का प्राणातिपात-प्रदूषण
करोड़ों अरबों लीटर जल का उपयोग होता है वह सब
जल प्रदूषित हो जाता है, रसायनिक पदार्थों के संपर्क से, कृषि भूमि में रासायनिक खाद एवं एन्टीवायोटिक नगर के गंदे नालों का जल मल-मत्र आदि गंदगी से दषित दवाए डालकर भूमि का निजाव बनाया जा रहा है जिसस होता जा रहा है। यह दूषित जल धरती में उतर कर उसकी उर्वरा शक्ति/प्राणशक्ति नष्ट होती है। परिणाम कँओं के जल को तथा नदी में गिरकर नदी के जल को स्वरूप भूमि बंजर हो जाती है फिर उसमें कुछ भी पैदा
दूषित करता जा रहा है। तथा दूषित जल के कीटाणुओं नहीं होता है।
का नाश करने के लिये पीने के पानी की टंकियों में भूमि का दोहन करके खाने खोदकर, खनिज पदार्थ, । पोटिशियम परमेगनेट मिलाया जा रहा है जो स्वास्थ्य के लोह, तांबा, कोयला, पत्थर आदि प्रति वर्ष करोडों टन लिये अहितकर है। नलों से भी जल का बहुत अपव्यय निकाला जा रहा है उसे निर्जीव बनाया जा रहा है तथा होता है। यह सब जल का प्रदूषण ही है। जैन धर्म में उसे कौड़ियों के भाव विदेशों को - अपने देश में उपभोग एक बूंद जल भी व्यर्थ ढोलना पाप तथा बुरा माना गया की वस्तुएँ प्राप्त करने के लिये विदेशी मुद्रा अर्जन करने है। अतः धर्म के सिद्धान्तों का पालन किया जाय तो जल के लिये बेचा जा रहा है। भले ही इस भूमि दोहन से के प्रदूषण से पूरा बचा जा सकता है। भावी पीढ़ियों के लिये वह खनिज पदार्थ न बचे कारण कि खनिज पदार्थ नये निर्माण नहीं हो रहे हैं। और भावी
वायुकाय का प्राणातिपात-प्रदूषण पीढ़ियाँ इन पदार्थों के लिये तरस-तरस के मरें, अपने वायु में विकृत तत्व मिलने से वायु काय के प्राणों पूर्वजों के इस दुष्कर्म का फल अत्यन्त दुखी होकर भोगें। का अतिपात होना है। यही वायु प्रदूषण है। बड़े कारखानों इस बात की चिन्ता वर्तमान पीढ़ी व सरकारों को कतई की चिमनियों से लगातार विषैला धुआं निकल कर वायु नहीं है। यही बात पैट्रोलियम पदार्थों पर भी घटित होती को दूषित करता जा रहा है, करोड़ों, कारखानों में विषैली है उसका भी इसी प्रकार भयंकर दोहन हो रहा है। आज गैसों का उपयोग हो रहा है वे गैस वायु में मिलकर वायु
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में निहित प्राणशक्ति को क्षय कर रही है। इस प्रदूषण के उनका दूषित प्रभाव बढ़ता जा रहा है जो स्वास्थ्य के प्रभाव से ध्रुवों में ओजोन परत भी क्षीण हो गई है उसमें लिये अति हानिकारक है एवं पोष्टिक तत्व का, विटामिन, छेद होते जा रहे हैं जिसमें सूर्य की हानिकारक किरणें प्रोटीन, क्लोरी का भी घातक है। यही कारण है कि सीधे मानव शरीर पर पड़ेगी जिसके फलस्वरूप केंसर अमरीका में रासायनिक खाद से उत्पन्न हुए गेहूँ के भाव से आदि भयंकर असंख्य असाध्य रोगों का खतरा उत्पन्न हो बिना रासायनिक खाद में उत्पन्न हुए गेहूँ का भाव आठ जाने वाला है। वायु प्रदूषण से नगरों में नागरिकों को गुना है। श्वास लेने के लिये स्वच्छ वायु मिलना कठिन हो गया है दम घुटने लगा है, जिससे दमा/क्षय आदि रोग भयंकर
त्रसकाय प्राणातिपात रूप में फैलने लगे हैं। जैन धर्म में इस प्रकार के वायु के दो इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव तथा . प्राणातिपात को, प्रदूषण को पाप माना है।
