Book Title: Jain Stotra Sahitya Ek Vihangam Drushti
Author(s): Gadadhar Sinh
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ADAV.. . डा० गदाधर सिंह विश्वविद्यालय प्रोफेसर स्नातकोत्तर हिन्दी-विभाग ह० या० जैन कालेज, आरा । जैन-स्तोत्र-साहित्य : एक विहंगम दृष्टि 2 अकम ज्ञान, कर्म और उपासना-ये तीनों भारतीय श्रद्धा से ही सत्य स्वरूप परमात्मा प्राप्त होता है। साधना के सनातन मार्ग रहे हैं। ज्ञान हमें कर्म- स्तुति का महत्व । अकर्म से परिचित करा शाश्वत लक्ष्य का बोध 'भक्ति रसायन' में लिखा कराता है, कर्म उस लक्ष्य तक पहुँचने का प्रयास काम क्रोध भय स्नेह हर्ष शोक दयादयः । करता है और उपासना के द्वारा हम उस लक्ष्य के पास बैठने तथा उससे तादात्म्य-भाव स्थापित ताप काश्चित्तजतुनस्तच्छान्तौ कठिनं तु तत् ॥ करने में समर्थ होते हैं। इन तीनों के सम्मिलित चित्त को लाख के समान कहा जाता है। वह (8 रूप को ही भक्ति कहते हैं। स्तोत्र या स्तवन उसी काम, क्रोध, भय, स्नेह, हर्ष, शोक आदि के संसर्ग IIKC भक्ति का एक अंग है। में आते ही पिघल जाता है। जिस प्रकार पिघली स्तुति म गुण कथनम् ॥ -महिम्न-स्तोत्र की हुई लाक्षा में रंग घोल देने पर, वह रंग लाक्षा के टीका (मधुसूदन सरस्वती)। कठोर होने पर भी यथावत् रहता है, उसी प्रकार गुणों के कथन का नाम स्तुति है। द्रवित चित्त में जिन संस्कारों का समावेश हो गुण कथन तो चारण या भाट भी करते हैं जाता है, वे संस्कार चित्त के भीतर अपना अक्षुण्ण ARRY) किन्तु वह स्तुति नहीं है । प्राकृत जन या नाशवान स्थान बना लेते हैं। मनोविज्ञान की भाषा में इन्हें तत्त्वों की प्रशंसा स्तुति नहीं है, वरन् सत्य स्वरूप ही 'वासना' कहते हैं। भगवान् के दिव्य मंगलपरमात्मा की प्रशंसा ही स्तुति के अन्तर्गत आयेगी। विग्रह के दर्शन से, उनकी लीलाओं के श्रवण से सत्यमिद्वा उतं वयमिन्द्र स्तवाम् नानृतम् ।। तथा उनके स्वरूप का ध्यान करने से चित्त भी एक विशेष रूप में द्रवीभूत हो जाता है और इस -ऋग्वेद ८/५१/१२. हम उस भगवान् की स्तुति करें, असत्य पदार्थों प्रकार का द्रवीभाव व्यक्ति को लोकोत्तर आनन्द की दिशा में अभिप्रेरित करता है। स्तोत्र का ||KE की नहीं। तमुष्टवाम् य इमा जनान् ॥ -ऋग्वेद ८/८/६ महत्व इसी रूप में है। हम उस भगवान् की स्तुति करें जिसने यह स्तोत्र के माध्यम से भक्त आराध्य के गुणों का सारी सृष्टि उत्पन्न की है। स्मरण करता है और उनके स्मरण से उसमें उन्हीं , ___इस स्तुति या प्रशंसा के पीछे हृदय की उदात्त गणों को अपनाने की प्रेरणा उत्पन्न होती है। वृत्ति श्रद्धा मिली रहती है-श्रद्धया सत्यमाप्यते आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि प्रार्थना से भक्त । (यजु० १६।३०)। भगवान के गुणों को पा लेता हैपचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास ३६३ Foad साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Valleducation Internationar Yor Private & Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्म यह सत्य है कि जैन-दर्शन के अनुसार मोक्ष की पाई ज्ञातारं विश्वतत्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ प्राप्ति के लिए जीव को अपने पुरुषार्थ के अतिरिक्त ___ अर्थात् मोक्षमार्ग के नेता, कर्मरूपी पर्वतों किसी बाहरी सहायता की अनिवार्यता नहीं है PRER का भेदन करने वाले वीतरागी, विश्व के तत्वों को किन्तु यह भी सत्य है कि जैसे दर्पण में मुंह देखने से जानने वाले सर्वज्ञ, आप्त (अर्हन्त) की भक्ति उन्हीं मनुष्य अपने चेहरे की विकृति को यथावत् देख के गुणों को पाने के लिए करता हूँ। सकता है और देख लेने के उपरान्त उसे दूर करने जैनधर्म में भक्ति का स्वरूप का प्रयत्न कर सकता है, उसी प्रकार जैनधर्म मानता है कि परमात्मा के दर्शन से हम अपने मनजैनधर्म आचार और ज्ञान-प्रधान धर्म है। वचन की विकृति को दूर करके अपने वास्तविक इसमें जीव अपने कर्मों का कर्ता-भोक्ता स्वयं ही स्वरूप में प्रतिष्ठित हो सकते हैं । यद्यपि जीव कर्म है। जैन-दर्शन में आत्मा को स्वतन्त्र सत्ता स्वीकृत करने में स्वतन्त्र है किन्तु परमात्मा की स्तुति उसे की गई है। आत्म-स्वरूप की उपलब्धि की उच्च शुभ कर्म करने की प्रेरणा देती है। प्रार्थना से वह तम अवस्था ही मोक्ष है। जीव अपने बंधाबंध के __मल नष्ट हो जाता है