Book Title: Jain evam Bauddh Tattvamimansa ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf

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Page 16
________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा: एक तुलनात्मक अध्ययन कुछ धातुएँ या रूप ऐसे होते हैं, जो स्वतः उत्पन्न हो जाते हैं। उन्हें अनिष्पन्न रूप कहा जाता है। इनकी संख्या दस है-परिच्छेद रूप आकाश, विज्ञप्ति द्वय ( कायविज्ञप्ति और वाग्विज्ञप्ति), विकाररूप तीन ( रूप की लघुता, मृदुता और कर्मण्यता ) तथा लक्षणरूप चार ( रूप का उपचय, संतति, जरता एवं अनित्यता )। ये परमार्थ सत् नहीं अपितु प्रज्ञप्तिसत् द्रव्य हैं। ___आकाशधातु परिच्छेदरूप है। वह चार प्रकार का है-१. अजराकाश, २. परिच्छिन्नाकाश, ३. कसिणुग्घाटिकाकाश और ४. परिच्छेदाकाश । इनमें अजराकाश जैनधर्म का अलोकाकाश है और शेष तीन प्रकार लोकाकाश के रूप में समाहित किये जा सकते हैं। विज्ञप्तिद्वय शरीरादि की हलन-चलन से संबद्ध हैं। बौद्धधर्म ने आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार कर उसे प्रज्ञप्तिसत् कह दिया । परिणामतः उसको हलन-चलन आदि क्रियाओं को भी प्रज्ञप्तिसत् कहना पड़ा। उसे विकार रूपों में भी अन्तर्भूत किया गया है। चित्त और मन इस प्रसंग में चित्त और मन पर विचार किया जाना अपेक्षित है। श्रमण साहित्य में दोनों शब्द लोकप्रिय रहे हैं, फिर भी बौद्धधर्म ने चित्त शब्द का प्रयोग अधिक किया है और जैनधर्म ने 'मन' का। बौद्धधर्म में चित्त के साथ ही मन और विज्ञान शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं-"चित्तं इति पि, मनो ति पि विज्ञाणं इति पि"।' जो कुशल-अकुशल कर्मों का संचय करता है, वह चित्त है (चिनोति)। यही चित्त मनन करता है (मनुते), जो अपर चित्त का आश्रयभूत है, यही चित्त अपने आलंबन को जानता है, जो इन्द्रिय और आलंबन पर आश्रित है। ये तीनों शब्द चित्त को विभिन्न अवस्थाओं को स्पष्ट करते हैं। यह चित्त रूप, शब्द, गन्ध, रस, स्पृष्टव्य तथा धर्म नामक विषयों पर उत्पन्न होता है तथा पुनः उत्पन्न होकर निरुद्ध हो जाता है । यही उसकी अनवरत प्रक्रिया उसकी चंचलता को सूचित करती है ।२ चित्त की शुद्ध और अशुद्ध अवस्था को स्पष्ट करते हुए बुद्ध ने मन को ही प्रधानता दी है। षड्विज्ञान और मन को मिलाकर सप्त धातुओं की बात कही गई है। विज्ञान की उत्पत्ति विषय और प्रसादरूप के संघट्टन से होती है। मन को आयतन, इन्द्रिय और द्वार भी कहा गया है। विज्ञानवाद में इस सिद्धान्त का कुछ और विकास हुआ, वहाँ विज्ञान को तीन भागों में विभाजित किया-आलयविज्ञान, मनोविज्ञान और प्रवृत्तिविज्ञान । इसका विवेचन आत्मा और कर्म का विवेचन करते समय किया जायगा । ___ जैनधर्म में चित्त, मन और विज्ञान का प्रयोग हुआ है। आत्मा का चैतन्य विशेष रूप परिणाम 'चित्त' कहलाता है। यह हेयोपादेय का विचार करता है। बोध, ज्ञान और चित्त ये तीनों १. संयुत्तनिकाय, भाग २, पृ० ९४ । २. फन्दनं चपलं चित्तं, दुरक्खं दुन्निवारयं-धम्मपद, चित्तवग्ग, १ । ३. मनो पुब्बंगमाघम्मा-धम्मपद, १. १-९ । ४. सर्वार्थसिटि, २.३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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