केंचुए, चींटि, मधुमक्खी भौरे, चूहे, सर्प, पक्षी, पशु आदि ।
चलने फिरनेवाले जीव त्रसकाय कहे जाते हैं। इन जीवों वनस्पति काय प्राणातिपात-प्रदूषण
की उत्पत्ति प्रकृति से स्वतः होती है तथा संतुलन भी बना जैनागम आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में वनस्पति । रहता है। ये सभी जीव फसल का संतुलन बनाये रखने में की मलीनता की तुलना मनुष्य जीवन से की है जैसे मनुष्य सहायक होते हैं। केंचआ भमि की उर्वरा शक्ति बढाता का शरीर बढ़ता है, खाता है उसी प्रकार वनस्पति भी है। आज दवाईयों से इन जीवों को मार दिया जाता है बढ़ती है, भोजन करती है। वर्तमान में वनस्पतिकाय का जिससे पैदावार में असंतुलन हो गया है तथा जीवों की प्राणातिपात भयंकर रूप से हो रहा है। लकड़ी के प्रलोभन अनेक प्रजातियाँ लुप्त हो गई है। से जंगल/वन कटे जा रहे हैं। पहले जहाँ पहाड़ों पर व
जैन धर्म में उपर्युक्त सब प्रकार के जीवों के प्राणातिपात समतल भूमि पर घने जंगल थे, जिनमें होकर पार होना
करने रूप प्रदूषणों के त्याग का विधान किया गया है। कठिन था, जिन्हें अटवी कहा जाता था उनका तो आज नामोनिशां ही नहीं रहा। जो जंगल बचे हैं और जिन वनों
यदि इस व्रत का पालन किया जाय और पृथ्वी, जल,
वायु, वनस्पति आदि को प्रदूषित न किया जाय, इनका को सरकार द्वारा सुरक्षित घोषित किये गये हैं उन वनों में
हनन न किया तो मानव जाति प्राकृतिक प्रदूषणों से सहज भी चोरी छिपे भयंकर कटाई हो रही है। इसका प्रभाव
ही बच सकती है। फिर पर्यावरण के लिए तो किसी भी जल-वायु पर पड़ा है। इनके कट जाने से आर्द्रता कम हो
कानून बनाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी इस प्रकार से गई जिससे वर्षा में बहुत कमी हो गई है। वन के घने
अहिंसा पालन से पर्यावरण की समस्त समस्याओं का जंगलों में लगे वृक्ष प्रदूषित वायु का कार्बन डाई आक्साईड
समाधान संभव है। ग्रहण कर बदले में आक्सीजन देकर वायु को शुद्ध करते थे वह शुद्धिकरण की प्रक्रिया अति धीमी हो गई है। २. मृषावाद विरमण फलतः वायु में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है जो मानव जाति
दूसरा व्रत है - झूठ का त्याग। अर्थात् जो वस्तु के स्वास्थ्य के लिये अति हानिकारक है।
जिस गुण, धर्म वाली है उसे वैसी ही बताया जाय । आज रासायनिक खाद एवं कीट नाशक दवाईयों के डालने चारों ओर व्यापार में मृषावाद का ही बोलबाला है। से कृषि उपज में अनाज, फल, फूल, दालों की संरचना में उदाहरण के लिये रासायनिक खाद दीर्घ काल की उपज
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४. व्यभिचार का त्याग किया जाता है। आज का विज्ञापन दाता क्षेत्र में विज्ञापित वस्तु से दीर्घ काल में होने वाली भयंकर हानि को छुपाकर, चौथे व्रत में अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य समस्त तथा उनके तात्कालिक लाभ को बढ़ा-चढ़ा कर, बताकर प्रकार के यौन संबंधों को त्याज्य कहा है। जैन धर्मानुयायियों जनता को मायाजाल में फंसाता है यह धोखा है। जैन ___ के लिये परस्त्रीगमन, वेश्यागमन तथा अतिभोग को सर्वथा साधना में ऐसे कार्य को मृषावाद कहा है और इसका त्याज्य कहा गया है। इससे एड्स जैसे असाध्य बीमार निषेध किया गया है। इस सिद्धान्त को अपना लिया रोगों से सहज ही बचा जा सकता है। आज जो एड्स तथा जाय तो ऐसे प्रदूषणों से बचा जा सकता है। यौन संबंधी अनेक रोग व प्रदूषण बड़ी तेजी से फैल रहे हैं
