Book Title: Jain evam Bauddh Tattvamimansa ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf

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Page 20
________________ जैन एवं बौद्ध तत्त्वमीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन ४९ पंचोपादान स्कन्ध दुःख हैं और उस दुःख का आश्रयभूत आत्मा होना चाहिए, इसे भी माध्यमिक दर्शन नहीं मानता। वह कहता है कि दुःख ही नहीं, तो दुःख का आश्रयभूत आत्मा कहाँ से सिद्ध होगा। दुःख की सिद्धि उसके स्वयं कृतत्व, परकृतत्व उभयकृतत्व या अहेतुकत्व पर अवलंबित है, जो सिद्ध नहीं होता। माध्यमिक संप्रदाय में अनात्मवाद को शून्यवाद के माध्यम से सिद्ध किया गया है। चंकि उसकी दृष्टि में आध्यात्मिक अथवा बाह्य कोई भी पदार्थ उपलब्ध नहीं होता, इसलिए वस्तुतः पञ्चोपादान स्कन्ध में आत्मा को नहीं खोजा जा सकता। संसार का मूल सत्काय दृष्टि है । आत्मा उसका आलम्बन है। यदि आत्मा स्कन्धरूप है, तो उसका उत्पाद-व्यय मानना पड़ेगा और उसकी अनेकता को भी स्वीकार करना पड़ेगा। यदि आत्मा स्कंध व्यक्तिरिक्त है, तो उसका लक्षण उत्पाद-स्थिति-भंग नहीं कहा जा सकेगा । फलतः लक्षणविहीन होने से वह असंस्कृत और खपुष्प के समान हो जायगा । माध्यमिक कारिका और चतुःशतक में इस सिद्धान्त को प्रस्थापित किया गया है। बौद्धदर्शन में जिसे 'चित्त' कहा है, अन्य दर्शनों में वही आत्मा है। चित्त, चैतसिकों के मुख्य कार्य हैं-प्रतिसन्धि, भवंग, अवजन, दर्शन, श्रवण, घ्राण आस्वादन, स्पर्श संपरिच्छन, संसोरण, वोठ्ठपन ( व्यवस्थापन ), जवन तदालम्बन एवं च्युति ।' आत्मा भी यथासमय यही कार्य करता है। वसुबन्धु ने जिसे 'उपात्त' धातु कहा है, वह भी वस्तुतः आत्मा का प्रतीक है। उपात्त का अर्थ है-जिसे चित्त-चैत्त अधिष्ठान भाव से स्वीकृत करते हैं। इन्हें पाँच ज्ञानेन्द्रिय रूप भी कहा गया है। सर्वास्तवादियों ने बाह्यार्थ को प्रत्यक्ष माना, पर सौत्रान्तिकों ने उसे अनुमेय माना । योगाचार ने कुछ और आगे बढ़कर कहा कि जब बाह्यार्थ का प्रत्यक्ष ही नहीं होता, तो उसके अस्तित्व को स्वीकार करने की आवश्यकता हो क्या और फिर बाह्यार्थ की सत्ता ज्ञान पर अवलम्बित है, सो ज्ञान को ही क्यों न माना जाय । अतः योगाचार ने विज्ञान की ही वास्तविक सत्ता मानी, शेष सत्ता को निःस्वभाव तथा स्वप्न सदृश माना। माध्यमिकों ने आगे चलकर यह प्रस्थापित किया कि जब अर्थ का ही अस्तित्व नहीं तो ज्ञान मानने की भी क्या आवश्यकता? अतः उन्होंने शून्य को ही परमार्थ तत्त्व माना है। यहाँ 'आलयविज्ञान' वही काम करता है, जो आत्मा करता है। आत्मा का निषेध करने पर विज्ञानवाद को आलयविज्ञान की कल्पना करनी पड़ी। इसके मानने पर जीवितेन्द्रिय के मानने की भी आवश्यकता नहीं रह जाती । विज्ञानवाद में विज्ञान एक सामुदायिक परमाणु रूप है । वह रागादि धर्मों का और विलक्षण प्रमाणप्रमेय अधिगम रूपों का एक समुदाय मात्र है । उसका भेद नहीं किया जा सकता। उपनिषद् साहित्य में जैनधर्म के समान आत्मा को शरीर व्यापी माना गया है। परन्तु बृहदारण्यक में आत्मा को चावल अथवा यव के दाने के बराबर तथा कठोपनिषद् आदि में अंगुष्ठ १. अभिधम्मत्थसंगहो, ३.१८ । ३. राजवात्तिक, १.१.६८ । ५. कठोपनिषद्, २. २. १२ । २. अभिधर्मकोश, १.३४ । ४. कौषीतिकी, ४.२० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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