Book Title: Jainachar ki Bhumika
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf

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________________ डा. मोहनलाल मेहता एम० ए०, पी-एच० डी० जैनाचार की भूमिका आचार और विचार परस्पर सम्बद्ध ही नहीं एक-दूसरे के पूरक भी हैं. संसार में जितनी भी ज्ञान-शाखाएँ हैं, किसी न किसी रूप में आचार अथवा विचार अथवा दोनों से सम्बद्ध हैं. व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिए ऐसी ज्ञान-शाखाएँ अनिवार्य हैं जो विचार का विकास करने के साथ ही साथ आचार को भी गति प्रदान करें. दूसरे शब्दों में जिन विद्याओं में आचार व विचार, दोनों के बीज मौजूद हों वे ही व्यक्तित्व का वास्तविक विकास कर सकती हैं. जब तक आचार को विचारों का सहयोग प्राप्त न हो अथवा विचार आचार रूप में परिणत न हों तब तक जीवन का यथार्थ विकास नहीं हो सकता. इसी दृष्टि से आचार और विचार को परस्पर सम्बद्ध एवं पूरक कहा जाता है. प्राचार और विचार विचारों अथवा आदर्शों का व्यावहारिक रूप आचार है. आचार की आधारशिला नैतिकता है. जो आचार नैतिकता पर प्रतिष्ठित नहीं है वह आदर्श आचार नहीं कहा जा सकता. ऐसा आचार त्याज्य है. समाज में धर्म की प्रतिष्ठा इसीलिए है कि वह नैतिकता पर प्रतिष्ठित है. वास्तव में धर्म की उत्पत्ति मनुष्य के भीतर रही हुई उस भावना के आधार पर ही होती है जिसे हम नैतिकता कहते हैं. नैतिकता का आदर्श जितना उच्च होता है, धर्म की भूमिका भी उतनी ही उन्नत होती है. नैतिकता केवल भौतिक अथवा शारीरिक मूल्यों तक ही सीमित नहीं होती. उसकी दृष्टि में आध्यात्मिक अथवा मानसिक मूल्यों का अधिक महत्त्व होता है. संकुचित अथवा सीमित नैतिकता की अपेक्षा विस्तृत अथवा अपरिमित नैतिकता अधिक बलवती होती है. वह व्यक्तित्व का यथार्थ एवं पूर्ण विकास करती है. धर्म का सार आध्यात्मिक सर्जन अथवा आध्यात्मिक अनुभूति है. इस प्रकार के सर्जन अथवा अनुभूति का विस्तार ही धर्म का विकास है. जो प्राचार इस उद्देश्य की पूर्ति में सहायक हो वही धर्ममूलक प्राचार है. इस प्रकार का प्राचार नैतिकता की भावना के अभाव में संभव नहीं. ज्यों-ज्यों नैतिक भावनाओं का विस्तार होता जाता है त्यों-त्यों धर्म का विकास होता जाता है. इस प्रकार का धर्मविकास ही आध्यात्मिक विकास है. आध्यात्मिक विकास की चरम अवस्था का नाम ही मोक्ष अथवा मुक्ति है. इस मूलभूत सिद्धान्त अथवा तथ्य को समस्त आत्मवादी भारतीय दर्शनों ने स्वीकार किया है. दर्शन का सम्बन्ध विचार अथवा तर्क से है, जबकि धर्म का सम्बन्ध प्राचार अथवा व्यवहार से है. दर्शन हेतुवाद पर प्रतिष्ठित होता है जबकि धर्म श्रद्धा पर अवलम्बित होता है. प्राचार के लिए श्रद्धा की आवश्यकता है जबकि विचार के लिए तर्क की. प्राचार व विचार अथवा धर्म व दर्शन के सम्बन्ध में दो विचारधाराएँ हैं. एक विचारधारा के अनुसार आचार व विचार अर्थात् धर्म व दर्शन अभिन्न हैं. इनमें वस्तुतः कोई भेद नहीं है. प्राचार की सत्यता विचार में ही पाई जाती है एवं विचार का पर्यवसान अाचार में ही देखा जाता है. दूसरी विचारधारा के अनुसार आचार व २ Jain Educa or Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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