जिससे मानव जाति के विनाश का खतरा उत्पन्न हो गया है ३. अचौर्य व्रत
इसका कारण इस व्रत का पालन न करना ही है। कामोत्तेजक __ अपहरण करना चोरी है। वर्तमान में अपहरण के तथा अश्लील चित्र बनाना व देखना भी इस व्रत के अंग नये-नये रूप निकल गये हैं। व्यापार द्वारा उपभोक्ताओं है। इससे आज विदेशों में अविवाहित लड़कियों के गर्भ के धन का अपहरण तो किया ही जाता है; कल-कारखानों रहने, गर्भपात कराने तथा तलाक आदि घटनाओं में वृद्धि में श्रमिकों को श्रम का पूरा प्रतिफल न देकर श्रम का भी हो रही है। ब्यूटी पार्लर, प्रसाधन सामग्री से शारीरिक अपहरण किया जाता है। उनकी विवशता का लाभ अस्वस्थता बढ़ती जा रही है। इन भयंकर प्रदूषण से बचाव उठाया जाता है। जीवनरक्षक दवाईयों के बीस-तीस गुणें भी इस व्रत के पालन करने से ही संभव है। दाम रखकर तथा नकली दवाइयाँ बनाकर रोगियों को मृत्यु के मुख में धकेला जाता है। लाटरी के द्वारा गरीबों
५. परिग्रह परिमाण व्रत के कठिन श्रम से की गई कमाई का अपहरण किया जा गृहस्थ को भूमि, भवन, खेत, वस्तु, धन-धान्य, रहा है। संक्षेप में कहे तो -- जितने भी शोषण के तरीके हैं गाय, भैंस आदि की आवश्यकता पड़ती है। अतः इन्हें वे सभी अपहरण के रूप हैं। बिना प्रतिफल दिये या कम । अपने परिवार की आवश्यकता के अनुसार रखना, इनसे प्रतिफल देकर अधिक लाभ उठाना शोषण या अपहरण है। अधिक धन उपार्जन की दृष्टि से न रखना, इस व्रत के यह अति भयंकर आर्थिक प्रदूषण है। इसी से आर्थिक अन्तर्गत आता है। इस व्रत में परिग्रह या संग्रह को बुरा
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बताया गया है। उत्पादन को बुरा नहीं कहा है। आनन्द इकट्ठी होती जा रही है। उन लोगों के यांत्रिक लाखों कामदेव आदि आदर्श श्रावकों के हजारों गायें थी उनका वाहनों तथा उद्योगों में लगे यंत्रों से निकली विषैली गैसों परिमाण किया है, बेचा नहीं है। परिमाण की गई गायों से उनके मल-मूत्र से, उनके द्वारा फैंके हुए कूड़े कचरे से, के बछड़े-बछड़ी होते, ये परिमाण में अधिक हो जाते ; वे उनके श्वास से निकली कार्बन-डाई आक्साईड़ से भयंकर दूसरों को दान दे दिये ; जिससे वे उनका पालन पोषण प्रदूषण फैलता जा रहा है। भारत में दिल्ली, कलकत्ता, कर आजीविका चलाते। कोई भोजन करना तो उपादेय कानपुर आदि शहर इसके प्रत्यक्ष प्रमाण है। जहाँ श्वास माने और अन्न उत्पादन को हेय (बुरा) माने, यह घोर लेने के लिये शुद्ध वायु मिलना कठिन हो गया है जिससे विसंगति है। अतः उत्पादन सर्व हितकारी प्रवृत्ति से दमा, क्षय, हृदय, केंसर जैसी भयंकर बीमारियाँ बड़ी तीव्र करना अपने सुख-सुविधा के लिये उसका संग्रह न करना गति से फैलती जा रही है। यदि दिशा पारिमाण व्रत का ही इस व्रत का मुख्य उद्देश्य है। इस व्रत के पालन से पालन किया जाय अर्थात् अपने गाँव में रहकर स्वास्थ्य