Book Title: Jain Yog
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 12
________________ इनका अर्थ भी शेष ग्रंथों से भिन्न है । भाष्यकार के अनुसार छद्मस्थ (आवृतज्ञानी), केवली (अनावृतज्ञानी) और सिद्ध-ये तीन ध्येय हैं । एतद् विषयक ध्यान को क्रमशः, पिंडस्थ, पदस्थ और रूपातीत कहा जाता है । उस समय ध्यान के इन प्रकारों से जन-मानस बहुत परिचित हो गया था, इसलिए जैन आचार्यों के लिए भी इनका स्वीकार आवश्यक हो गया था, ऐसा प्रतीत होता है। इसी (ग्यारहवीं) शताब्दी में सोमदेवसूरी ने भी योग के विषय में कुछ लिखा था । उनका योगसार ग्रंथ बहुत ही मार्मिक है । यशस्तिलकचम्पू के ३९ और ४०वें कल्प में उन्होंने योग विषयक चर्चा प्रशस्त पद्धति से की है। इस शताब्दी के ग्रंथों में पार्थिवी, वारुणी, तैजसी', वायवी और तत्त्वरूपवती (तत्त्वभू)-इन पांच धारणाओं की भी मान्यता मिलती है । तत्त्वानुशासन में केवल तीन धारणाओं का उल्लेख मिलता है। बारहवीं शताब्दी में आचार्य हेमचन्द्र ने 'योगशास्त्र' की रचना की । उसमें योग और रत्नत्रयी की एकात्मकता प्रतिपादित हुई है । उसमें आचार्य हेमचन्द्र ने योग की पारम्परिक पद्धति का भी निरूपण किया है । स्वानुभव के आधार पर उन्होंने मन के चार रूप प्रस्तुत किए हैं १. विक्षिप्त ३. श्लिष्ट २. यातायात ४. सुलीन तेरहवीं शताब्दी में पंडित आशाधरजी की कृति 'अध्यात्म-रहस्य' प्राप्त होती है | ग्रंथकार ने आध्यात्मिक रहस्यों का व्यवस्थित पद्धति से प्रतिपादन किया है। पन्द्रहवीं शताब्दी की एक कृति मुनिसुन्दरसूरी की है । उसका नाम 'अध्यात्म कल्पद्रुम' है | इसकी शैली प्रक्रियात्मक कम, उपदेशात्मक अधिक है। अठारहवीं शताब्दी में विनयविजयजी ने 'शान्तसुधारस' की रचना की। भावनायोग की यह सुन्दर कृति है | इसी शताब्दी में उपाध्याय यशोविजयजी १.तत्त्वानुशासन १८३ : "तत्रादौ पिण्डसिद्ध्यर्थं, निर्मलीकरणाय च । मारुतीं तैजसीमायां विदध्याद् धारणां क्रमात् ।।" "चतुर्वर्गेऽग्रमोक्षो योगस्तस्य च कारणम् । ज्ञानश्रद्धानचारित्ररूपरत्नत्रयं च सः ।" २. योगशास्त्र १/१५ : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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