Book Title: Jain evam Bauddh Tattvamimansa ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf

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Page 23
________________ भागचंद जैन भास्कर बौद्धधर्म में कर्म की परिपूर्णता के लिए चार बातों की आवश्यकता बताई गई है१. प्रयोग (चेतना कर्म, अर्थात् इच्छा ) २ मौल प्रयोग ( कार्य प्रारम्भ ) ३. मौल कर्मपथ (विज्ञप्ति कायकर्म तथा शुभ-अशुभरूप अविज्ञप्ति कर्म ) तथा ४. पृष्ठ ( कर्म करने के उपरान्त शेष कर्म ) ये दोनों कर्म भावों के अनुसार शुभ और अशुभ होते हैं । जैनधर्म के द्रव्यकम और भावकम की तुलना किसी सीमा तक इनसे की जा सकती है। बौद्धधर्म में भी मुख्य कर्म चेतना कर्म माना गया है। उसे चित्त सहगत धर्म कहा है। मानसिक धर्म उसकी अपरसंज्ञा है । यह चेतना चित्त को आकार विशेष प्रदान करती है और प्रतिसन्धि (जन्म ) के योग्य बनाती है। चेतना के कारण ही शुभाशुभ कर्म होते हैं और तदनुसार ही उनका फल होता है । यह मनसिकार दो प्रकार का है १. योनिशो मनसिकार (अनित्य को अनित्य तथा अनात्म को अनात्म मानना) . २. अयोनिशो मनसिकार (अनित्य को नित्य तथा नित्य को अनित्य मानना) जैनधर्म की परिभाषा में इनमें से प्रथम कर्म सम्यक्त्व और दूसरा मिथ्यात्व है। मानसिक, वाचिक और कायिक कर्म को यहाँ 'योग' कहा गया है। जिससे आठ कर्मों का छेद हो, वे कृति कर्म हैं और जिनसे पुण्य कर्म का संचय हो, वे चित्कर्म हैं । बौद्धधर्म के समान जैनधर्म में भी चेतना कर्म है, जिसे भाव विशेष कहा गया है। वह कुशल-अकुशल के समान शुद्ध-अशुद्ध होती है। चेतना कम के दो रूप हैं-दर्शन और ज्ञान । चेतना, अनुभूति, उपलब्धि और वेदना ये सभी शब्द समानार्थक हैं। योनिशो मनसिकार को ज्ञानचेतना और अयोनिशो मनसिकार को अज्ञानचेतना कह सकते हैं। सम्यग्दृष्टि को ही ज्ञान चेतना होती है और मिथ्यादृष्टि को कर्म तथा कर्मफल चेतना होती है।' जैनधर्म के ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म जैसे कर्म बौद्धधर्म में नहीं दिखते । ज्ञान और दर्शन आत्मा के गुण हैं। बौद्धधर्म आत्मा को मानता नहीं, अतः इन गुणों के विषय में वहाँ अधिक स्पष्ट विवेचन नहीं मिलता। शोभन चैतसिक वेदनीय कर्म के अन्तर्गत रखे जा सकते हैं। मोह, आहीवत्य अनपत्राप्य, औद्धत्य, लोभ, दृष्टि, मान, द्वेष, ईर्ष्या, मात्सर्य, कौकृत्य, स्त्यान, मिद्ध एवं विचिकित्सा ये चौदह अकुशल चैतसिक हैं। इन चैतसिकों की तुलना जैनधर्म के भावकर्म से की जा सकती हैं । मोहनीय कर्म के अन्तर्गत ये सभी भावकर्म आ जाते हैं। बौद्धधर्म के अकुशल कर्म मोहनीय कर्म के भेद-प्रभेदों में समाहित हो जाते हैं। जीवितेन्द्रिय जैनधर्म का आयकर्म है, जिसे 'सर्वचित्त साधारण' कहा गया है। नामकर्म की प्रकृतियां भी बौद्धधर्म में सरलतापूर्वक मिल जाती हैं। शोभन चैतसिकों में श्रद्धा आदि शोभन साधारण, सम्मा वाचा आदि तीन विरतियाँ तथा करुणा, मुदिता दो अप्रामाण्य चैतसिक जैनधर्म के सम्यग्दर्शन के गुणों में देखे जा सकते हैं। अकुशल कर्मों की समाप्ति होने पर हो साधक श्रद्धा, स्मृति, ह्री, अपत्राप्य, अलोभ, अद्वेष, तत्रमध्यस्थता आदि गुणों की प्राप्ति करता है। ऐसे ही समय सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। यहाँ दर्शन १. प्रवचनसार, १२३-१२४; पञ्चाध्यायी, २२३, ८२३-२३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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