उदारता-सेवा-परोपकार की श्रेष्ठवृत्ति का विकास होता । प्रदायक, सादा, सहज, स्वाभाविक, प्राकृतिक जीवन जिया है। सेठ व श्रेष्ठ कहा ही उसे है - जो अपने धन का जाय तो बड़े-बड़े नगरों में उत्पन्न होने वाले समस्त प्रदूषणों उपयोग दसरों की सेवा में करे। इस व्रत का पालन किया एवं दूषित पर्यावरण संबंधी समस्या से सहज ही में बचा जाय तो विश्व की गरीबी दूर हो जाय । आर्थिक शोषण । जा सकता है। का अन्त हो जाय और जीवन के लिये आवश्यक अन्न,
७. उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत वस्त्र, मकान आदि की कमी न रहे। आज जो आर्थिक जगत में होड़ लगी है - संघर्ष हो रहा है उसका कारण
इस व्रत में फल-फूल, वस्त्र, विलेपन, खान-पान परिग्रह ही है। इस आर्थिक बुराई या प्रदूषण से बचने का
आदि समस्त उपभोग-परिभोग सामग्री की मर्यादा करने उपाय है - परिग्रह परिमाण व्रत। इस प्रकार व्रत के पालन
का विधान है। क्योंकि भोग-परिभोग ही आत्मिक दोषों, से पर्यावरण का स्वयमेव शुद्धिकरण हो जाता है।
मानसिक द्वन्द्वों रूप प्रदूषणों के कारण हैं। अतः जैन धर्म
में साधुओं के लिये तो इन्हें पूर्ण त्याज्य ही कहा है। ६. दिशा-परिमाण व्रत
गृहस्थ के लिये भी भोगों की वृद्धि को हेय माना है और धन कमाने तथा विषय सुख भोगने के लिये मनुष्य
इन्हें सीमित मर्यादित रखने का विधान है।
इन्हें सीमित मर्यादित देश-देशान्तरों का भ्रमण करता है। यह भ्रमण वित्त भोग जैन धर्म का मानना है कि उपभोगवादी संस्कृति ही परिग्रह-लोक एषणा का व भोग वृद्धि का हेतु होता है। समस्त दोषों व प्रदूषणों की जननी है। अतः जब तक ऐसे भ्रमण को जैन धर्म में मानव जीवन के लक्ष्य शान्ति, संस्कृति का आधार उपभोग रहेगा तब तक प्रदूषण भी मुक्ति, स्वाधीनता तथा परमानन्द प्राप्ति में बाधक माना है बना रहेगा। कारण कि किसी वस्तु का दुरूपयोग करने से
और इससे यथा संभव बचने के लिये इसकी मर्यादा करने ही प्रदूषण पैदा होता है। वस्तु के सदुपयोग से वस्तु का का विधान किया गया है। वर्तमान में लोग धन कमाने, जितना उपयोग होता है उससे अधिक उसका उत्पादन सुख-सुविधा प्राप्ति एवं अधिकाधिक भोग भोगने के लिये होता है। उसका अनावश्यक व्यय (अपव्यय) नहीं होता अपनी जन्मभूमि को छोड़कर शहरों की ओर दौड़ रहे हैं। है। भोगवादी संस्कृति पशुता की द्योतक है, पशु जीवन फलस्वरूप एक ही शहर में लाखों, करोड़ों लोगों की भीड़ प्रकृति के आधीन है। पशु-पक्षी भूख लगने पर ही खाते
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हैं, भूख नहीं होने पर नहीं खाते हैं। इस प्रकार प्रकृति का है। टेलिवीजन के पर्दे पर जो चल-चित्र दिखाये जाते हैं संतुलन बना रहता है। परन्तु मनुष्य भूखा होने पर भी उनमें प्रदर्शित अभिनेता-अभिनेत्री का नृत्य, गान, हावचाहे तो नहीं खाये और भूख न होने पर भी स्वाद के वश भाव वेशभूषा, व अन्य भोग-सामग्री से दर्शकों के मन में भोजन कर लेता है। अर्थात् मनुष्य का जीवन प्रकृति के कामोद्दीपन तो होता ही है साथ ही मन में अगणित भोग आधीन नहीं है। वह प्रकृति से अपने को ऊपर उठाने में भोगने की कामनाएँ/वासनाएँ उत्पन्न हो जाती है, उन सब स्वतन्त्र है। यही