Book Title: Jain Shastro me Mantravad
Author(s): Prakashchandra Singhi
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/210872/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्रों में मन्त्रवाद प्रकाशचंद्र सिंघई, एडवोकेट दमोह ( म०प्र०) शूबिंग के अनुसार, महावोर काल में जैन श्रुत को दो परम्परायें समानान्तर चली-अंग परम्परा महावोरकालीन थी, पूर्व परम्परा महावीर-पूर्व या पार्श्वकालीन थो। अनेक अंगों के विषय पूर्वो के समर्थक हैं या समान हैं, अतः उन्हें तत्तत् पूर्वो से निर्गत माना जाता है। वस्तुतः चौदह में चार पूर्वो को छोड़कर अन्यों के नाम 'प्रवादान्त' हैं, अतः ऐसा लगता है कि इनमें तत्कालीन विचारधाराओं या मत-मतान्तरों का विवरग होगा। इससे भ्रान्त धारणायें हो सकती हैं, अतः इनकी विषयवस्तु को महत्वहीन मानकर इन्हें बिलुम हो मान लिया गया। फिर मो, इन पूर्वो को द्वादशांगी के बारहवे अंग के घटक के रूप में स्वीकार किया गया । यद्यपि यहो अंग सर्वप्रथम स्मृति-विलप्त माना जाता है, फिर भी शास्त्रों में इसकी विषय-वस्तु के विवरण पाये जाते हैं। इस अंग का नाम दृष्टिवाद है और इसके पांच उपभेद हैं। इनमें चूलिका एवं पूर्वगत के अन्तर्गत विद्यानुप्रवाद (५०० महाविद्याय,७०० लघुविधायें एवं आठ महानिमित्त ) तथा प्राणावाय ( वैद्यविद्या भूत-प्रेत-विष विद्या एवं मंत्र-तंत्र-विद्या) के अन्तर्गत मन्त्रविद्या के नाम आते हैं। समवायांग में वर्णित बहत्तर कलाओं में मन्त्र विज्ञान और काकिणी लक्षण के नाम आये हैं। श्रमणों के आधार के सम्बन्ध में उत्तराध्ययन एवं मूलाराधना में यह बताया गया है कि वह इन दोनों कलाओं का उपयोग आहार या आजीविका के प्रलोभन वश न करे। आचार्य पुष्पदन्त-भूतबलि, समन्तभद्र, मानतुंग आदि आचार्यों ने मन्त्र एवं स्तोत्र विद्या के आधार पर ही जैन श्रत को संरक्षित एवं जन संस्कृति को अभिवधित किया। प्रथमानुयोग के अनेक कथानक मन्त्रशक्ति की कल्याण भावना को प्रकट करते हैं। संक्षेप में, भन्त्र विद्या एक प्राचीन शास्त्र है और यह महावीर-युग में भी लोकप्रिय रहा होगा। शास्त्रो के अनुसार आगमिक साहित्य में इसका विवरण उत्पत्ति, निक्षेप आदि ग्यारह दृष्टिकोणों से किया गया है। मन्त्रों को प्ररूपणा निर्देश, स्वामित्व आदि नव द्वारों से की गई है। इसका अध्ययन, साधन और उपयोग लोककल्याण एवं आत्मकल्याण के लिये विहित माना गया है। भारतीय संस्कृति की अनेक धाराओं में इसका विकास एवं प्रयोग हः। जैन धारा भी इससे अछती न रही। प्रारम्भ में यह रहस्यवाद के रूप में रही, फिर शक्ति स्रोत के रूप में उभर कर जनकल्याण के प्रत्येक क्षेत्र को समाहित कर गई। कालान्तर में इस विद्या के किंचित दुरुपयोग के लक्षण प्रतीत हुए। फलतः इसका