Book Title: Jainagam Paryavaran Samrakshan
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 1
________________ जैन संस्कृति का आलोक जैनागम : पर्यावरण संरक्षण 0 श्री कन्हैयालाल लोढ़ा जैन-आगमों में षट्काय के हनन का साधकों को त्रिकरण-त्रियोग से निषेध इसलिए किया गया है कि प्राकृतिक सन्तुलन बना रहे एवं पर्यावरण में विकृति न आये। व्रतों/अणुव्रतों की संरचना का भी यही उद्देश्य था। एक पूर्ण पर्यावरण की साधना है तो दूसरी आंशिक साधना। पर्यावरण प्रदूषण का संबंध प्रकृति से ही नहीं है अपितु आत्मिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, आर्थिक जगत् भी प्रदूषण की परिधि में आते हैं । इसी को विश्लेषित कर रहे हैं - श्री कन्हैयालालजी लोढ़ा। - सम्पादक पर्यावरण शब्द परि उपसर्ग पूर्वक आवरण से बना है। जिसका अर्थ है जो चारों ओर से आवृत्त किए हो, चारों ओर छाया हुआ हो, चारों ओर से घेरे हुए हो। पर्यावरण शब्द का अन्य समानार्थक शब्द है -- वातावरण। वातावरण का शाब्दिक अर्थ वायुमंडल होता है परन्तु वर्तमान में वातावरण शब्द व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है, जिसे कहा जाता है कि व्यक्ति जैसे वातावरण में रहता है उसके वैसे ही भले-बुरे संस्कार पड़ते हैं। इस रूप में पर्यावरण शब्द भारत के प्राचीन धर्मों में वातावरण अर्थात् मानव जीवन से संबंधित सभी क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है। पर्यावरण दो प्रकार का होता है - परिशुद्ध, अशुद्ध। जो पर्यावरण जीवन के लिये हितकर होता है वह परिशुद्ध पर्यावरण है और जो पर्यावरण जीवन के लिये अहितकर होता है वह अशुद्ध पर्यावरण है। इसी अशुद्ध पर्यावरण को प्रदूषण कहते हैं। पाश्चात्य देशों में प्रदूषण का सूचक प्राकृतिक प्रदूषण है। परन्तु भारतीय धर्मों में विशेषतः जैन धर्म में पर्यावरण प्रदूषण केवल प्रकृति तक ही सीमित नहीं है प्रत्युत आत्मिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, आर्थिक आदि जीवन से संबंधित समस्त क्षेत्र इसकी परिधि में आते हैं। जीवन संबंधित ये सभी क्षेत्र परस्पर जुड़े हुए हैं। इनमें से किसी भी एक क्षेत्र में उत्पन्न हुए प्रदूषण का प्रभाव अन्य सभी क्षेत्रों पर पड़ता है। जैन धर्म में प्रदूषण, दोष, पाप, विकार, विभाव, एकार्थक शब्द हैं। जैन धर्म सभी क्षेत्रों के प्रदूषणों का मूल कारण आत्मिक प्रदूषण को मानता है शेष सभी प्रदूषण इसी प्रदूषण के कटु फल, फूल, पत्ते व कांटे हैं। अतः जैनधर्म मूल प्रदूषण को दूर करने पर जोर देता है और इस प्रदूषण के मिटने पर ही अन्य प्रदूषण मिटाना संभव मानता है, जबकि अन्य संस्थाएँ, सरकारें, राजनेता प्राकृतिक प्रदूषण को मिटाने पर जोर देते हैं। परन्तु उनके इस प्रयल से प्रदूषण मिट नहीं पा रहा है। एक रूप से मिटने लगता है तो दूसरे रूप में फूट पड़ता है, केवल रूपान्तर मात्र होता है जबकि जैन वाङ्गमय में प्रतिपादित सूत्रों से सभी प्रदूषण समूल रूप से नष्ट होते हैं। इसी विषय का अति संक्षिप्त विवेचन किया जा रहा है। ऊपर कह आए हैं कि समस्त प्रदूषणों का मूल कारण है - आत्मिक प्रदूषण अर्थात् आत्मिक विकार । आत्मिक विकार है – हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार आदि अगण्य पाप। इन सब पापों की जड़ है विषय-कषाय से मिलने वाले सुखों के भोग की आसक्ति । भोगों की पूर्ति के लिये भोग सामग्री व सुविधा चाहिये। भोगजन्य, सुख सामग्री व सुविधा प्राप्ति के लिये धन-सम्पत्ति चाहिये । धन प्राप्त करने के लिये लोभ से ही मानव हिंसा, झूठ, चोरी, १६३ जैनागम : पर्यावरण संरक्षण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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