मानव जीवन की विशेषता भी है। की पूर्ति होना संभव नहीं है। कामनाओं/वासनाओं की मानव इस स्वतन्त्रता का सदुपयोग और दुरुपयोग दोनों पूर्ति न होने से तनाव, हीनभाव, दबाव, और द्वन्द्व, कर सकता है। सदुपयोग है - प्रकृति का यथा संभव कम कुंठाएँ तथा मानसिक ग्रंथियों का निर्माण हो जाता है। या उतना ही उपयोग करना जितना जीवन के लिये जिससे व्यक्ति मानसिक रोगी होकर जीवन पर्यन्त दुख अत्यावश्यक है। इससे प्रकृति की देन का / वस्तुओं का भोगता है साथ ही रक्तचाप, हृदय, केंसर, अल्सर, मधुमेह व्यर्थ व्यय नहीं होता है और जिससे प्रकृति का संतुलन जैसे शारीरिक रोग का शिकार भी हो जाता है। जैन धर्म बना रहता है तथा प्रकृति के उत्पादन में वृद्धि होती है। का मानना है कि भोग स्वयं आत्मिक एवं मानसिक रोग है भारतवर्ष की संस्कृति में अन्न को देवता माना गया है। और इसके फलस्वरूप शारीरिक रोगों की उत्पति होती है। अन्न के एक दाने को भी व्यर्थ नष्ट करने को घोर पाप या फिर शारीरिक रोगों की चिकित्सा के लिये एन्टीवायोटिक अपराध माना जाता रहा है। पेड़ के एक फूल, पत्ते व दवाइयाँ ली जाती हैं जिससे लाभ तो तत्काल मिलता है फल को व्यर्थ तोड़ना अनुचित समझा जाता रहा है। पेड़- परन्त जीवन-शक्ति नष्ट हो जाती है फलतः आयु घटकर पौधों को क्षति पहुँचाना तो दूर रहा उलटा उन्हें पूजा अकाल में ही काल के गाल में समा जाते हैं, वर्तमान में जाता है - खाद और जल देकर उनका संवर्धन व पोषण
उत्पन्न समस्त समस्याओं का मूल भोगवादी संस्कृति ही है। .. किया जाता है। यही कारण है कि आज से केवल एक सौ वर्ष पूर्व भारत में घने जंगल थे। जब से उपभोक्तावादी ८. अनर्थ दण्ड विरमण संस्कृति का पश्चिम के देशों से भारत में आगमन हुआ,
अनर्थ शब्द, अन् उपसर्ग पूर्वक दंड शब्द से बना प्रचार-प्रसार हुआ इसके पश्चात् सारे प्रदूषण पैदा हो गये,
है। अन् उपसर्ग के अनेक अर्थ फलित होते हैं उनमें वनों का विनाश हो गया। अगणित वनस्पतियों तथा
मुख्य हैं अभाव, विलोम । अर्थ कहते हैं – मतलब को। पशु-पक्षियों की जातियों का अस्तित्व ही मिट गया। जहाँ
अतः अनर्थ शब्द का अभाव में अभिप्राय है बिना अर्थ, पहले सिंह भ्रमण करते थे आज वहां खरगोश भी नहीं
व्यर्थ, हित शून्य और विलोम रूप में अभिप्राय है - हानिरहे।
प्रद। अतः जो कार्य अपने लिये हितकर न हो और वर्तमान में विज्ञान के विकास के साथ भोग सामग्री दूसरों के लिये भी हानिकारक हो उसे अनर्थ दण्ड कहते अत्यधिक बढ़ गई है तथा बढ़ती जा रही है, जिसे हैं। जैसे मनोरंजन के लिए ऊँटों की पीठ पर बच्चों को फलस्वरूप रोग बढ़ गये हैं और बढ़ते जा रहे हैं। बांधकर ऊँटों को दौड़ाना जिससे बच्चे चिल्लाते हैं तथा उदाहरणार्थ टेलिवीजन को ही लें, टेलिवीजन के समीप गिरकर मर जाते हैं, मुर्गी को व सांडों को परस्पर में बैठने से बच्चों में रक्त कैंसर जैसा असाध्य रोग बहुत लड़ाना आदि। आजकल सौंदर्य प्रसाधन सामग्री के लिये अधिक बढ़ गये हैं। आँखों की दृष्टि तो कमजोर होती ही अनेक पशु-पक्षियों की निर्मम हत्याएँ की जाती हैं, इस
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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