विलोपन भी होने लगा। सातवों सदी के बाद शक्तिवाद की उपासना ब मोत के रूप में इसका पुनरुद्धार हुआ। इस युग में यह विद्या, पुनः वैज्ञानिक दृष्टि से भी प्रतिष्ठित होती प्रतीत होतो है। बीसवों सदी में इस विद्या की शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक स्थिति का परिज्ञान सर्वसाधारण के लिये उपयोगी होगा। स्तोत्र और मन्त्र मारतीय संस्कृति में अपने मार्गदर्शकों, हितकारियों एवं महापुरुषों के गुणगान करने की परम्परा रही है। वैदिक रिचाओं में कितने ही उपकारी प्राकृतिक तत्वों को देवत्व प्रदान किया गया है। यह परम्परा जैन धारा में भी पाई नाती है। इस गुणगानपद्धति को ही स्तवन, स्तुति, स्तोत्र परम्परा कह सकते हैं। इसमें अपने उपकारकों के प्रति Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड समर्पणभाव, श्रद्धाभाव व भक्तिभाव का विविध रूपों में प्रकटन होता है। सांसारिक अशांन्ति की दशा में यह समर्पणभाव मार्गदर्शी बन जाता है। इस सहज प्रत्यक्ष गुण ने ही स्तोत्र-विधि के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। ऐसा प्रतीत होता है कि मन्त्रों के विकास के पूर्व स्तोत्रों ने अपना स्थान बना लिया था। भक्तिवाद के विविधरूप स्तोत्र-विधि के ही लोकप्रिय रूप हैं। इसीलिये मन्त्रों के उद्धरण से पूर्व ही स्तोत्रों की परम्परा प्राप्त होने लगती है। कहा जाता है कि सर्वप्रथम स्तोत्र, 'उवसग्गहर स्तोत्र' है और उसके प्रणेता आचार्य भद्रबाहु प्रथम (४५६ ई० पू० ) माने जाते हैं। इसके बाद कुछ सदियों तक स्तोवों का विवरण नहीं मिलता। हाँ, दूसरी-तीसरी सदी के समन्तभद्र ( स्वयंभू स्तोत्र ), सिद्धसेन ( कल्याणमन्दिर, छठी सदी ), पूज्यपाद ( दशभक्ति, पांचवीं सदी ), पात्रकेसरी ( पात्रकेसरी स्तोत्र, पांचवीं सदी उत्तरार्ध), मानतुंग ( भक्तामर स्तोत्र, सातवीं सदी ), विद्यानन्द ( श्रीपुर पाश्वनाथ स्तोत्र, ८-९ सदी ), जिनसेन ( जिनसहस्त्रनाम स्तोत्र, ८-९ सदी), धनंजय ( विषापहार स्तोत्र, ९ सदी ), इन्द्रनंदि ( ज्वाला मालिनी स्तोत्र, दशमशती ), वादिराज (एकीभाव स्तोत्र, ११ सदी ) एवं अन्य आचार्यों द्वारा अनेक बहुप्रचलित स्तोत्रों की परम्परा मिलती है। अधिकांश स्तोत्रों की रचना का कारण विशिष्ट प्रकार की अशुभ दशाओं के परिवर्तन, धर्मप्रभावना तथा आत्मकल्याण से सम्बन्धित है। इस प्रकार स्तोत्र परम्परा पिछले चौबीस सौ वर्षों से निरन्तर प्रबाहमान है। समय-समय पर नये स्तोत्र रचित हए हैं और प्राचीन स्तोत्रों का भाषान्तरण हआ है। सभी स्तोत्रों का विषय इष्टदेव के गुणगान के साथ परमश्रेय एवं वीतरागता के प्रति रुझान की अभिव्यक्ति है। अनेक आचार्यों की स्तोत्र-अभिव्यक्ति से लौकिक प्रभावना कार्य भी सिद्ध हुए हैं। वस्तुतः शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक परिवेश के परिवर्धन में पूजा, स्तोत्र, मंत्र, ध्यान और हवन का नामोल्लेख किया जाता है। इन सभी का उद्देश्य समग्र जीवन को शुभता की ओर ले जाना है। पूजा में पुज्य के गुणों को प्राप्त करने की कामना रहती है, स्तोत्र में पूज्य के प्रति समर्पण की भावना, मन्त्र और ध्यान में अन्तर्मुखी शक्ति का जागरण एवं हवन में उक्त प्रवृत्तियों के लाभों को स्व-पर-कल्याण हेतु प्रयुक्त करने की कामना व्यक्त होती है । व्यक्ति अपनी अपनी क्षमता के अनुसार इन पद्धतियों में से एक या अनेक को अपनाकर अपना इहलौकिक जोवन तो प्रशस्त करता ही है, पारलौकिक जीवन की प्रशस्तता का पथ भी अनावृत्त करता है। ये सभी पद्धतियां जीवन की अनेक बिधता, अस्त-व्यस्तता एवं अल्पशक्तिता को एकरूपता, नियमितता, अपरिमित क्षमता एवं सामर्थ्य के रूप में परिणत करती हैं। फिर भी, विभिन्न विधियों की क्षमताओं में कुछ-न-कुछ अन्तर और विशेषता पाई जाती है। यह माना जा सकता है कि उत्तरवर्ती विधि पूर्व-विधि से प्रेरित होती है और ये क्रमशः सरलता से जटिलता की ओर, सहजता से सामर्थ्य की ओर बढ़ती हैं। एक ओर पूजा और स्तोत्र सामान्य जन के लिये उपयोगी हैं, तो मन्त्र और ध्यान विशिष्ट स्तर और क्रिया में समर्थ जनों के लिये उपयोगी हैं। पूजा और स्तोत्र का समर्पण भाव मन्त्र और ध्यान में साधना एवं शक्ति-जागरण के अजस्र स्रोत के रूप में परिणत हो जाता है। संभवतः शब्द शक्ति की सूक्ष्मता के उपयोग के परिज्ञान के साथ स्तोत्रों की तुलना में मन्त्रशक्ति, कष्ट-साध्य होने के बावजूद भी, अधिक आकर्षक हो गई। सारणी १ में मन्त्र और स्तोत्र का तुलनात्मक विवरण दिया गया है। इससे स्पष्ट है कि किसी भी लक्ष्य की सिद्धि के लिये मन्त्र-जप अधिक समर्थ होता है। मंत्र साहित्य यह सुज्ञात है कि मंत्रार्थों की परंपरा अत्यंत प्राचीन है, पर सामान्य और विशिष्ट मंत्रों की परंपरा उससे अर्वाचीन है। उदाहरणार्थ, अर्थतः चाहे जो भी हो, शब्दतः णमोकार मंत्र का सर्वप्रथम उल्लेख १-२ सदी के षट्-खंडागम में ही उपलब्ध माना जाता है। भगवती में भी यह पाया जाता है। इसके पूर्व धरसेनाचार्य ने 'जोणीपाहुड' में मंत्रतन्त्र की शक्ति का वर्णन अवश्य किया है। सदियों बाद णमोकार मंत्र पर तो अनेक ग्रन्थ और उल्लेख पाये जाते है, Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्रों में मन्त्रवाद १९९ १. स्वरूप सारणी १: मंत्र और स्तोत्र का तुलनात्मक विवरण मंत्र स्तोत्र पद समूह, ध्वनि-समुदाय, २००० पद समूह, २००० अक्षरों से ज्यादा, पुष्प-परिकर के अक्षरों से कम, पराग कोश के समान, केन्द्रक (पूज्य) आधारित, ऐच्छिक पाठ विधि, समान, शब्द-आवृत्ति पर आधारित, मंत्राभ्यास का