Book Title: Jain evam Bauddh Tattvamimansa ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf
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भागचंद जैन भास्कर
के होने पर ही द्रव्येन्द्रियों की उत्पत्ति होती है । इसलिए भावेन्द्रियाँ कार्य हैं और द्रव्येन्द्रियाँ कारण हैं। इनमें चक्षु और मन अपने विषय को स्पर्श किये बिना ही जानती हैं, अतः वे अप्राप्यकारी हैं। शेष इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं । घ्राण, चक्षु, श्रोत्र, और जिह्वा इन चार इन्द्रियों का आकार क्रमशः जौ की नली, मसूर, अतिमुक्तक पुष्प तथा अर्धचन्द्र अथवा खुरपा के समान हैं और स्पर्शन् इन्द्रिय अनेक आकार (रूप ) है । इनका विषय क्रमशः गन्ध, वर्ण, शब्द, रस और स्पर्श है । ये मूर्तिक पदार्थ को ही विषय करती हैं, जबकि मन मूर्तिक और अमूर्तिक दोनों को विषय करता है । इन इन्द्रियों के क्षेत्र इस प्रकार निर्दिष्ट किये गये हैं
४२
इन्द्रिय एकेन्द्रिय १. स्पर्शन्
४००
धनुष
२. रसना
३. घ्राण
४. चक्षु ५. श्रोत्र
६. मन
चक्षुर्द्वा
श्रोत्रद्वार
घ्राणद्वार
जिह्वाद्वार
}
द्वीन्द्रिय । त्रीन्द्रिय । चतुरिन्द्रिय असंज्ञी पंचे० । संज्ञी पंचेन्द्रिय
८००
१६००
९ योजन
धनुष ६४ धनुष
९ योजन
९ योजन
धनुष
१२८
धनुष
१००
धनुष
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३२००
धनुष
४७२६२,
१२ योजन
सर्वलोकवर्ती
बौद्धधर्म में चक्षु आदि की गणना इन्द्रियों, आयतनों (असाधारण कारण), धातुओं तथा प्रसाद रूपों में की गई है। इसका तात्पर्य यह है कि चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा और स्पर्श ( कार्य ) अपने-अपने विषय को ग्रहण करने में स्वतन्त्र हैं, असाधारण कारण हैं, अपना स्वभाव धारण करते हैं तथा स्पष्ट हैं । इन्हें द्वार भी कहा गया है । इन द्वारों से रूपादि का आलम्बन करने वाली विज्ञान धातुओं की उत्पत्ति होती है । उन्हें द्वारालम्बनतदुत्पन्न कहते हैं ।
द्वार
आलम्बन
रूपालम्बन
शब्दालम्बन
गन्धालम्बन
रसालम्बन
२५६
धनुष
२००
धनुष
२९५४
धनुष
६४००
धनुष
५१२
धनुष
४००
धनुष
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५९०८
धनुष
८०००
धनुष
विज्ञान
चक्षुविज्ञान
श्रोत्रविज्ञान
कायद्वार
स्पृष्टव्यालम्बन धर्मालम्बन
मनोद्वार
मनोविज्ञान
जैनधर्म के समान भावेन्द्रियों की कल्पना बौद्धधर्म में नहीं है । पाँचों इन्द्रियावरण के क्षयोपशम को भावेन्द्रिय कहते हैं । बौद्धधर्म में इन्द्रियों को कर्मज कहा गया है । उसी रूपकलाप को
घ्राणविज्ञान
जिह्वाविज्ञान
कायविज्ञान
१. धवला, १.१.१.४-११५; मूलाचार, १०९१-९२; सर्वार्थसिद्धि, १.१४; २. १६-१९; गोम्मटसार-जीवकांड, १६५; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १ ।
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