देशावकासिक व्रत छठे दिशि तथा सातवें भोगपरिभोग परिमाण व्रत इन दोनों व्रतों का ही विशेष रूप है। छठे तथा सातवें व्रत में दिशा व भोग्य वस्तुओं की जो मर्यादा की है उसे प्रतिदिन के लिए घटाना इस व्रत का उद्देश्य है। पौषध व्रत में सांसारिक प्रवृतियों से एक दिन के लिये विश्राम लेना है। इसमें साधुत्व का आचरण करना है। साधत्व (त्याग) का रस चखना है। विश्राम से शक्ति का प्रार्दभाव होता है, विवेक का उदय होता है, संवेदनशक्ति का विकास होता है अर्थात आत्मिक गुणों का पोषण होता है।
प्रकार प्रसाधन सामग्री से पशुओं का वध तो होता ही है तथा सामग्री का उपयोग करने वाले के स्वास्थ्य को भी हानि पहुँचती है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ जो स्वादिष्ट वस्तुएँ बनाती हैं उससे उन खाद्य-पदार्थों के विटामिन-प्रोटीन आदि प्रकृति प्राप्त पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं साथ ही उनका मूल्य बीसों गुना हो जाता है जो अर्थ को बहुत बड़ी हानि या दंड है अर्थात् अनर्थदण्ड है। आज भोग- परिभोग के लिये जिन कृत्रिम वस्तुओं का निर्माण हो रहा है उन वस्तुओं के लाभकारी गुण या तत्व तो नष्ट हो ही जाते हैं साथ ही वे स्वास्थ्य तथा आर्थिक दृष्टि से हानिकारक भी होती है. अतः वे अनर्थदण्ड रूप ही हैं। यही नहीं तली। हुई चरपरी-चटपटी मिर्च, मसालेदार वस्तुओं को भी अनर्थदण्ड के रूप में लिया जा सकता है क्योंकि ये शरीर के लिये हानिकारक होती है, पाचन शक्ति बिगाड़ती है। आस्ट्रेलिया, यूरोप आदि देशों के विकसित नागरिक स्वास्थ्य के लिये ऐसी तली हुई, मिर्च मसालेदार हानिकारक वस्तुओं का उपयोग व उपभोग प्रायः नहीं करते हैं। सिन्थेटिक वस्त्र भी स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है इसलिये अब विदेशों में पुनः सूती वस्त्रों को अधिक महत्व दिया जाने लगा है। जिससे इनकी मांग बढ़ी है। यदि अनर्थदण्ड विरमण व्रत का पालन किया जाय तो इन सब प्रदूषणों से बचा जा सकता है। ६. सामायिक १०. देशावकासिक ११. पौषधव्रत
ये तीनों व्रत मानसिक एवं आत्मिक विकारों/प्रदषणों से बचने तथा गुणों का पोषण करने के लिये हैं। अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव से रहना, उनसे प्रभावित न होना, उसके प्रति राग-द्वेष न करना, मन का संतलन न खोना सामायिक है। इससे व्यक्ति परिस्थिति से अतीत हो जाता है, ऊपर उठ जाता है। अतः सांसारिक सुखदुख के प्रभाव से मुक्त हो जाता है फिर उसे तनाव, हीन भाव, अन्तर्द्वन्द्व, भय, चिंता जैसे मानसिक रोग या विकार नहीं सताते हैं।
१२. अतिथि संविभाग व्रत
गृहस्थ जीवन में दान का बहुत महत्व है। गृहस्थ जीवन का भूषण ही न्याय पूर्वक उत्पादन व उपार्जन करना तथा उसे आवश्यकता वाले लोगों में वितरण करना है। जो उत्पादन व उपार्जन नहीं करता है वह अकर्मण्य व आलसी है यह गृहस्थ जीवन के लिये दूषण है, इसी प्रकार जो उत्पादन करके संग्रह करता है वह भी दूषण है। गृहस्थ जीवन की सुंदरता व सार्थकता अपनी न्याय पूर्वक उपार्जित सामग्री से बालक, वृद्ध, रोगी, सेवक, संत महात्मा आदि उन लोगों की सेवा करने में है जो उपार्जन करने में असमर्थ