पूर्वरूप चतुरंगी साधना विधि, पूजा-स्तोत्र का उत्तर रूप विस्तृत, व्यापक अल्प विस्तृत विशाल लौकिक एवं आध्यात्मिक पूजनीय देवता लघु २. क्षेत्र ३. वर्णन ४. विषय ५. साधन-प्रक्रिया ६. सामर्थ्य ७. शक्ति-स्रोत ८. अंग ९. उपमा १०. उपयोगिता जप श्रव्य पाठ अधिक शक्तिशाली, सद्यः फलदाता कम शक्तिशाली, अलौकिक वर्णन से आत्म सम्मोहन, भाव समाधि बारंबारता का जप पाठ (विशाल होने से अधिक पाठ नहीं हो सकते ) (i) तीन : रूप, बीज, फल ( ii) चार : शब्द, अर्थ, उच्चारण, भावना अग्नि, कल्पवृक्ष, चिन्तामणि, कामधेनु, विद्युत-लहरी पापनाशक, विष-विघ्न-रोग मंत्रों के समान, पर परिसर सीमित नाशक, भूत-प्रेत बाधाहर, सिद्धि-रिद्धि प्रद (i) कंठगत ध्वनि से स्फोटशक्ति सेतत्र में ये सभी प्रभाव सीमित मात्रा में होते हैं। ( ii ) ध्वनि आघात द्वारा शक्ति उत्तेजन ( iii ) मानस स्तर पर जप से शक्तिशाली कर्णातीत या पराश्रव्य तरंगों की उत्पत्ति ( iv ) स्थूल के माध्यम से सूक्ष्म को प्रभावित करना एवं सूक्ष्मतर अवस्था की प्राप्ति (v) स्फोट शक्ति से अन्तर में विद्युत चंबकीय शक्ति का उद्भव ११. व्याख्या Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड ३ पर मंत्र सामान्य पर स्वतन्त्र ग्रन्थ काफी अन्तराल बाद उपलब्ध होते हैं । संभवतः दसवीं सदी के कुमारसेन का 'विद्यानुशासन' इस दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है । डा० त्रिपाठी ने ग्यारहवीं सदी के 'यंत्र-मंत्र संग्रह' और 'मंत्र शास्त्र' नामक दो अज्ञातकर्तृक ग्रन्थों का भी उल्लेख किया है । आजकल जो 'विद्यानुवाद' उपलब्ध है, उसकी प्रामाणिकता चर्चा का विषय है। अब तो 'लघु विद्यानुवाद' और 'मंत्रानुशासन' मी सामने आये हैं । यह स्पष्ट है कि ये दोनों ग्रन्थ जैनेतर पद्धतियों से प्रभावित हैं, अतः उनको मान्यता देना दुरुह ही है । अनेक विद्वानों ने मंत्रों का संकलन तो दिया है, पर उनका मूल स्रोत नहीं लिखा। जैन साहित्य के इतिहासों में भी मंत्र - विषयक साहित्य का विशेष उल्लेख नहीं मिलता । ऐसा प्रतीत होता है कि जैनों में उल्लेख योग्य मंत्रसाहित्य का निर्माण आठवीं सदी के बाद ही हुआ है जब 'लोकिक विधि' को प्रमाणता की अभिस्वीकृति दी गई । श्री देवोत के अनुसार जैन मंत्र शास्त्र पर लगभग चालीस ग्रन्थ पाये गये हैं। उन्होंने अपेक्षा की है कि इन ग्रन्थों का समुचित अध्ययन प्रकाशन होना चाहिये । शास्त्री के अनुसार मंत्रों के संबंध में अनेक प्रकार की सूचनायें णमोकार मंत्र से संबन्धित विवरणों एवं पुस्तकों में मिलती हैं । साहित्यचार्य ने अनेक प्रतिष्ठा पाठों को भी इन सूचनाओं का स्रोत बताया है । शास्त्री ने नवकार-सार-श्रवणं, णमोकार मंत्र माहात्म्य, नमस्कार माहात्म्य ( सिद्धसेन ), नमस्कार