और अन्तःकरण शुद्ध एवं लिए स्वयं उत्तरदायी है। इसी आधार पर कुछ स्वच्छ हो चमकने लगता है। कल्याण मन्दिर स्तोत्र लोगों का तर्क है कि यदि आत्म-पूरुषार्थ से ही (८) में कहा गया हैजीव अपने कर्मों का क्षय कर सकता है तो उसे । हृतिनि त्वयि विभो ! शिथिली भवन्ति भगवत्-अनुग्रह की क्या आवश्यकता ? जन्तोः क्षणेन निविडा अपि कर्मबन्धाः । एक तथ्य और है जिससे जैनधर्म को भक्ति सद्यो भुजङ्गममया इव मध्यभाग, विरोधी प्रमाणित किया जाता है। भक्ति के मूल मभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य ।। में राग है। ज्ञाता के हृदय में ज्ञय के प्रति जब तक राग की भावना नहीं आती तब तक भक्ति का हे कर्म बन्ध विमुक्त जिनेश ! जैसे जंगली र उद्भव नहीं हो सकता। भक्ति का अर्थ परात्म- मयूरों के आते ही चन्दनगिरि के सुगन्धित चन्दन विषयक अनुराग ही है-सा परानुरक्तिरीश्वरे वृक्षों में लिपटे हुए भयंकर भुजंगों की दृढ़ कुण्ड(शांडिल्य सूत्र १/१/२)। जैन-दर्शन में किसी भी लियाँ तत्काल ढीली पड़ जाती हैं, वैसे ही जीव के प्रकार के राग को आस्रव का कारण माना गया मन-मन्दिर के उच्च सिंहासन पर आपके अधिष्ठित है। अतः इस तर्क के आधार पर भक्ति भी बन्धन होते हो अष्ट कर्मों के बन्धन अनायास ही ढीले पड़ का ही कारण सिद्ध होती है। जाते हैं। आचार्य समन्तभद्र जिन्हें 'आद्य स्तोतकार' होने तोसरी बात यह है कि जब तक भक्ति का आलम्बन सगुण और साकार नहीं होता तब तक का गौरव प्राप्त है लिखते हैंभक्ति सिद्ध नहीं हो सकती। यद्यपि जैनधर्म में त्वदोष शान्त्या विहितात्म शान्ति भक्ति के आलम्बन अर्हत, सिद्ध आदि सगुण और शान्तेविधाता शरणं गतानाम् । साकार हैं किन्तु वीतरागी होने के कारण इन्हें भूयोद् भवक्लेश भवोपशान्त्य, भक्तों के योग-क्षेम से कोई प्रयोजन नहीं होता। शान्तिजिनो मे भगवान् शरण्यः ।। ___ अतः उपर्युक्त परिस्थितियों में भक्ति की -स्वयम्भू स्तोत्र ११ अनिवार्य भाव-भूमि के लिए जैन धर्म अनुर्वर है, हे शान्तिजिन! आपने अपने दोषों को शान्त ऐसा कहा जाता है। करके आत्मशान्ति प्राप्त की है तथा जो आपकी ३६४ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास PORNER (6, 805साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Edition International Norate & Personal Use Only www.jainelibre Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F-IN शरण में आये हैं, उन्हें भी आपने शान्ति प्रदान की जब वे स्वयं वीतरागी हैं तब किसी के सुख-दुःख से 5 1 है। अतः आप मेरे लिए भी संसार के दुःखों-भयों उनका क्या प्रयोजन ? इसका उत्तर 'दशभक्त्यादि का को शान्त करने में शरण है। संग्रह' में दिया है कि यद्यपि भगवान फल देने में जहाँ तक दूसरे तर्क का प्रश्न है वहाँ यही निस्पृह हैं किन्तु भक्त कल्पवृक्ष के समान उनके ( कहना पर्याप्त है कि जो राग लौकिक अभ्युदय या ' निमित्त से भक्ति का फल पा जाता है। यथा निश्चेतनाश्चिन्ता मणिकल्प महीरहाः । प्रयोजन के लिए किया जाता है वही बन्धन का कृत पुण्यानुसारेण तदभीष्टफलप्रदाः ।। कारण होता है किन्तु इसके विपरीत जो राग तथाहदादयश्चास्त रागद्वेष प्रवृत्तयः । वीतराग से किया जाता है, वह तो मुक्तिदायक भक्त भक्त्यनुसारेण स्वर्ग मोक्षफलप्रदाः ।। होता है । गीता में इसी को व्यापक अर्थ में सकाम -दशभक्त्यादि संग्रह ३/४ निष्काम कर्म से समझाया गया है। सकाम कर्म जिस प्रकार चिन्तामणि तथा कल्पवृक्ष यद्यपि बन्ध का कारण होता है और निष्काम कर्म मोक्ष अचेतन हैं फिर भी वे पुण्यवान पुरुष को उसके अभीष्ट का । जैन-भक्त अर्हन्त भगवान से कुछ पाने की के अनुकूल फल देते हैं उसी प्रकार अर्हन्त या सिद्ध ॥5 कामना नहीं करता वरन् उसका भाव निष्काम होता है । कल्याण मन्दिर (४२) में कहा गया है राग, द्वेष रहित होने पर भी भक्तों को उनकी भक्ति के अनुसार फल देते हैं। इस तथ्य की पुष्टि यद्यस्ति नाथ भवदङ घ्रि सरोव्हणां, आचार्य समन्तभद्र के वचनों से भी होती। भक्तेः फलं किमपि सन्तत सञ्चितायाः । न पूजयाऽर्थस्त्वयि वीतरागे, तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्य ! भूयाः, न निंदया नाथ ! विबान्तवैरे। स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि ।। तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिनः हे नाथ ! आपकी स्तुति कर मैं आपसे अन्य पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥ किसी फल की चाह नहीं करता, केवल यही चाहता यद्यपि वीतराग देव को किसी की स्तुति, हूँ कि भव-भवान्तरों में सदा आप ही मेरे स्वामी प्रशंसा या निन्दा से कोई प्रयोजन नहीं फिर भी रहें। जिससे आपको अपना आदर्श बनाकर अपने उनके गुणों के स्मरण से भक्त का मन पवित्र हो को आपके समान बना सकू। जाता है। दूसरी बात यह है कि 'पर' के प्रति राग-बन्धन अन्तिम शंका जो जैनधर्म को भक्ति-विरोधिनी का कारण होता है किन्तु 'आत्म' का अनुसन्धान सिद्ध करने के लिए की जाती है वह यह है कि जैन का तो मुक्ति का कारण है । परमात्मा 'पर' नहीं, 'स्व' धर्म वस्तुतः ज्ञानप्रधान धर्म है। इसमें भक्ति के " है-एहु जु अप्पा सो परमप्पा (परमात्म प्रकाश, लिये कोई स्थान नहीं हो सकता। वस्तुतः भारतीय | १४७) । अतः जिनेन्द्र का कीर्तन करने वाले अपनी धर्म-साधना में ज्ञान और भक्ति को एक दूसरे से मार | आत्मा का ही कीर्तन करते हैं, आत्मा का ही " पृथक् करके नहीं देखा गया है क्योंकि दोनों के मूल श्रवण, मनन और निदिध्यासन करते हैं । उपनिषद् में श्रद्धा है । श्रद्धावां लभते ज्ञानम्-यह गीता का (वृहदा० ४/५-याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी-संवाद) का भी __ मत है । भक्ति की जड़ में तो श्रद्धा है ही । आचार्य फन्दकन्द ने भक्ति से ज्ञान-प्राप्ति की प्रार्थना भगयही मत है। वान से की हैतीसरी आलोचना भगवान के वीतराग-भाव से इमघायकम्म मुक्को अठारह दोस वज्जियो सयलो सम्बन्धित है। क्या वीतराग की भक्ति या उपासना तिहवण भवण पदीवो देउ मम उत्तम बोहिं।। से दुःख या दुःख के कारणों का अभाव सम्भव है ? -भावपाहुड १५२वीं गाथा ORGROORORRORGEOGROLORSRACROGRICORD पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास ३६५ साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ JaNmdation Internation Nor Private & Personal Use Only www.jaINSTSVary.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % A र यद्यपि ज्ञान बुद्धि का विषय है फिर भी हृदय ३. आराध्य के समक्ष आत्म-निवेदन तथा का भाव-बोध देकर हो सन्तों ने उसे स्वीकार किया लौकिक-पारलौकिक फल-प्राप्ति की कामना । निगेणियां सन्तों ने भक्ति की आधारशिला ४. दार्शनिक सिद्धान्तों का निरूपण । पर ही अपनी साधना का प्रासाद निर्मित किया ५. काव्य-प्रतिभा का प्रदर्शन जैनस्तोत्र-परम्परा ज्ञान को भक्ति का आलम्बन स्वीकार करने में जैन स्तोत्र-परम्परा प्रारम्भ में स्तोत्र और सबसे बडी बाधा यह बताई जाती है कि भक्ति द्वैत स्तव के बीच भेद करती थी। शान्तिसरि ने 'स्तव' If बुद्धि पर आधारित होती है किन्तु आत्म-साक्षा- को संस्कृत में तथा 'स्तोत्र' को प्राकृत में निर्मित त्कार के उपरान्त सभी प्रकार की दतबुद्धि या माना है। सभी प्रकार के भेद नष्ट हो जाते हैं। फिर वहाँ आचार्य नेमिचन्द के गोम्मटसार कर्मकाण्ड भक्ति की कामना ही कैसे हो सकती है ? प्रकरण में कहा गया है कि 'स्तव' में वस्तु के सर्वांग ___आद्य शंकराचार्य ने 'त्रिपुर सुन्दरी रहस्य का और स्तुति में एक अंग का विवेचन विस्तार या (ज्ञान खण्ड) में इस पर विचार किया है। उनका संक्षेप से रहता है। वस्तुतः ये भेद प्रारम्भिक कहना है कि यह सत्य है कि उस समय अभेदज्ञान अवस्था में कुछ दिनों तक भले रहे हों किन्तु बाद में हो जाता है किन्तु भक्त आहार्य ज्ञान द्वारा भेद की यह अन्तर समाप्त हो गया और दोनों एकार्थवाची कल्पना कर लेता है। इस प्रकार की भेद-बुद्धि औरत हो गए। बन्धन का कारण नहीं होती बल्कि सैकड़ों मुक्तियों प्राकृत-स्तोत्र-साहित्य से भी बढ़कर आनन्दप्रद होती है । दूसरी बात यह जैन-साहित्य में स्तोत्र-परम्परा मूल आगमों से है कि आत्मस्वरूप का ज्ञान होने के पूर्व द्वैतभाव ही प्रारम्भ होती है । आगमों में तीर्थंकरों की स्तुति कर बन्धन का कारण होता है किन्तु विज्ञान के बाद सुन्दर एवं आलंकारिक शैली में की गयी है और भेद-मोह के निवृत्त होने पर भक्ति के लिए भावित देवों द्वारा १०८ पद्यों में स्तुति करने का निर्देश द्वैत अद्वैत से भी उत्तम है । दिया गया है। प्राकृत स्तोत्रों में गौतम गणधर का यही कारण है कि यद्यपि जैनधर्म ज्ञान-प्रधान 'जय तिहुअण स्तोत्र सबसे अधिक प्राचीन है। है किन्तु भक्तिशून्य नहीं है। जैन भक्तों, कवियों भगवान