Book Title: Jainachar ki Bhumika
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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Page 4
________________ -0-0--0----0-0--0--0-0-0 डा. मोहनलाल मेहता : जैनाचार की भूमिका : ३१३ है. इसके बाद की जो अवस्था है उसमें मानसिक विषयों का निरोध प्रारम्भ होकर मन की शुद्धि होती है. इस अवस्था का नाम सत्यापत्ति है. इसके बाद पदार्थभावनी अवस्था आती है जिसमें बाह्य वस्तुओं का मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. सातवां अंग तुरीयगा कहलाता है. इसमें पदार्थों का मन से कोई सम्बन्ध ही नहीं रहता तथा आत्मा का सत् चित् व आनन्दरूप ब्रह्म से एकाकार हो जाता है. यह अवस्था निर्विकल्पक समाधिरूप है. योगदर्शन का अष्टांग योग प्रसिद्ध ही है. प्रथम अंग यम में अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह का समावेश होता है. द्वितीय अंग नियम में शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान का समावेश किया जाता है. तृतीय अंग का नाम आसन है. चतुर्थ अंग प्राणायामरूप है. पांचवां अंग प्रत्याहार, छठा धारणा, सातवां ध्यान व आठवां समाधि कहलाता है. निर्विकल्प समाधि आत्मविकास की अंतिम अवस्था होती है, जिसमें आत्मा अपने स्वाभाविक रूप में अवस्थित हो जाती है. कर्मपथ मीमांसा व स्मृतियों आदि में क्रियाकाण्ड पर अधिक भार दिया गया है जबकि सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक, वेदान्त आदि आत्मशुद्धि पर विशेष जोर देते हैं. बौद्धों के अनुसार हमारी समस्त प्रवृत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं-ज्ञात और अज्ञात. इन्हें बौद्ध परिभाषा में विज्ञप्ति और अविज्ञप्ति कहा जाता है. जब कोई व्यक्ति परोक्ष अर्थात् अज्ञात रूप से किसी अन्य द्वारा किसी प्रकार का पापकार्य करता है तो वह अविज्ञप्ति-कर्म करता है. जो जानबूझ कर अर्थात् ज्ञातरूप से पापक्रिया करता है वह विज्ञप्ति कर्म करता है. यही बात शुभ प्रवृत्ति के विषय में भी है. अतः शील भी विज्ञप्ति व अविज्ञप्ति रूप दो प्रकार का है. बौद्ध दर्शन के अनुसार प्रत्येक क्रिया के तीन भाग होते हैं--प्रयोग, कर्मपथ और पृष्ठ. क्रिया की तैयारी करना प्रयोग है. वास्तविक क्रिया कर्मपथ है. अनुगामिनी क्रिया का नाम पृष्ठ है. उदाहरण के रूप में चोरी को लें. जब कोई चोरी करना चाहता है तो अपने स्थान से उठता है, आवश्यक साधन-सामग्री लेता है, दूसरे के घर जाता है, चुपचाप घर में घुसता है, रुपये-पैसे व अन्य वस्तुएं ढूंढता है और उन्हें वहां से उठाता है. यह सब प्रयोग के अन्तर्गत है. चोरी का सामान लेकर वह घर से बाहर निकलता है, यही कर्मपथ है. उस सामान को वह अपने साथियों में बांटता है, बेचता है अथवा छिपाता है. ये तीनों प्रकार विज्ञप्ति व अविज्ञप्तिरूप होते हैं. इतना ही नहीं, एक प्रकार का कर्मपथ दूसरे प्रकार के कर्मपथ का प्रयोग अथवा पृष्ठ बन सकता है. इसी प्रकार अन्य पापों एवं शुभ क्रियाओं के भी तीन विभाग कर लेने चाहिए. वस्तुत: प्रयोग, कर्मपथ व पृष्ठ प्रकृति की अथवा आचार की तीन अवस्थाएं हैं. इन्हें प्रवृत्ति के तीन सोपान भी कह सकते हैं. किस प्रकार की प्रवृत्ति अर्थात् कर्म से किस प्रकार का फल प्राप्त होता है, इसका भी बौद्ध साहित्य में पूरी तरह विचार किया गया है. यह विचार बौद्ध आचारशास्त्र की भूमिकारूप है. जैनाचार व जैन विचार जैनाचार की मूल भित्ति कर्मवाद है. इसी पर जैनों का अहिंसावाद, अपरिग्रहवाद एवं अनीश्वरवाद प्रतिष्ठित है. कर्म का साधारण अर्थ कार्य, प्रवृत्ति अथवा क्रिया है. कर्मकाण्डी, यज्ञ आदि क्रियाओं को कर्म कहते हैं. पौराणिक व्रत-नियम आदि को कर्मरूप मानते हैं. जैन परम्परा में कर्म दो प्रकार का माना गया है -द्रव्यकर्म व भावकर्म. कार्मण पुद्गल अर्थात् जड़तत्त्व विशेष जो कि जीव के साथ मिल कर कर्म के रूप में परिणत होता है, द्रव्यकर्म कहलाता है. यह ठोस पदार्थरूप होता है. द्रव्यकर्म की यह मान्यता जैन कर्मवाद की विशेषता है. आत्मा के अर्थात् प्राणी के राग-द्वेषात्मक परिणाम अर्थात् चित्तवृत्ति को भावकर्म कहते हैं. दूसरे शब्दों में प्राणी के भावों को भावकर्म तथा भावों द्वारा आकृष्ट सूक्ष्म भौतिक परमाणुओं को द्रव्यकर्म कहते हैं. यह एक मूलभूत सिद्धान्त है कि आत्मा और कर्म का सम्बन्ध प्रवाहतः अनादि है. प्राणी अनादि काल से कर्मपरम्परा में पड़ा हुआ है. चैतन्य और जड़ का यह सम्मिश्रण अनादिकालीन है. जीव पुराने कर्मों का विनाश करता हुआ नवीन कर्मों का उपार्जन करता जाता है. जब तक उसके पूर्वोपार्जित समस्त कर्म नष्ट नहीं हो जाते-आत्मा से अलग नहीं हो जाते तथा नवीन कर्मों का उपार्जन बंद नहीं हो जाता-नया बंध रुक नहीं जाता तब GEENA NARAURAT Jain E cation International www.jainelibyery.org

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