कल्प, नमस्कार स्तव (जिनकीर्ति सूरि ), पंच परमेष्ठी नमस्कार स्तोत्र, वीज कोश तथा वीज व्याकरण ग्रन्थों के अतिरिक्त पूज्यपाद, सिद्धसेन, नेमचन्द्र चक्रवर्ती, वीरसेन, समंतभद्र, अमितगति, शिवार्य, बट्टकेर तथा अनेक प्रथमानुयोगी कथाओं के उद्धरण दिये हैं। अंबालाल शाह ने तेरहवीं सदी में सिंहतिलक सूरि रचित सूरिमंत्र सम्बन्धी 'मंत्रराजरहस्य' ग्रन्थ का नामोल्लेख किया है । साहित्याचार्य ने जयसेन, बसुनंदि ( १०-११ सदी ) एवं आशाधर ( १३ सदी ) के प्रतिष्ठापाठों के अतिरिक्त अनेक व्यक्तिगत स्रोतों से प्राप्त हस्तलिखित पाठों का उल्लेख करते हुए अनेक मन्त्रों की जानकारी दी है । लौकिक एवं धार्मिक क्रियाकलापों तथा उद्देश्यों के लिये मंत्र जपों का जिस मात्रा में प्रयोग होता है, उस मात्रा में मन्त्र साहित्य और उससे सम्बन्धित आधुनिक दृष्टि से समीक्षित ग्रन्थों का नितांत अभाव है । प्रस्तुत लेख इस अभाव की पूर्ति का माध्यम बनेगा, ऐसी आशा है । मंत्र शब्द का अर्थ अनेक जैनाचार्यों तथा विद्वानों ने मन्त्र शब्द की परिभाषा लौकिक, आध्यात्मिक एवं व्याकरणिक दृष्टि से की है । इससे मंत्र शब्द के बहु-आयामी अर्थ प्रकट होते हैं । मन्त्र शब्द मन + त्रण - शब्दों से बना हैं । संस्कृत के अनुसार, यह शब्द 'मन्' ( ज्ञान, विचार, सत्कार ) धातु में 'ष्ट्रन' प्रत्यय लगाने पर प्राप्त होता है । मन्त्र एक स्वतंत्र धातु भी मानी जाती है। इन आधारों पर शास्त्र, व्याकरण एवं आधुनिक मान्यताओं के अनुसार मंत्र शब्द के निम्न अर्थ प्राप्त होते हैं : (१) उमास्वामी (२) समन्तभद्र (३) अभयदेव सूरि (४) निरुक्तिकार यास्क (५) पंच कल्प भाष्य (६) व्याकरणगत अर्थ मंत्र जिन या तीर्थंकर का शरीर ही है । जो मंत्रविदों द्वारा गुप्त रूप से बोला जावे । देवाधिष्ठित विशिष्ट अक्षर रचना । मंत्र शब्द बार-बार मनन क्रिया का प्रतीक है | जो पठित होकर सिद्ध हो, वह मंत्र है । (i) आत्म अनुभूति का ज्ञान करने की विधि | (ii) आत्म अनुभूति पर विचार करने की क्रिया । (iii) उच्च आत्माओं या देवताओं का सत्कारतंत्र । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ जैन शास्त्रों में मन्ववाद २०१ । (iv) विशिष्ट एवं वर्गीकृत ध्वनि । (v) नियत ध्वनियों के समूह की आवृत्ति । (७) वर्तमान अर्थ (i) योग के द्वारा मन को मारने/नियंत्रित करने की विधि । (ii) मन/मनोकामना की रक्षा/पूर्ति करने की विधि । (iii) एकाग्रता एवं अंतःशक्ति के उद्भव का विज्ञान । (iv) संकल्पशक्ति से परिपक्व विचार । (v) सूक्ष्य के माध्यम से स्थूल के प्रमाबी सूत्र । इन सभी अर्थो के भाव समान हैं। ये परिभाषाय मंत्र के तीन रूपों को व्यक्त करती हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि मंत्र (१) स्वरूप-गतः विशिष्ट अक्षर-रचना, विशिष्ट एवं वर्गीकृत ध्वनि, नियत ध्वनि-समूह की आवृत्ति । (२) उद्देश्यगतः (i) लौकिकः मन का नियंत्रण, मनोकामना की पूर्ति । (i) आध्यात्मिकः मन की एकाग्रता, उच्च आत्माओं का सत्कार, आत्मानुभूति, ___ अंतःशक्ति का उद्भव । (३) क्रियागतः ज्ञान, विचार, मनन, सत्कार एवं ध्वनि समूह के आवृत्ति की क्रिया। ध्वनि समूह और मन से प्रकटतः सम्बन्धित है। मन को तीब्रगामी अश्व कहा गया है। उसकी प्रवृत्ति और शक्ति, सामान्य दशा में विखरी रहती है। मंत्र द्वारा यह शक्ति विन्दु या दिशा में प्रेरित की जाती है । इससे व्यक्ति अपरिमित शक्ति-स्रोत बन जाता है। यही कार्य-साधिका है । इस आधार पर मंत्र ध्यान का ही एक रूप है । ध्यान के विविध चरणों में मंत्रपाठ महत्त्वपूर्ण है। मंत्रों के स्वरूप के आधार पर यदि हम उन्हें शब्द ध्वनि की लीला कहें, तो उपयुक्त ही होगा। इस ध्वनि लीला पर शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक मंथन हुआ है । जैन शास्त्रों के अनुसार शब्द या ध्वनि पुद्गल या ऊर्जायुक्त सूक्ष्म कणमय पदार्थ है। ये ध्वनियाँ तीब्रगामी मन-प्राण के संयोग से अति बलवान् एवं शक्ति सम्पन्न हो जाती हैं। जब शब्दों का उच्चारण होता है, तो वीची-तरंग माय से आकाश में कम्पन उत्पन्न होते हैं। इनकी प्रकृति उच्चारित शब्द की तीव्रता, आवृत्ति या तरंगदैर्ध्य पर निर्भर करती है। इन कम्पनों का पुंज अपने केन्द्र पर लौटने तक पर्याप्त शक्तिशाली हो जाता है। इस शक्ति का अनुभव मंत्र-साधक के आश्चर्य का विषय होता है। लेकिन इस आल्हादक शक्ति पर वह तब विश्वास करने लगता है जब वह देखता है : बीन बजाने से सर्प मोहित हो जाता है मधुर संगीत से हिरण मदमस्त हो जाते हैं मल्हार राग से मेघ बरसने लगते हैं राग से दीपक जलने लगते हैं, विष उतर जाते हैं विशिष्ट संगीत ध्वनियों से पौधों की वृद्धि तीब्र होती है संगीत से पशु अधिक दूध देने लगते हैं पराश्रव्य ध्वनि से चिकित्सा होने लगी है इसी ध्वनि से लोहा काटा जा सकता है यही ध्वनि कर्ण पट को आघात द्वारा कम्पित करती है ध्वनि चेहरे के भाव प्रकट करती है ध्वनि मन को भावना-प्रेरित करती है और सुनने वाले को प्रभावित करती है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड इच्छा की सूक्ष्म तरंगें सहस्रार और आज्ञाचक्र से पास होकर मूलाधार चक्र से टकराती हैं और ऊपर की ओर लौटती हैं । वे मार्गवर्ती वर्णों एवं अक्षरों को स्पन्दित करती हैं । ये स्पन्दन ( चित्र १ ) ही कण्ठ प्रदेश में टकराकर शब्द रूप में परिणत होकर स्फोटित होते हैं । इस प्रकार शब्द बाहर को भीतर से जोड़ता है और अन्तर को अभिव्यक्ति देता है। शास्त्रों में मंत्र को प्रयोग साध्य कहा गया है। प्रयोग तो