Book Title: Jain Shastro me Mantravad
Author(s): Prakashchandra Singhi
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ जैन शास्त्रों में मन्त्रवाद प्रकाशचंद्र सिंघई, एडवोकेट दमोह ( म०प्र०) शूबिंग के अनुसार, महावोर काल में जैन श्रुत को दो परम्परायें समानान्तर चली-अंग परम्परा महावोरकालीन थी, पूर्व परम्परा महावीर-पूर्व या पार्श्वकालीन थो। अनेक अंगों के विषय पूर्वो के समर्थक हैं या समान हैं, अतः उन्हें तत्तत् पूर्वो से निर्गत माना जाता है। वस्तुतः चौदह में चार पूर्वो को छोड़कर अन्यों के नाम 'प्रवादान्त' हैं, अतः ऐसा लगता है कि इनमें तत्कालीन विचारधाराओं या मत-मतान्तरों का विवरग होगा। इससे भ्रान्त धारणायें हो सकती हैं, अतः इनकी विषयवस्तु को महत्वहीन मानकर इन्हें बिलुम हो मान लिया गया। फिर मो, इन पूर्वो को द्वादशांगी के बारहवे अंग के घटक के रूप में स्वीकार किया गया । यद्यपि यहो अंग सर्वप्रथम स्मृति-विलप्त माना जाता है, फिर भी शास्त्रों में इसकी विषय-वस्तु के विवरण पाये जाते हैं। इस अंग का नाम दृष्टिवाद है और इसके पांच उपभेद हैं। इनमें चूलिका एवं पूर्वगत के अन्तर्गत विद्यानुप्रवाद (५०० महाविद्याय,७०० लघुविधायें एवं आठ महानिमित्त ) तथा प्राणावाय ( वैद्यविद्या भूत-प्रेत-विष विद्या एवं मंत्र-तंत्र-विद्या) के अन्तर्गत मन्त्रविद्या के नाम आते हैं। समवायांग में वर्णित बहत्तर कलाओं में मन्त्र विज्ञान और काकिणी लक्षण के नाम आये हैं। श्रमणों के आधार के सम्बन्ध में उत्तराध्ययन एवं मूलाराधना में यह बताया गया है कि वह इन दोनों कलाओं का उपयोग आहार या आजीविका के प्रलोभन वश न करे। आचार्य पुष्पदन्त-भूतबलि, समन्तभद्र, मानतुंग आदि आचार्यों ने मन्त्र एवं स्तोत्र विद्या के आधार पर ही जैन श्रत को संरक्षित एवं जन संस्कृति को अभिवधित किया। प्रथमानुयोग के अनेक कथानक मन्त्रशक्ति की कल्याण भावना को प्रकट करते हैं। संक्षेप में, भन्त्र विद्या एक प्राचीन शास्त्र है और यह महावीर-युग में भी लोकप्रिय रहा होगा। शास्त्रो के अनुसार आगमिक साहित्य में इसका विवरण उत्पत्ति, निक्षेप आदि ग्यारह दृष्टिकोणों से किया गया है। मन्त्रों को प्ररूपणा निर्देश, स्वामित्व आदि नव द्वारों से की गई है। इसका अध्ययन, साधन और उपयोग लोककल्याण एवं आत्मकल्याण के लिये विहित माना गया है। भारतीय संस्कृति की अनेक धाराओं में इसका विकास एवं प्रयोग हः। जैन धारा भी इससे अछती न रही। प्रारम्भ में यह रहस्यवाद के रूप में रही, फिर शक्ति स्रोत के रूप में उभर कर जनकल्याण के प्रत्येक क्षेत्र को समाहित कर गई। कालान्तर में इस विद्या के किंचित दुरुपयोग के लक्षण प्रतीत हुए। फलतः इसका विलोपन भी होने लगा। सातवों सदी के बाद शक्तिवाद की उपासना ब मोत के रूप में इसका पुनरुद्धार हुआ। इस युग में यह विद्या, पुनः वैज्ञानिक दृष्टि से भी प्रतिष्ठित होती प्रतीत होतो है। बीसवों सदी में इस विद्या की शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक स्थिति का परिज्ञान सर्वसाधारण के लिये उपयोगी होगा। स्तोत्र और मन्त्र मारतीय संस्कृति में अपने मार्गदर्शकों, हितकारियों एवं महापुरुषों के गुणगान करने की परम्परा रही है। वैदिक रिचाओं में कितने ही उपकारी प्राकृतिक तत्वों को देवत्व प्रदान किया गया है। यह परम्परा जैन धारा में भी पाई नाती है। इस गुणगानपद्धति को ही स्तवन, स्तुति, स्तोत्र परम्परा कह सकते हैं। इसमें अपने उपकारकों के प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 ... 14