Book Title: Jainagam Paryavaran Samrakshan
Author(s): Kanhaiyalal Lodha
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 6
________________ साधना का महायात्री : श्री समन मुनि बताया गया है। उत्पादन को बुरा नहीं कहा है। आनन्द इकट्ठी होती जा रही है। उन लोगों के यांत्रिक लाखों कामदेव आदि आदर्श श्रावकों के हजारों गायें थी उनका वाहनों तथा उद्योगों में लगे यंत्रों से निकली विषैली गैसों परिमाण किया है, बेचा नहीं है। परिमाण की गई गायों से उनके मल-मूत्र से, उनके द्वारा फैंके हुए कूड़े कचरे से, के बछड़े-बछड़ी होते, ये परिमाण में अधिक हो जाते ; वे उनके श्वास से निकली कार्बन-डाई आक्साईड़ से भयंकर दूसरों को दान दे दिये ; जिससे वे उनका पालन पोषण प्रदूषण फैलता जा रहा है। भारत में दिल्ली, कलकत्ता, कर आजीविका चलाते। कोई भोजन करना तो उपादेय कानपुर आदि शहर इसके प्रत्यक्ष प्रमाण है। जहाँ श्वास माने और अन्न उत्पादन को हेय (बुरा) माने, यह घोर लेने के लिये शुद्ध वायु मिलना कठिन हो गया है जिससे विसंगति है। अतः उत्पादन सर्व हितकारी प्रवृत्ति से दमा, क्षय, हृदय, केंसर जैसी भयंकर बीमारियाँ बड़ी तीव्र करना अपने सुख-सुविधा के लिये उसका संग्रह न करना गति से फैलती जा रही है। यदि दिशा पारिमाण व्रत का ही इस व्रत का मुख्य उद्देश्य है। इस व्रत के पालन से पालन किया जाय अर्थात् अपने गाँव में रहकर स्वास्थ्य उदारता-सेवा-परोपकार की श्रेष्ठवृत्ति का विकास होता । प्रदायक, सादा, सहज, स्वाभाविक, प्राकृतिक जीवन जिया है। सेठ व श्रेष्ठ कहा ही उसे है - जो अपने धन का जाय तो बड़े-बड़े नगरों में उत्पन्न होने वाले समस्त प्रदूषणों उपयोग दसरों की सेवा में करे। इस व्रत का पालन किया एवं दूषित पर्यावरण संबंधी समस्या से सहज ही में बचा जाय तो विश्व की गरीबी दूर हो जाय । आर्थिक शोषण । जा सकता है। का अन्त हो जाय और जीवन के लिये आवश्यक अन्न, ७. उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत वस्त्र, मकान आदि की कमी न रहे। आज जो आर्थिक जगत में होड़ लगी है - संघर्ष हो रहा है उसका कारण इस व्रत में फल-फूल, वस्त्र, विलेपन, खान-पान परिग्रह ही है। इस आर्थिक बुराई या प्रदूषण से बचने का आदि समस्त उपभोग-परिभोग सामग्री की मर्यादा करने उपाय है - परिग्रह परिमाण व्रत। इस प्रकार व्रत के पालन का विधान है। क्योंकि भोग-परिभोग ही आत्मिक दोषों, से पर्यावरण का स्वयमेव शुद्धिकरण हो जाता है। मानसिक द्वन्द्वों रूप प्रदूषणों के कारण हैं। अतः जैन धर्म में साधुओं के लिये तो इन्हें पूर्ण त्याज्य ही कहा है। ६. दिशा-परिमाण व्रत गृहस्थ के लिये भी भोगों की वृद्धि को हेय माना है और धन कमाने तथा विषय सुख भोगने के लिये मनुष्य इन्हें सीमित मर्यादित रखने का विधान है। इन्हें सीमित मर्यादित देश-देशान्तरों का भ्रमण करता है। यह भ्रमण वित्त भोग जैन धर्म का मानना है कि उपभोगवादी संस्कृति ही परिग्रह-लोक एषणा का व भोग वृद्धि का हेतु होता है। समस्त दोषों व प्रदूषणों की जननी है। अतः जब तक ऐसे भ्रमण को जैन धर्म में मानव जीवन के लक्ष्य शान्ति, संस्कृति का आधार उपभोग रहेगा तब तक प्रदूषण भी मुक्ति, स्वाधीनता तथा परमानन्द प्राप्ति में बाधक माना है बना रहेगा। कारण कि किसी वस्तु का दुरूपयोग करने से और इससे यथा संभव बचने के लिये इसकी मर्यादा करने ही प्रदूषण पैदा होता है। वस्तु के सदुपयोग से वस्तु का का विधान किया गया है। वर्तमान में लोग धन कमाने, जितना उपयोग होता है उससे अधिक उसका उत्पादन सुख-सुविधा प्राप्ति एवं अधिकाधिक भोग भोगने के लिये होता है। उसका अनावश्यक व्यय (अपव्यय) नहीं होता अपनी जन्मभूमि को छोड़कर शहरों की ओर दौड़ रहे हैं। है। भोगवादी संस्कृति पशुता की द्योतक है, पशु जीवन फलस्वरूप एक ही शहर में लाखों, करोड़ों लोगों की भीड़ प्रकृति के आधीन है। पशु-पक्षी भूख लगने पर ही खाते जैनागम : पर्यावरण संरक्षण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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