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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
देशावकासिक व्रत छठे दिशि तथा सातवें भोगपरिभोग परिमाण व्रत इन दोनों व्रतों का ही विशेष रूप है। छठे तथा सातवें व्रत में दिशा व भोग्य वस्तुओं की जो मर्यादा की है उसे प्रतिदिन के लिए घटाना इस व्रत का उद्देश्य है। पौषध व्रत में सांसारिक प्रवृतियों से एक दिन के लिये विश्राम लेना है। इसमें साधुत्व का आचरण करना है। साधत्व (त्याग) का रस चखना है। विश्राम से शक्ति का प्रार्दभाव होता है, विवेक का उदय होता है, संवेदनशक्ति का विकास होता है अर्थात आत्मिक गुणों का पोषण होता है।
प्रकार प्रसाधन सामग्री से पशुओं का वध तो होता ही है तथा सामग्री का उपयोग करने वाले के स्वास्थ्य को भी हानि पहुँचती है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ जो स्वादिष्ट वस्तुएँ बनाती हैं उससे उन खाद्य-पदार्थों के विटामिन-प्रोटीन आदि प्रकृति प्राप्त पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं साथ ही उनका मूल्य बीसों गुना हो जाता है जो अर्थ को बहुत बड़ी हानि या दंड है अर्थात् अनर्थदण्ड है। आज भोग- परिभोग के लिये जिन कृत्रिम वस्तुओं का निर्माण हो रहा है उन वस्तुओं के लाभकारी गुण या तत्व तो नष्ट हो ही जाते हैं साथ ही वे स्वास्थ्य तथा आर्थिक दृष्टि से हानिकारक भी होती है. अतः वे अनर्थदण्ड रूप ही हैं। यही नहीं तली। हुई चरपरी-चटपटी मिर्च, मसालेदार वस्तुओं को भी अनर्थदण्ड के रूप में लिया जा सकता है क्योंकि ये शरीर के लिये हानिकारक होती है, पाचन शक्ति बिगाड़ती है। आस्ट्रेलिया, यूरोप आदि देशों के विकसित नागरिक स्वास्थ्य के लिये ऐसी तली हुई, मिर्च मसालेदार हानिकारक वस्तुओं का उपयोग व उपभोग प्रायः नहीं करते हैं। सिन्थेटिक वस्त्र भी स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है इसलिये अब विदेशों में पुनः सूती वस्त्रों को अधिक महत्व दिया जाने लगा है। जिससे इनकी मांग बढ़ी है। यदि अनर्थदण्ड विरमण व्रत का पालन किया जाय तो इन सब प्रदूषणों से बचा जा सकता है। ६. सामायिक १०. देशावकासिक ११. पौषधव्रत
ये तीनों व्रत मानसिक एवं आत्मिक विकारों/प्रदषणों से बचने तथा गुणों का पोषण करने के लिये हैं। अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव से रहना, उनसे प्रभावित न होना, उसके प्रति राग-द्वेष न करना, मन का संतलन न खोना सामायिक है। इससे व्यक्ति परिस्थिति से अतीत हो जाता है, ऊपर उठ जाता है। अतः सांसारिक सुखदुख के प्रभाव से मुक्त हो जाता है फिर उसे तनाव, हीन भाव, अन्तर्द्वन्द्व, भय, चिंता जैसे मानसिक रोग या विकार नहीं सताते हैं।
१२. अतिथि संविभाग व्रत
गृहस्थ जीवन में दान का बहुत महत्व है। गृहस्थ जीवन का भूषण ही न्याय पूर्वक उत्पादन व उपार्जन करना तथा उसे आवश्यकता वाले लोगों में वितरण करना है। जो उत्पादन व उपार्जन नहीं करता है वह अकर्मण्य व आलसी है यह गृहस्थ जीवन के लिये दूषण है, इसी प्रकार जो उत्पादन करके संग्रह करता है वह भी दूषण है। गृहस्थ जीवन की सुंदरता व सार्थकता अपनी न्याय पूर्वक उपार्जित सामग्री से बालक, वृद्ध, रोगी, सेवक, संत महात्मा आदि उन लोगों की सेवा करने में है जो उपार्जन करने में असमर्थ
जैन धर्म में तप का बड़ा महत्व है। तप में (१) अनशन २. ऊनोदरी-भूख से कम खाना। ३. आयंबिलरस परित्याग आदि है। ये सभी तप भोजन से होने वाले प्रदूषणों को दूर करते हैं। अतिभोजन से तथा गरिष्ठ भोजन से भोजन पचने में कठिनाई होती है, जिससे पाचन-शक्ति कमजोर हो जाती है तथा भोजन में सड़ान्ध पैदा होती है जो गैस (वायु) बनाती है। जिससे अनेक रोग पैदा होते हैं। कहा जाता है कि सभी रोगों की जड़ उदर विकार है, पेट की खराबी है। यह पेट की खराबी तथा इससे संबंधित अगणित रोग उपवास, ऊनोदरी तथा
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जैनागम : पर्यावरण संरक्षण
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