महावीर के समवशरण में प्रविष्ट होते एवं दार्शनिकों ने विपूल परिमाण में स्तोत्र-ग्रन्थों समय गौतम ने इसी स्तोत्र से उनकी अभ्यर्थना की की रचना की है। ये स्तोत्र अर्हन्त, गुरु, सिद्ध, पंच थी। परमेष्ठि आदि से सम्बन्धित हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने चीबीस तीर्थ करों की स्तुति में 'तित्थयर सुदि' की रचना की - इन स्तोत्रों में निम्न तथ्यों की सर्वांगपूर्ण विवे थी जिसे श्वेताम्बर समाज में 'लोगस्स सुत्त' कहते हैं चना हुई है १. आराध्य के स्वरूप की सौंदर्यपूर्ण व्यंजना भयहर स्तोत्र मानतुग सूरि विरचित है। २. आराध्य की लीलाओं का गान इसके २१ पद्यों में भगवान पार्श्वनाथ की भक्ति १ प्रकाशक-जैन प्रभाकर प्रिंटिंग प्रेस, रतलाम जन स्तोत्र संदोह (द्वितीय भाग), चतुरविजय सम्पादित, अहमदाबाद पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 1630 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ www.jainelibretter Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HAVA निवेदित की गई है । मानतुग का समय विक्रम की नाथ की सम्मिलित प्रार्थना है। इस स्तोत्र के सातवीं शताब्दी है। अनुकरण पर १२ वीं शती में जयवल्लभ ने 'अजित उवसग्गहर स्तोत्र' भद्रबाह की रचना है। ये शान्ति स्तोत्र' और वीरनन्दि ने 'अजिय संतिथय' भद्रबाहु श्रु त केवली भद्रबाहु से भिन्न हैं। इनका स्तोत्र की रचना की। समय विक्रम की छठी शताब्दी है । इसमें कुल २० शाश्वत चैत्यस्तव-इसकी रचना देवेन्द्रसूरि गाथाएँ हैं । इसमें भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति है। हकी ने की है। इनका समय १३ वीं शताब्दी है । इसकी। यह स्तोत्र इतना लोकप्रिय है कि अनेक भौतिक २४ गाथाओं में श्वेताम्बर सम्प्रदाय द्वारा मान्य रोगों के उपचार में इसका प्रयोग किया जाता है। अकृत्रिम चैत्यालयों की संख्या और उनकी भक्ति ऋषभ पञ्चाशिका के रचयिता धनपाल (१० प्रदर्शित है। वीं शती) हैं । इसमें कुल ५० पद्य हैं जिसके प्रारम्भ निर्वाणकाण्ड-यह प्राकृत का प्राचीन स्तोत्र के २० पद्यों में भगवान ऋषभ के जीवन की गाथाएँ है। इसमें कुल २१ गाथाएँ हैं । जैनों के दिगम्बर हैं और शेष ३० में उनकी प्रशंसा की गयी है। ____महावीर स्तोत्र-इसके रचयिता अभयदेव सूरि __ सम्प्रदाय में इसकी बहुत मान्यता है। जिन-जिन हैं। इसमें २२ पद्य हैं। स्थानों पर जैन तीर्थंकरों ने निर्वाण प्राप्त किया का पंचकल्याणक स्तोत्र-जिमवल्लभ सूरि (१२ वीं उनकी प्रार्थना इसमें हैं । एक तरह से इसे जैन तीर्थ शती) ने इसकी की है। इसमें कूल २६ पद्य हैं। इस स्थानों का इतिहास करना चाहिए। पर कई टीकाएँ लिखी गयी हैं। लब्धजित शान्तिस्तवन-इसकी रचना अभयचतुविशति जिनकल्याणकल्प और अम्विकादेवी देवसूरि के शिष्य जिनवल्लभ सूरि द्वारा विक्रम की - कल्प-यह जिनप्रभ सूरि (१४ वीं शताब्दी) रचित बारहवीं शती में हुई। इस स्तोत्र पर धर्मतिलक l है । सूरिजी का स्थान जैन स्तोत्रकारों में बहुत मुनि ने सं. १३२२ वि. में वृत्ति लिखी है। इसमें ऊँचा है । आपने ७०० स्तोत्रों की रचना की थी कुल १७ पद्य हैं । कविता बड़ी मनोरम एवं लालिकिन्तु अभी आपके ७० स्तोत्र ही उपलब्ध हैं। इन त्यपूर्ण है। स्तोत्रों में यमक, श्लेष, चित्र तथा विविध छन्दों का निजात्माष्टकम -इसके रचयिता ‘परमात्मचमत्कार देखा जा सकता है। प्रकाश' के प्रसिद्ध रचयिता योगेन्द्रदेव हैं। इसमें ___अजित संतिथय-यह नंदिषेण रचित है ( कुल आठ पद्य हैं। यह स्तोत्र दार्शनिक भावधारा वीं शताब्दी)। इसमें भगवान अजितनाथ एवं शांति- से ओतप्रोत है। ROY १ साराभाई मणिलाल नबाव द्वारा प्रकाशित 'प्राचीन साहित्य और ग्रन्थावलि' में संग्रहीत सन् १९३२ ई. २ काव्यमाला सप्तम गुच्छक-प. दुर्गाप्रसाद और वासुदेव लक्ष्मण सम्पादित सन् १९२६ ई० । ३ जैन स्तोत्र संदोह (प्रथम भाग), पृ. १६७-६६ ४ मुनि जिनविजय सम्पादित विविध तीर्थकल्प, सिंघी जैन ज्ञानपीठ, शान्ति निकेतन सं. १६६० वि. ५-६ प्राचीन साहित्य और ग्रन्थावलि में संग्रहीत, सन १९३२ ई. ७ वैराग्य शतकादि ग्रन्थ पञ्चकम् में पृ. ५० पर; देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार फंड द्वारा सूरत से सन् १९४१ में प्रकाशित । - 'सिद्धान्तसारादि संग्रह' में संकलित, प्रकाशक-दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई वि. सं. १९०६ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 60 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ । www.jainsbrary.org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 ___ अरहंत स्तवनम्-इसके रचयिता समन्तभद्र किया है । इनके द्वारा रचित एक और स्तोत्र हैहैं जो सम्भवतः प्रसिद्ध समन्तभद्र से भिन्न हैं। द्वात्रिंशिका स्तोत्र। इस में भगवान महावीर की इसका कलेवर छोटा है किन्तु काव्यगुण दृष्टि से स्तुति है। इसका विशिष्ट महत्व है। ३. आचार्य देवनन्दि पूज्यपाद रचित स्तोत्रइन स्तोत्रों के अतिरिक्त प्राकृत में और भी इन्होंने सिद्धभक्ति, श्रु तभक्ति, तीर्थंकरभक्ति आदि । अनेक स्तोत्र लिखे गए हैं जिनमें मानतुंग का भय- से सम्बन्धित बारह स्तोत्रों की रचना की है जो हर स्तोत्र, जिनप्रभसूरि का पासनाह लघुथव, धर्म- 'दसभक्ति' नामक प्रकाशित ग्रन्थ में संकलित है। HD घोषकृत इसिमंडल थोत्त, देवेन्द्रसूरि कृत चत्तारि- ४. पात्रकेशरी स्तोत्र-इसके रचयिता विद्याअट्टदसथव आदि बहत प्रसिद्ध हैं। नन्दि हैं। इसके ५० पद्यों में भगवान महावीर की संस्कृत स्तोत्र-जैन भक्तों ने प्राकृत के अति- स्तुति की गई है। रिक्त संस्कृत, अपभ्रंश एवं आधुनिक भारतीय ५. भक्तामर स्तोत्र-इस स्तोत्र का सम्मान भाषाओं में विपुल परिमाण में स्तोत्र-ग्रंथों की जैनधर्म में बहुत अधिक है । इसके रचयिता आचार्य रचना की है । साधारणतः संस्कृत पद्यों का निर्माण मानतुंग हैं। इसमें कुल ४८ श्लोक हैं । इसका अनुछन्दशास्त्र में उल्लिखित छन्दों में ही किया जाता वाद हिन्दी और अंग्रेजी में भी हुआ है। है किन्तु जैन कवियों की यह विशेषता है कि उन्होंने ६. चतविशति जिन स्तोत्र-यह बप्पभट्रि (सन् । लोकरुचि को ध्यान में रखकर विविध राग-रागि- ७४८-८३८ई०) का लिखा हआ है। इसमें ९६ पद्य नियों एवं देशियों का उपयोग अपने स्तोत्रों में हैं। किंवदन्ती है कि रचयिता ने कन्नौज के राजा किया है । गुजरात एवं राजस्थान के सैकड़ों लोक- यशोवर्मा के पुत्र अमरराज को जैनधर्म में दीक्षित गीत जो अब विस्मृति के गर्भ में विलीन हो चुके हैं किया था। इनके द्वारा रचित एक 'सरस्वती स्तोत्र वे पूरे-के-पूरे जैन कवियों द्वारा रचित रासों, ग्रन्थों भी मिलता है। एवं स्तोत्रों में सुरक्षित हैं। इस दृष्टि से इनके उप- ७. शोभन स्तोत्र-शोभन कवि लिखित होने के कार को साहित्य-संसार भूल नहीं सकता। कारण इसे 'शोभन स्तोत्र' कहते हैं। इनका समय १. स्वयंभ स्तोत्र-संस्कृत में आचार्य समन्तभद्र विक्रम की दसवीं शती है। इसका शब्द-चमत्कार | एवं सिद्धसेन दिवाकर आद्य स्ततिकार माने जाते दर्शनीय है। कवि के भाई घनपाल ने इसकी हैं । आचार्य समन्तभद्र का स्वयम्भू स्तोत्र प्रसिद्ध है टीका लिखी है। जिसका अनुवाद हिन्दी के अनेक जैन कवियों ने द.स्तति चविशतिका-इसके रचयिता सन्दरकिया है। इसके अतिरिक्त इनके कुछ अन्य स्तोत्र गणि हैं जो अकबर के प्रबोधक खरतरगच्छाचार्य भी प्रसिद्ध हैं। जैसे देवागम स्तोत्र, जिनशतक श्री जिनचन्द्रसरि के शिष्य हर्ष विमल के शिष्य थे। (व आदि। इसमें १३ प्रकार के छन्द हैं। इसमें यमक की छटा २. कल्याण मन्दिर स्तोत्र-यह आचार्य सिद्ध दर्शनीय है। इसकी प्रत्येक स्तुति के चार पदों में सेन दिवाकर द्वारा रचित है। इसमें कुल ४४ पद्य प्रथम में किसी एक तीर्थकर की स्तुति, दूसरे में हैं । इस स्तोत्र की मान्यता जैनों के सभी सम्प्रदायों सर्व जिनों की, तृतीय में जिन प्रवचन और चौथे में में है। हिन्दी के जैन कवियों ने इसका भी अनुवाद शासन-सेवक देवों का स्मरण किया गया है। १ अनेकान्त वर्ष १८, किरण ३ में प्रकाशित । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 29. साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 066 For Aivate & Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - इसकी प्रेरणा से रचित कुछ अन्य रचनाएँ प्रसिद्ध आदि; १६वीं शती में रामविजय, क्षमाकल्याण हैं। जैसे मेरुविजय की जिनानन्द स्तति चविश- आदि स्तोत्रकार हए हैं। तिका, यशोविजय उपाध्याय की ऐन्द्रस्तुति चतुर्वि- अगरचन्द नाहटा ने पुण्यशील रचित 'चर्विशतिका, हेमविजय रचित चतुर्विंशतिका आदि । शति जिनेन्द्र स्तवनानि' की भूमिका में अनेक स्तोत्र ६. विषापहार स्तोत्र-इसके रचयिता धनंजय ग्रन्थों की सूचना दी है। (८-6वीं शती) हैं । ऐसी मान्यता है कि इसके पाठ 'Ancient Jain names' नामक एक पुस्तक का से सर्प का विष दूर हो जाता है। सम्पादन Charlottle Krause नामक एक जर्मन १०. वादिराजसूरि के स्तोत्र-'एकीभावस्तोत्र', विद्वान द्वारा हुआ है जो ‘उज्जैन सिन्धिया ऑरि'ज्ञानलोचन स्तोत्र' और 'अध्यात्माष्टक'--ये तीन यन्टल इन्स्टीट्यूट' द्वारा सन् १९५२ ई० में प्रकास्तोत्र प्रसिद्ध हैं। 