Book Title: Jain evam Bauddh Tattvamimansa ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf

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Page 27
________________ भागचंद जैन भास्कर के अस्तित्व का खण्डन किया है। इस प्रकार बौद्धधर्म में काल के अस्तित्व के विषय में दोनों परम्परायें रही हैं।' पाश्चात्य दार्शनिकों में भी कालवान प्रचलित रहा है। न्यूटन, देकार्ते, लाइवनीज़ आदि विद्वान् इस संदर्भ में अन्तनिरीक्षणवादी तथा यथार्थवादी हैं। बर्कले, ह्यम आदि दार्शनिक काल की बाह्यगत सत्ता को अस्वीकार करते हैं तथा उसे अमूर्त विचार मात्र मानते हैं । काण्ट काल को बुद्धिनिहित मानते हैं, जबकि हेगेल द्वयात्मक दृष्टिकोण से उपर्युक्त मतों में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं। जंबूद्वीप और उसका उत्तर कुरु क्षेत्र तत्त्वमीमांसा के संदर्भ में विचार करते समय 'जम्बूद्वीप' की परिकल्पना पर भी विचार किया जाना आवश्यक है। 'जम्बूद्वीप' भारतीय संस्कृति और साहित्य में एक सर्वमान्य भौगोलिक शब्द है, जिसकी परिधि सर्वसम्मत नहीं है। जैन-बौद्ध और वैदिक तीनों संस्कृतियों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि विशाल जम्बू वृक्ष की अवस्थिति के कारण इस महाद्वीप को 'जम्बूद्वीप' कहा गया है। पालि साहित्य में इसे जम्बूखण्ड, जम्बूवन और महापठवी" भी नाम दिये गये हैं। पुराणों में समची पृथ्वी को सात द्वीपों में विभक्त किया गया है-जम्बू, शाक, कुश, शाल्मल क्रौंच, गोमेद और पुष्कर। इनमें जम्बूद्वीप के नव वर्ष हैं, जिनमें भारतवर्ष एक है और भारतवर्ष भी नवद्वीपों में विभक्त है। जैन परम्परा में संपूर्ण पृथ्वी को 'जम्बूद्वीप' अभिधान दिया गया है। इसमें सात क्षेत्र हैंभरत, हेमवत, हरिवर्ष, विदेह, रम्यक्, हैरण्यवत् और ऐरावत । जम्बूद्वीप के १९० भागों में भरतक्षेत्र एक भाग है। जम्बूद्वीप, धातकी खण्ड और पुष्करार्ध अर्थात् ढाई द्वीपों में ही मनुष्य रहते हैं। तिथंच समस्त मध्यलोक में तथा स्थावर जीव समस्त लोक में भरे हुए हैं। जम्बूद्वीप का तारामण्डल दस हजार योजन व्यास वाले सुदर्शन मेरु को तारामण्डल ११२ योजन दूरी पर प्रदक्षिणा करता है। दो चन्द्र और दो सूर्य परस्पर विरोधी दिशा में सुमेरु पर्वत के मध्य से ४९८२० और और ५०३३० योजन दूरी पर दो दिनों में एक प्रदक्षिणा देते हैं तथा सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायन और दक्षिणायन से उत्तरायण (४९८२० व ५०३३ योजनों के मध्य में) १८३ दिन में भ्रमण करता है। इस प्रकार सौरवर्ष ३६६ दिनों का होता है। तारामण्डल को हम इस प्रकार समझ सकते हैं १. विशेष देखिये, लेखक की पुस्तक 'बौद्धसंस्कृति का इतिहास', पृ० १५३-१५८ । २. देखिए-पुराण साहित्यः विनय पिटकः परमत्थजोतिका, भाग २, पृ० ४४३ । ३. सुत्तनिपात सेलसुत्त । ४. पयंथसूदनी, भाग २, पृ० ४२३ । ५. दीघनिकाय, महागोविन्दसुत्त । ६. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, पृ० ९०-१००। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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