Book Title: Jain aur Vaidik Parampara me Vanaspati Vichar
Author(s): Kaumudi Baldota
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 15
________________ जुलाई - २००७ आयुष्यकर्म से निगडित है तथा अगर अत्यावश्यक हो तो रोगनिवारण सिर्फ प्रासुक औषधियों से किया जाता I निष्कर्ष उपसंहार में निर्दिष्ट मुद्दों के आधार से हम इस निष्कर्ष तक पहुँचते हैं कि इन्द्रियों की दृष्टि से जैन और वैदिक परम्परा में किया हुआ वनस्पति विचार प्रायः आज के वनस्पतिशास्त्रविषयक तथ्यों से मिलता जुलता है। दोनों परम्पराओं के विचार लगभग ईसवीपूर्व काल के हैं । केवल चिन्तन और निरीक्षण के आधार पर उन्होंने किया हुआ विश्लेषण काफी सराहनीय है । जैन परम्परा वनस्पतिसृष्टिकी ओर हिंसा-अहिंसा की दृष्टि केन्द्रस्थान में रखते हुये देखती है । इस परम्परा ने वनस्पतियों को 'एकेन्द्रिय' कहा हैं तथापि एकेन्द्रिय होना उनके स्वतन्त्र जीव होने में बाधारूप नहीं है । इन्द्रियों की पर्याप्तियों को देखकर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक जीव हैं तथापि जीवत्वरूप से सभी में समानता है । एकेन्द्रिय जीव कम दर्जावाला और पंचेन्द्रिय मनुष्य श्रेष्ठ दर्जावाला नहीं है। वनस्पतिकायिक जीव मनुष्य रूप में आ सकता है और मनुष्य भी वृक्षरूप में परिणत हो सकता है । यद्यपि वनस्पति की चेतना सुप्त है तथापि मनुष्य को बिलकुल हक नहीं है कि वह उनको दुःख पहुँचाये । आचारांग और सूत्रकृतांग के उपर्युक्त सन्दर्भ इस पर अच्छा प्रकाश डालते हैं । उत्तरोत्तर प्राकृत साहित्य में वनस्पतिविषयक चर्चा की गहराई बढती गई । वनस्पति का आहार से निकट सम्बन्ध होने के कारण आहारचर्चा और खासकर निषेधचर्चा बढती गयी | श्रावकों के लिए 'वणकम्म' तथा 'इंगालकम्म' आदि वनस्पतिसम्बन्धिव्यवसाय निषिद्ध माने गये । चित्रकारी में भि उन्होंने वनस्पतिजन्य रंगों का उपयोग नहीं किया । आयुर्वेद में वनस्पति को काँट कर कूटकर, घोलकर उबालकर औषध बनाये जाते हैं । इसलिए इस शाखा का विस्तार और प्रचार जैन परम्परा में नहीं हुआ । परिणाम स्वरूप जैनियों ने वनस्पतिसृष्टि को हानी तो नहीं पहुँचायी लेकिन साथसाथ वृक्षारोपण, वृक्षसंवर्धन, बगीचे बनाना आदि क्रियाओं में भी वे सहभागी नहीं हुये । वनस्पति की ओर उन्होंने भावनात्मक और नैतिकता के दृष्टिकोण से देखा । Jain Education International ८१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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