Book Title: Jain Tarka Bhasha Author(s): Yashovijay Upadhyay, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad View full book textPage 8
________________ ान च इ पूर्व सिंघी जैन ग्रन्थमाला में जितने प्रन्थ प्रकाशित हुए वे मुख्यतया इतिहास विषयक हैं; प्रस्तुत ग्रन्थके प्रकाशनके साथ, प्रन्थमाला दर्शन विषयक साहित्य के प्रकाशन कार्यका प्रशस्य प्रारम्भ करती है । माला के मुख्य सम्पादकत्व और सचालकत्व के सम्बन्धसे, यहाँ पर कुछ वक्तव्य प्रकट करना हमारे लिये प्रासंगिक होगा । जैसा कि इस ग्रन्थमाला के प्रकाशित सभी प्रन्थोंके प्रधान मुखपृष्ठ पर इसका कार्यप्रदेशसूचक उल्लेख अङ्कित किया हुआ है-तदनुसार इसका जैनसाहित्योद्धार विषयक ध्येय तो बहुत विशाल है। मनोरथ तो इसका, जैन- प्रवचनगत 'आगमिक, दार्शनिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, कथात्मक' इत्यादि सभी विषयके महस्वके ग्रन्थोंका, विशिष्टरूपसे संशोधनसम्पादन कर यथाशक्य उन्हें प्रकाशित करनेका है । परन्तु सबसे पहले अधिक लक्ष्य हमने इतिहास विषयक साहित्यके प्रकाशित करने पर जो दिया है, उसके दो प्रधान कारण हैं। प्रथम तो यह कि इस विषय पर हमारी, अपने अध्ययनकालके प्रारम्भ ही से कुछ विशेष प्रीति रही और उससे इस विषय में हमारी कुछ थोड़ी-बहुत गति भी उल्लेख योग्य हुई | इस इतिहासान्वेषण से हमारी कुछ बौद्धिक सीमा भी विस्तृत हुई और असांप्रदायिक दृष्टि भी विकसित हुई। हमारे स्वानुभवकी यह प्रतीति है कि इस इतिहास विषयक साहित्यके अध्ययन और मननसे जो कुछ तत्त्वावबोध हमें प्राप्त हुआ उससे हमारी बुद्धिकी निरीक्षण और परीक्षण शक्ति में विशिष्ट प्रगति हुई और भूतकालीन भावोंके स्वरूपको समझने में वह यत्किंचित् सम्यग् दृष्टि प्राप्त हुई जो अन्यथा अप्राप्य होती । इस स्वानुभवसे हमारा यह एक दृढ़ मन्तव्य हुआ कि भूतकालीन कोई भी भाव और विचारका यथार्थ अवबोध प्राप्त करने के लिये सर्व-प्रथम तत्कालीन ऐतिहासिक परिस्थितिका सम्यग् ज्ञान प्राप्त होना परमावश्यक है । जैन ग्रन्थभण्डारों मैं इस इतिहासान्वेषणके उपयुक्त बहुत कुछ साहित्यिक सामग्री यत्र तत्र अस्त-व्यस्त रूपमें उपलब्ध होती है, लेकिन उसको परिश्रमपूर्वक संकलित कर, शास्त्रीय पद्धतिसे व्यवस्थित कर, अन्यान्य प्रमाण और उल्लेखादिसे परिष्कृत कर, आलोचनात्मक और ऊहापोहात्मक टीकाटिप्पणीयोंसे विवेचित कर, विद्वग्राह्य और जिज्ञासुजनगम्य रूपमें उसे प्रकाशित करनेका कोई विशिष्ट प्रयत्न अभी तक जैन जनताने नहीं किया । इसलिये इस ग्रन्थमालाके संस्थापक दानशील श्रीमान् बाबू श्रीबहादुर सिंहजी सिंधी - जिनको निजको भी हमारे ही जैसी, इतिहासके विषय में खूब उत्कट जिज्ञासा है और जो भारतके प्राचीन स्थापत्य, भास्कर्य, चित्र, निष्क एवं पुरातत्व के अच्छे मर्मज्ञ हैं और लाखों रूपये व्यय कर जिन्होंने इस विषयकी अनेक बहुमूल्य वस्तुएँ संगृहीत की है उनका समानशील विद्याव्यासंगपरक सौहार्दपूर्ण परामर्श पाकर, सबसे पहले हमने, जैन साहित्यके इसी ऐतिहासिक अङ्गको प्रकाशित करने का उपक्रम किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 110