Book Title: Jain aur Vaidik Parampara me Vanaspati Vichar
Author(s): Kaumudi Baldota
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 2
________________ ६८ अनुसन्धान-४० विषय (व्याप्ति तथा मर्यादा) : दोनों परम्पराओं में वनस्पतियों के बारे में इतना अलग-अलग व्यवहार और मान्यताएँ क्यों हैं ? तत्त्वप्रधान तथा आचारप्रधान ग्रन्थों में इसका रहस्य निहित है । इस शोधनिबन्ध में वनस्पति की सजीवता तथा वनस्पति में इन्द्रियों की उपस्थिति इन मुद्दों को ध्यान में रखकर छानबीन की गयी है । जैनियों के प्राचीन ग्रन्थ प्राकृत में होने के कारण तथा प्राकृत की विद्यार्थिनी होने के नाते मुख्यत: आचारांग, सूत्रकृतांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, प्रज्ञापना, जीवाजीवाभिगम और त्रिलोकप्रज्ञप्ति, मूलाचार एवं गोम्मटसार (जीवकाण्ड) ये शौरसेनी ग्रन्थ वनस्पतिविवेचन के बारे में आधारभूत मानकर विश्लेषण का प्रयास किया है। वैदिक परम्परा के दर्शन ग्रन्थों में केवल सांख्य-दर्शन में वनस्पति विचार है । वह भी अत्यल्प मात्रा में है। चारों वेद, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषदों में वनस्पति और औषधियों का जिक्र तो किया है लेकिन तात्त्विक विश्लेषण बहुत कम है । उपनिषदों में दिया हुआ सृष्टि के आविर्भाव का क्रम काफी लक्षणीय है । वनस्पति की स-इन्द्रियता और निरिन्द्रियता की चर्चा महाभारत के शान्तिपर्व के एक संवाद में काफी हद तक की गई है। चरकसंहिता में वनस्पतियों का वर्गीकरण, नाम तथा गुणधर्म विस्तार से दिये हैं, औषधियाँ बनाने की प्रक्रियाएँ भी विपुल मात्रा में दी हैं, लेकिन उनकी सजीवता, इन्द्रियाँ होना या न होना इनका जिक्र बिलकुल ही नहीं है । निघण्टु तो वनस्पतिसूचि है। इस निबन्ध को वैज्ञानिक मूल्य प्राप्त कराने हेतु विशेष प्रयास किये हैं । वनस्पतिशास्त्र के प्राध्यापकों से इस विषय की विस्तृत चर्चा की है। बॉटनी तथा इकॉलॉजी के ग्रन्थों की नामावली सन्दर्भग्रन्थसूचि में दी है । (१) वनस्पति की उत्पत्ति वैदिकों ने सृष्टि की उत्पत्ति का विशिष्ट क्रम स्वीकार किया है । 'आत्मनः आकाशः सम्भूतः । आकाशाद्वायुः । वायोरग्निः । आनेरापः । अद्भयः पृथिवी । पृथिव्या ओधषयः । ओषधीभ्यः अन्नं । अन्नात् पुरुषः ।' यह क्रम १. तैत्तिरीय उपनिषद् २.१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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