जैन धर्म में तप का बड़ा महत्व है। तप में (१) अनशन २. ऊनोदरी-भूख से कम खाना। ३. आयंबिलरस परित्याग आदि है। ये सभी तप भोजन से होने वाले प्रदूषणों को दूर करते हैं। अतिभोजन से तथा गरिष्ठ भोजन से भोजन पचने में कठिनाई होती है, जिससे पाचन-शक्ति कमजोर हो जाती है तथा भोजन में सड़ान्ध पैदा होती है जो गैस (वायु) बनाती है। जिससे अनेक रोग पैदा होते हैं। कहा जाता है कि सभी रोगों की जड़ उदर विकार है, पेट की खराबी है। यह पेट की खराबी तथा इससे संबंधित अगणित रोग उपवास, ऊनोदरी तथा
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________________ जैन संस्कृति का आलोक शारीरिक, सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक प्रदूषणों से बचा जा सकता है। लेख के विस्तार के भय से इन पर यहाँ विवेचन नहीं किया जा रहा है। आयंविल से मिट जाते हैं। रूस में तो सभी रोगों के लिये उपवास चिकित्सा संचालित ही है। पूज्य श्री घासीलालजी म.सा. ने हजारों रोगियों का रोग आयंबिल तप से ही दूर किया था। आयंबिल में एक ही प्रकार का विगय रहित भोजन किया जाता है जिससे जितनी भूख है उससे अधिक भोजन से बचा जा सकता है। एक ही रस के भोजन में आमाशय को अनजाईम बनाने में - जिनसे भोजन पचता है कठिनाई नहीं होती है, इसीलिये आस्ट्रेलिया निवासी प्रायः एक समय में एक ही रस का भोजन करते हैं यदि मीठे स्वाद की वस्तुएँ खाते हैं तो उनके साथ खट्टे नमकीन आदि स्वाद की वस्तुएँ नहीं खाते हैं। शारीरिक रोगरूप प्रदूषण को दूर करने की दृष्टि से तप का बड़ा महत्व है। इसी प्रकार रात्रि भोजन त्याग, मांसाहार त्याग, मद्य त्याग, शिकार त्याग आदि जैन धर्म के सिद्धान्तों से उपसंहार प्राणी के जीवन के विकास का संबंध प्राण शक्ति के विकास से है न कि वस्तुओं के उत्पादन से तथा भोगपरिभोग सामग्री की वृद्धि से। आध्यात्मिक, शारीरिक, मानसिक, भौतिक, पारिवारिक, सामाजिक जगत् में पर्यावरणों में शक्ति का ह्रास या विनाश प्राप्त वस्तुओं के दुरुपयोग से, भोग से होता है क्योंकि भोग से ही समस्त दोष पनपते हैं जो प्रदूषण पैदा करते हैं और भोग के त्याग से, संयम मय मर्यादित जीवन से उपर्युक्त सभी क्षेत्रों में विकास या पोषण होता है। पर्यावरण प्रदूषण से बचे तथा पर्यावरण का समुचित पोषण हो, यही जैन धर्म के तत्त्वज्ञान का निरूपण है। इसी में मानव जीवन की सार्थकता व सफलता है। 0 श्री कन्हैयालाल लोढ़ा सुविख्यात विद्वान्, लेखक एवं जैन दर्शन के गम्भीर व्याख्याता हैं। आप एक ध्यान साधक हैं तथा श्री जैन सिद्धांत शिक्षण संस्थान, जयपुर के अधिष्ठाता हैं। आपका जन्म वि.सं. 1666 में धनोप (भीलवाड़ा) में हुआ। जैन दर्शन के विभिन्न आयामों पर आपने शताधिक चिंतनपूर्ण निबंध प्रस्तुत किये हैं। विज्ञान और मनोविज्ञान से सम्बन्धित आपकी पुस्तक “जैन धर्म दर्शन" पुरस्कृत हुई है। -सम्पादक वेष-व्यवस्था / संयम-यात्रा के निर्वाह और ज्ञान आदि साधना के लिए तथा लोक में साधक और संसारी के भेद को स्पष्ट करने के लिए है। यह व्यावहारिक साधन है। निश्चय में / तत्त्व दृष्टि से साधनज्ञान-दर्शन-चरित्र ही हैं। - सुमन वचनामृत | जैनागम : पर्यावरण संरक्षण 171