Book Title: Jain Stotra Sahitya Ek Vihangam Drushti Author(s): Gadadhar Sinh Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 4
________________ % A र यद्यपि ज्ञान बुद्धि का विषय है फिर भी हृदय ३. आराध्य के समक्ष आत्म-निवेदन तथा का भाव-बोध देकर हो सन्तों ने उसे स्वीकार किया लौकिक-पारलौकिक फल-प्राप्ति की कामना । निगेणियां सन्तों ने भक्ति की आधारशिला ४. दार्शनिक सिद्धान्तों का निरूपण । पर ही अपनी साधना का प्रासाद निर्मित किया ५. काव्य-प्रतिभा का प्रदर्शन जैनस्तोत्र-परम्परा ज्ञान को भक्ति का आलम्बन स्वीकार करने में जैन स्तोत्र-परम्परा प्रारम्भ में स्तोत्र और सबसे बडी बाधा यह बताई जाती है कि भक्ति द्वैत स्तव के बीच भेद करती थी। शान्तिसरि ने 'स्तव' If बुद्धि पर आधारित होती है किन्तु आत्म-साक्षा- को संस्कृत में तथा 'स्तोत्र' को प्राकृत में निर्मित त्कार के उपरान्त सभी प्रकार की दतबुद्धि या माना है। सभी प्रकार के भेद नष्ट हो जाते हैं। फिर वहाँ आचार्य नेमिचन्द के गोम्मटसार कर्मकाण्ड भक्ति की कामना ही कैसे हो सकती है ? प्रकरण में कहा गया है कि 'स्तव' में वस्तु के सर्वांग ___आद्य शंकराचार्य ने 'त्रिपुर सुन्दरी रहस्य का और स्तुति में एक अंग का विवेचन विस्तार या (ज्ञान खण्ड) में इस पर विचार किया है। उनका संक्षेप से रहता है। वस्तुतः ये भेद प्रारम्भिक कहना है कि यह सत्य है कि उस समय अभेदज्ञान अवस्था में कुछ दिनों तक भले रहे हों किन्तु बाद में हो जाता है किन्तु भक्त आहार्य ज्ञान द्वारा भेद की यह अन्तर समाप्त हो गया और दोनों एकार्थवाची कल्पना कर लेता है। इस प्रकार की भेद-बुद्धि औरत हो गए। बन्धन का कारण नहीं होती बल्कि सैकड़ों मुक्तियों प्राकृत-स्तोत्र-साहित्य से भी बढ़कर आनन्दप्रद होती है । दूसरी बात यह जैन-साहित्य में स्तोत्र-परम्परा मूल आगमों से है कि आत्मस्वरूप का ज्ञान होने के पूर्व द्वैतभाव ही प्रारम्भ होती है । आगमों में तीर्थंकरों की स्तुति कर बन्धन का कारण होता है किन्तु विज्ञान के बाद सुन्दर एवं आलंकारिक शैली में की गयी है और भेद-मोह के निवृत्त होने पर भक्ति के लिए भावित देवों द्वारा १०८ पद्यों में स्तुति करने का निर्देश द्वैत अद्वैत से भी उत्तम है । दिया गया है। प्राकृत स्तोत्रों में गौतम गणधर का यही कारण है कि यद्यपि जैनधर्म ज्ञान-प्रधान 'जय तिहुअण स्तोत्र सबसे अधिक प्राचीन है। है किन्तु भक्तिशून्य नहीं है। जैन भक्तों, कवियों भगवान महावीर के समवशरण में प्रविष्ट होते एवं दार्शनिकों ने विपूल परिमाण में स्तोत्र-ग्रन्थों समय गौतम ने इसी स्तोत्र से उनकी अभ्यर्थना की की रचना की है। ये स्तोत्र अर्हन्त, गुरु, सिद्ध, पंच थी। परमेष्ठि आदि से सम्बन्धित हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने चीबीस तीर्थ करों की स्तुति में 'तित्थयर सुदि' की रचना की - इन स्तोत्रों में निम्न तथ्यों की सर्वांगपूर्ण विवे थी जिसे श्वेताम्बर समाज में 'लोगस्स सुत्त' कहते हैं चना हुई है १. आराध्य के स्वरूप की सौंदर्यपूर्ण व्यंजना भयहर स्तोत्र मानतुग सूरि विरचित है। २. आराध्य की लीलाओं का गान इसके २१ पद्यों में भगवान पार्श्वनाथ की भक्ति १ प्रकाशक-जैन प्रभाकर प्रिंटिंग प्रेस, रतलाम जन स्तोत्र संदोह (द्वितीय भाग), चतुरविजय सम्पादित, अहमदाबाद पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 1630 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ www.jainelibretterPage Navigation
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