'एकीभाव स्तोत्र' का अनुवाद शित हो चुका है। इसमें आठ स्तोत्र संग्रहीत है जो हिन्दी के अनेक जैन कवियों ने किया है। भाषा और भाव, दोनों दृष्टियों से उत्तम हैं। अपभ्रंश स्तोत्र ११.आचार्यहेमचन्द्र के स्तोत्र-आचार्यहेमचन्द्र ने कुमारपाल की प्रार्थना पर वीतरागस्तोत्र' की रचना अपभ्रंश भाषा में भी जैन भक्तों ने कुछ स्तोत्रों की । इसके बीस भाग हैं और प्रत्येक भाग में आठ की रचना की है किन्तु इनकी संख्या संस्कृत एवं है या नव स्तोत्र हैं । भाषा बडी कवित्वमयी है। इनके प्राकृत की तुलना में अत्यल्प है। काव्य के प्रसंग रचे दो और स्तोत्र हैं-महावीर स्तोत्र और महा के भीतर लिखे गए कुछ स्तोत्र भाषा और भाव की देव स्तोत्र। दृष्टि से उत्कृष्ट हैं किन्तु स्वतन्त्र रूप में लिखे गए स इनके अतिरिक्त और भी स्तोत्रकार हुए हैं स्तोत्र काव्य गुण की दृष्टि से बहुत महत्व नहीं रखते। जिन्होंने बडी ललित पदावली में अपने आराध्यों ___ स्वयम्भू के 'पउमचरिउ' एवं पुष्पदन्त के महाकी भक्ति में स्तोत्र ग्रन्थों का प्रणयन किया है । १४ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जिनरत्नसूरि, अभय- में की गयी है। . पुराण में जिनदेवता की स्तुति बड़े भावपूर्ण शब्दों तिलक, देवमूर्ति, जिनचन्द्रसूरि एवं उत्तरार्द्ध में जिनकुशल सूरि, जिनप्रभसूरि, तरुणप्रभसूरि, लब्धि धनपाल (११ वीं शती) ने भगवान महावीर निधान, जिनपद्मसूरि, राजेशखराचार्य आदि स्तोत्र • की प्रशंसा में 'सत्पुरीय महावीर उत्साह' स्तोत्र की * कर्ता हुए हैं। रचना काव्यमयी भाषा में की है । १३ वीं शती के || जिनप्रभ सूरि ने कुछ स्तोत्र ग्रन्थों की रचना की () १५ वीं सदी में जिनलब्धसूरि, लोकहिताचार्य, लब्धसूरि, लोकहिताचार्य, है जिनमें प्रसिद्ध है-जिनजन्म महः स्तोत्रम्; जिन 720) | भुवनहिताचार्य, विनयप्रभ, मेरुनन्दन, जिनराज जन्माभिषेक. जिन महिमा. मनिसवत स्तोत्रम | सूरि, जयसागर, कीर्ति रत्नसूरि आदि स्तोत्रकर्ता आदि । इनका काल विक्रम की १३ वीं शताब्दी र है। श्री धर्मघोष सूरि (सं. १३०२-५७ वि.) ने २७ . १६ वीं शती में क्षेमराज, शिवसुन्दर, साधु पद्यों में 'महावीर कलश' की रचना की है । महा- IKE ३, सोम आदि; १७ वीं शती में जिनचन्द्रसूरि, समय- कवि रइधू न आत्म सम्बोधन, दश लक्षण जयमाल | राज, सूरचन्द्र, पद्मराज, समय सुन्दर, उपाध्याय और संबोध पंचाशिका स्तोत्र की रचना अपभ्रंश गुणविजय, सहजकीत्ति, जीव वल्लभ आदि । १८ में की है । गणि महिमासागर ने 'अरहंत चौपई' वीं शती में धर्मवद्धन, ज्ञानतिलक, लक्ष्मीवल्लभ नामक स्तोत्र का प्रणयन किया है। ३६६ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 6. साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ des Jhin Education Internationa Por Private & Personal Use Only www.jalhirorary.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल द्वारा संपादित प्राकृत में उनका 'उवसग्गहर स्तोत्र वृत्ति' प्रसिद्ध का राजस्थान के शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सची में भी है। बहुत से स्तोत्र-ग्रन्थों की नामाबलि मिल सकती प्राचीन हिन्दी में इन्होंने 'चतुर्विशति जिनहै। 'स्तवन' ग्रन्थों की विस्तृत सूची डा० प्रेमसागर स्तुति', 'स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तवन', 'विरहमान जैन रचित 'जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि' में उप- जिन स्तवन' आदि की रचना की है। इनके अतिलब्ध है। रिक्त 'जिनकलशसूरिचतुष्पदी' में सूरिजिनकुशल हिन्दी जैन-स्तोत्र-साहित्य की महिमा का इन्होंने गान किया है। हिन्दी में स्तोत्र-साहित्य का ग्रथन मौलिक रूप ४. श्री पद्मतिलक (१५वीं शती का उत्तरार्द्ध)में नहीं हआ है। अपनी लोकप्रियता एवं काव्य- इनके द्वारा रचित 'गर्भ विचार स्तोत्र' प्रसिद्ध है । । सम्पदा के कारण पंचस्तोत्रों-'भक्तामर', 'कल्याण इस स्तोत्र ग्रन्थ में गर्भवास के दुःखों के वर्णन की 18 