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अनुसन्धान-४०
के लिए इस्तेमाल करने में कोई दिक्कत नहीं लगती । वैदिकों ने आयुर्वेद को पंचम वेद का दर्जा दिया है ।४५
जैन दर्शन के अनुसार आयुष्य बढ़ाने की बात बिलकुल गलत धारणा पर आधारित है। आयुष्य की कालावधि 'आयुष्कर्म' पर निर्भर होने के कारण उसको बढाने के लिए कोई प्राश या कल्प लेना उन्हें मंजूर नहीं है। दूसरी बात रही रोगनिवारण की । कर्मसिद्धान्त के अनुसार रोगों की वेदनायें हमारे ही कृत कर्मों का विपाक है ।४६ उनका वेदन करने से कर्मनिर्जरा होती है । वेदना बहुत ही ज्यादा असहनीय हो तो औषधयोजना की जा सकती है । लेकिन उसके लिए वनस्पति के प्रासुक अवयव हम उपयोग में ला सकते हैं । हरेभरे जीवित वृक्ष के पत्ते, छाल, मूल आदि अवयव औषध बनाने के लिए अनुमत नहीं है । उपसंहार
जैन और वैदिकों के वनस्पतिविषयक विचार तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण इन तीनों का एकत्रित विचार करके निम्नलिखित तथ्य सामने आते हैं । * तीनों ने वनस्पति का समावेश जीवविभाग में किया है और वनस्पति __ चेतना का निर्देश प्राय: ‘सुप्तचेतना' इस शब्द से ही किया है । * वैदिको ने आत्मा से आरम्भ करके क्रमबद्धता से वनस्पति का विकास
सूचित किया है । आत्मविचार को छोडकर अगले का क्रम वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मेल खाता है । जैन ग्रन्थों में पाँच प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों का उल्लेख किया गया है । वनस्पतिकायिक के जीवत्व का आधार प्रथम चार एकेन्द्रिय जीव माने हैं । लेकिन पहले चारों की एक दूसरे से उत्पत्ति
का निर्देश नहीं किया है ।। * दोनों परम्पराओं में निर्दिष्ट वनस्पतियोनि-संख्या वैज्ञानिक दृष्टि से मेल
खाती है। * दोनों मान्यताओं के अनुसार वनस्पतिसृष्टि तीनों लोकों में हैं । आज
४५. भारतीय संस्कृति कोश ४६. तत्त्वार्थसूत्र ८.५
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