Book Title: Jain aur Vaidik Parampara me Vanaspati Vichar Author(s): Kaumudi Baldota Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 4
________________ ७० अनुसन्धान-४० मान्यतानुसार वनस्पति तीनों लोकों में है । आज उपलब्ध ज्ञान के आधारपर वैज्ञानिकों ने उनका अस्तित्व केवल पृथ्वी पर ही होने के संकेत दिये हैं। क्योंकि पानी के आधार पर ही वनस्पति सृष्टि उत्पन्न होती है और पानी केवल पृथ्वी पर ही है ।। दोनों परम्पराओं ने वनस्पति का समावेश तिर्यंचगति या तिर्यंचयोनिर० में किया हैं । और उनका स्थावरत्व१९ भी मान्य किया है । (४) वनस्पति में जीवत्व : जैन मान्यतानुसार वनस्पति जीवद्रव्य है ।१२ वनस्पतिकायिक सुप्त चेतनावाले है किन्तु जागृत नहीं है और सुप्त जागृत भी नहीं हैं ।१३ स्त्यानगृद्धि निद्रा के सतत उदय से वनस्पतिकायिक जीवों की चेतना बाहरी रूप में मूच्छित होती है ।१४ वनस्पति का मूल जीव एक है और वह वनस्पति के परे शरीर में व्याप्त है लेकिन वनस्पति के सभी अवयवों में भी अलगअलग जीवों का होना मान्य किया है ।१५ वैदिकों के अनुसार वनस्पति सजीव सृष्टि का एक अचर प्रकार हैं। 'उच्चनीच' की दृष्टि से किये हुये सृष्ट पदार्थों की वर्गवारी में उन्हें प्राणियों से नीच माना है ।१६ सांख्यकारिका में भौतिक सर्ग का कथन करते हुए कहा है कि देवयोनि का सर्ग आठ प्रकार का है। तिर्यंच योनि का सर्ग पाँच प्रकार का है अर्थात् गाय, भैंस आदि पशु, हरिण इत्यादि मृग, पक्षी, सर्प और वृक्षादि स्थावर पदार्थ । और मनुष्यसर्ग एक प्रकार का है।१७ वैज्ञानिक दृष्टि से सृष्टिव्युत्पत्ति के क्रम में पहली सजीव-निर्मिती वनस्पति ९. अणुयोगद्वार सूत्र २१६(३) १०. सांख्यकारिका ५३ ११. सांख्यकारिका ५३ का प्रकाश; उत्तराध्ययन ३६.६९ १२. उत्तराध्ययन ३६.६९ १३. भगवती १६.६.३-८ १४. भगवती १९.३५ की टीका १५. सूत्रकृतांग २.७-८; उत्तराध्ययन ३६.९३ १६. भारतीय संस्कृतिकोश १७. सांख्यकारिका ५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16