मन्दिर', 'विषापहार', 'एकीभाव' और चविंशति पृष्ठभूमि में इससे छुटकारा दिलाने की प्रार्थना || स्तवन' ने हिन्दो जैन कवियों का ध्यान अपनी भगवान ऋषभनाथ से की गयी है। ओर आकृष्ट किया है और फलस्वरूप इनके ५. विनयप्रभ उपाध्याय (सं० १५१२)-इन्होंने 1 बीसियों पद्यानुवाद प्रस्तुत किये हैं। इन अनुवादों अनेक स्तुतियाँ लिखी हैं जिनमें 'सीमन्धर स्वामि में यद्यपि कवियों ने अपनी मौलिक प्रतिभा का उप स्तवन' प्रसिद्ध है। योग कर इन्हें रस-संवेद्य बनाने की चेष्टा की है, ६. अभयदेव (सं० १६२६)-इनके 'थंभण पार्श्वकिन्तु, इतना होते हुए भो एक भी अनुवाद ऐसा नाथ स्तवन' में स्तंभनपुर में विद्यमान भगवान नहीं हुआ है जो मूल ग्रन्थ की समकक्षता प्राप्त कर पार्श्वनाथ की प्रतिमा की प्रार्थना है। सके । इसका परिणाम यह हुआ कि एक ही कृति ७. गणिक्षतिरंग- इनका 'खैराबाद पार्श्व जिन | के अनेक अनुवाद भिन्न-भिन्न कवियों द्वारा प्रस्तुत स्तवन' खैराबाद स्थित भगवान पार्श्वनाथ की किए गए हैं । इन अनूदित स्तोत्रों के अतिरिक्त कुछ प्रतिमा को लक्ष्य कर लिखा गया है। मौलिक स्तोत्र भी हिन्दी के जैन कवियों द्वारा ८. ब्रह्मजिनदास-ये संस्कृत, प्राकृत एवं देश्यप्रणीत हुए हैं। इन स्तोत्रों को तीन वर्गों में विभा भाषाओं के प्रकाण्ड विद्वान थे। संस्कृत में आपने जित किया जा सकता है अनेक पूजाएँ लिखी हैं। हिन्दी में इन्होंने 'कथा (क) विनती (ख) स्तुति (ग) प्रार्थना । इन कोष संग्रह' लिखा जिसमें 'पंचपरमेष्ठी गुण वर्णन' स्तोत्रों की रचना करने वालों में कुछ प्रमुख हैं- संगृहीत है। इसमें पंचपरमेष्ठियों की प्रार्थना की १. विनयप्रभ-इनकी पाँच स्तुतियाँ प्रसिद्ध हैं। गयी है। प्रत्येक स्तुति में २०-३० के लगभग पद्य हैं । 'सीम- ह. ठकरसी-सोलहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध न्धर स्वामि स्तवन' को भी इन्हीं की रचना माना माना कवियों में इनकी गणना की जाती है। अन्य ग्रन्थों गया है। के अतिरिक्त स्तोत्र से सम्बन्धित इनकी दो रचनाएँ २. मेरुनन्दन उपाध्याय (सं. १४१५)-इनके प्राप्त हुई हैं-चिन्तामणि जयमाल और सीमंधर दो स्तवन 'अजित शान्ति स्तवन' और 'सीमन्धर स्तवन । जिन स्तवनम्' प्राप्त हैं। १० पद्मनन्दि-इनके दो स्तोत्र ग्रन्थ प्रकाश ३. उपाध्यय जयसागर (सं. १४०८-६५)-ये में आये हैं-देवतास्तुति तथा परमात्मराजसंस्कृत, प्राकृत और हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान थे। स्तवन । ४०० पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास SE (6,760 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Edison International PNate & Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. भट्टारक शुभचन्द (सं० १५७३ वि०)- सम्बन्धी निम्नलिखित रचनाएँ हैं-बीर जिमेन्द्र | इनकी लिखी हुई ४० से अधिक रचनाएँ प्राप्त हुई गीत, आदिमाथ स्तवन, शान्तिमाथ स्तवन । हैं जिनमें निम्नलिखित स्तोत्र प्रसिद्ध हैं-(१) चतु- २५. रामचन्द्र-इनके द्वारा रचित तीन स्तवन । विशति स्तुति, (२) अष्टाह्निका गीत, (३) महावीर ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं-बीकानेर आदिनाथ स्तवन, सम्मेद छन्द, (४) विजयकीर्ति छन्द, (५) गुरु छन्द, (६) शिखर स्तवन और दशपंचक्खाण। नेमिनाथ छन्द । २६. महारक शुभचन्द्र-संस्कृत ग्रन्थों के अति१२. आनन्दघन-इनका स्थान बन कवियों में रिक्त हिन्दी में लिखे इनके स्तोत्र ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। 5 अप्रतिम है । इनकी दो रचनाएँ प्रसिद्ध हैं-चौबीसी जैसे-चविंशति स्तुति, अष्टाह्निकागीत, क्षेत्रपालX और बहत्तरी । चौबीसी गुजराती में है जिसमें गीस, महावीर छन्द, आरती, गुरु छन्द आदि । । चौबीस तीर्थकरों की स्तुति है। २७. मुनि सकलकीति-पार्श्वनाथाष्टक । १३. उदयराज जती (सं० १६६७)-रचनाएँ- २८. पाण्डे रूपचन्द्र-इनके भी कई स्त्रोत भजन छतीसी, चौबीस जिन सवैया । _प्रसिद्ध हैं। १४. कल्याण कीति-जीराबली पार्श्वनाथ २६. सहजकीर्ति-प्राती, जिनराजसूरि गीत, स्तवन, नवग्रह स्तवन, तीर्थकर विनती, आदीश्वर साधु कीर्ति, जैसलमेर चैत्य प्रवाडी।। बधावा। ३०. सुमतिकोति-जिनवरस्वामी विनती, जिन १५. कनककीर्ति-मेघकुमार गोत, जिनराज- विनती, क्षेत्रपाल प्रजा । 5 स्तुति, श्रीपाल स्तुति, पार्श्वनाथ की आरती, ३१. हर्षकीति-जिनभक्ति, बीस तीर्थकर विनती। जकड़ी, पार्श्वनाथ पूजा, बीस विहरमाण पूजा। १६. कुमुदचन्द्र-मुनिसुव्रत विनती, आदीश्वर विनती, पार्श्वनाथ विनती, त्रेपनप्रिया विनती, जन्म ३२, पं० हीरानन्द-समवशरण स्तोत्र, एकी भाव स्तोत्र। कल्याणक गीत, शील गीत आदि । ३३. मुनि हेमसिद्ध-आदिनाथ गीत ।। १७. कुशल लाभ-पूज्यवाहणगीतम् । ३४. द्यानतराय-स्वयम्भू स्तोत्र तथा 'धर्म १८. गुणसागर-शान्तिनाथ स्तवन, पायजिभ- विलास' में निबद्ध दस पूजा ग्रन्थ ।। स्तवन । ३५. हेमराज-भक्तामर स्तोत्र । १६. जयकीति-महिम्न स्तवन । पाण्डेय हेमराज, अखयराज और धनदास ने २०. पाण्डे जिनदास-जिन चैत्यालय पूजा 'भक्तामर स्तोत्र' का पद्यानुवाद किया है। हेम(संस्कृत) एवं मुनीश्वरों की जयमाल । राज का यह अनुवाद सरल और स्पष्ट तो है ही ३) २१. नरेन्द्र कोति-बीस तीर्थकर पूजा (संस्कृत), उसके मूलभाव को भी स्पष्ट करता है । कुमुदचन्द्र पद्मावती पूजा (संस्कृत), ढाल-मंगल की कृत 'कल्याण मन्दिर स्तोत्र' बहुत ही लोकप्रिय स्तोत्र Ni (हिन्दी)। रहा है और इसी कारण हिन्दी के अनेक कवि २२. ब्रह्मगुलाल-समवसरण स्तोत्र। इसकी ओर आकृष्ट हुए हैं । इसके अनुवादकर्ताओं // . २३. बनारसीदास-'बनारसी विलास' में इनके में महाकवि बनारसीदास, अखयराज, भेलीराम TE स्तोत्र संगृहीत हैं। ___ आदि अग्रगण्य हैं। महाकवि बनारसीदास का 3 २४. भगवतीवास-ये भैया भगवतीदास से अनुबाद सोलह मात्रा के चौपाई छन्द में है । भक्त भिन्न हैं । इनकी २३ रचनाएँ प्राप्त हैं जिनमें स्तोत्र संस्कृत मूल स्तोत्र से जो मानन्द प्राप्त करता है पंचव सण्ड : जैन साहित्य और इतिहास AVMSRAV w 60 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ w ord Private & Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वही आनन्द बनारसीदास के अनुवाद से एक इसी पद्य को मूधरदास ने अधिक कुशलता से हिन्दी-भाषी को उपलब्ध होता है / जैसे- ग्रहण किया है। उन्होंने 'मणिदीप' को ज्यों का सुमन वृष्टि जो सुरकरहि, हेठ वोट मुख सोहिं / त्यों रहने दिया है। ज्यों तुम सेवत समनजन, बन्ध अधोमुख होहिं // सिवपुर केरो पन्थ पाप तम सों अति छायो। कहहिं सार तिहुँ लोक को, ये सुर चामर दोय / दुःख सरूप बह कूप खण्ड सों बिकट बतायो / भाव सहित जो जिन नमें, तसुगति ऊरध होय // स्वामी सुख सों तहाँ कौन जन मारग लागें / -क्रम संख्या 21, 23 प्रभु प्रवचन मणि दीप जोन के आगें आगें। 'एकीभाव स्तोत्र' हिन्दी-कवियों को बहुत प्रिय रहा है / इसका अनुवाद पं० हीरानन्द, अखयराज, 'विषापहार स्तोत्र' का अनुवाद विद्यासागर ने मूधरदास, जगजीवन और द्यानतराय ने प्रस्तुत किया है। कवि का यह अनुवाद बड़ा सटीक एवं किया है। 'एकीभाव' के चौदहवें श्लोक का सार्थक हुआ है। इसी प्रकार भूपाल कवि कृत - अनुवाद करते हुए द्यानत राय लिखते हैं 'चतुर्विशति स्तोत्र' का अनुवाद भी सुन्दर रूप में मुकति पन्थ अघ तम बहुभर्यो, प्रस्तुत किया गया है / दोहा-चौपाई शैली में कवि ने % गढे कलेस विसम विसतरयो मूल भावा का पूर्णतः रक्षा की है। सुख सौं सिवपद पहुंचे कोय, इन अनूदित स्तोत्रों के अतिरिक्त मौलिक जो तुम वच मन दीप न होय // स्तोत्रों की रचना भी प्रचुर परिमाण में ही है। ध्यान देने की बात यह है कि जहाँ वादिराज इस प्रकार जैन-स्तोत्र-साहित्य गुण एवं परिमाण, ने 'रत्नदीप' लिखा है वहाँ द्यानतराय ने मात्र दोनों ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण है और एक स्वतन्त्र 'दीप' ही रहने दिया है। अवश्य 'मन' शब्द अधिक शोध की अपेक्षा रखता है। है। घोर तमिस्रा के बीच 'दीप' की तुलना में 'रत्नदीप' अधिक सटीक एवं सार्थक है। नोट-लेख में वणित अनेक धारणाएँ लेखक की अपनी स्वतन्त्र हैं / श्वेताम्बर परम्परा की धारणाओं से भिन्नता भी है. अत: लेखक एवं पाठक से निवेदन है, वे इस विषय पर सन्तुलित चिन्तन करें। -सम्पादक भद्र भद्रमिति बयाए भद्रमित्येव वा वदेत् / शुष्कवरं विवादं च न कुर्यात् केनचित् सह // -मनुस्मृति 4/136 मानव के लिए उचित है कि सदा ही भद्र-मधुर शब्दों का प्रयोग करे / अच्छा है, उचित है-सामान्य रूप से ऐसा ही कहना उचित है। किसी के भी साथ व्यर्थ की शत्र ता अथवा विवाद करना उचित नहीं है / 402 पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास YADRI साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ . 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