आधुनिक विज्ञान का क्षेत्र है। इसकी प्रयोग साध्यता, अतएव फलवत्ता वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित की जा सकती है। इसीलिये मंत्रविद्या को अब मंत्र विज्ञान, ध्वनि विज्ञान या शब्द विज्ञान भी कहने लगे हैं। शास्त्रीय मंत्र विज्ञान सूक्ष्मतम का विज्ञान है। वह 'परा' शून्य अवस्था से प्रारम्भ होकर पश्यन्ती, मध्यमा ( विचार ) चरणों से पार होकर 'वैखरी' या वचन के रूप में प्रकट होता है । उच्चारित ध्वनि में मन, बुद्धि, चेतना आदि के आयाम जुड़ जाने से वह बोझिल बन जाती है। इसके विपयसि में अन्तर्गामी ध्वनि इन आयामों का परित्याग कर सूक्ष्म नाद एवं शक्ति का रूप धारण करती है। इस सूक्ष्म शक्ति को जागृत करने के लिये मंत्र का गठन ऐसे चमत्कारी ढंग से किया जाता है कि उसकी आवृत्ति का सीधा प्रभाब हमारी सूक्ष्म ग्रन्थियों, षट्चक्रों एवं शक्ति केन्द्रों पर पड़े। इससे प्रसुप्त शक्ति जागती है। मंत्रों के उद्देश्यों के अनुरूप उनको आवृत्तियां विशिष्ट ग्रन्थियों को क्रियाशील बनाती हैं जिससे वे सिद्धिप्रद होने लगती हैं । शब्द की आवृत्ति जितनी ही भीतर की ओर होगी, उतनी ही वह चैतन्य कोश को दोलित करेगी। यह आवर्तना ही प्राणवत्ता कहलाती है । यह चने हए शब्द एवं ध्वनि समूहों पर निर्भर करती है। इस दृष्टि से साधक की विचार शक्ति स्विच का काम करती है और मंत्र शक्ति विद्युत तरंगों का काम करती है। मंत्रों के प्रकार आचार्य विमल सागरजी के अनुसार, मंत्रों की संख्या चौरासी लाख है। इनके अध्ययन के लिये उनका वर्गीकरण आवश्यक है। इन्हें कई आधारों पर वर्गीकृत किया गया है । मूलाचार में मंत्र सिद्धि विधि के आधार पर मंत्रों के दो प्रकार बताये गये हैं : पठित ( जो पाठ-सिद्ध हो ) और साधित ( जो साधना से सिद्ध हो )। चक्रेश्वरी और ज्वाला लिनी पठित श्रेणी के हैं। गणधर वलय, रिषिमंडल, सिद्धचक्र आदि साधित श्रेणी के हैं। यह वर्गीकरण पर्याप्त स्थल प्रतीत होता है। प्रकृति के आधार पर मंत्रों को तीन कोटियाँ हैं—आसुरी, राजस और सात्विक । आसुरी मंत्रों के साधकों को सिद्धियां दिव्य रूप में प्रकट नहीं होती। सात्विक मंत्र के साधकों का अनुष्ठान निष्काम होता है और उन्हें प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व की सिद्धियाँ अनिवार्यतः प्राप्त होती हैं । राजस मंत्रों के फल मध्यवर्ती होते हैं। हमें सात्विक मंत्रों की साधना करनी चाहिये । __मंत्रों के स्वरूप के अनुसार भी, मंत्र तोन प्रकार के बताये गये हैं : स्रष्टिक्रमी, स्थितिक्रमी और संहारक मंत्र । प्रथम कोटि के मंत्र शान्ति, अभ्युदय, पुष्टि एवं पुरुषार्थ जनक होते हैं। स्थितिक्रमी मंत्र अशुभ परिणामों के नाशक और शम परिणामी होते हैं। संहारक मंत्र संहारी क्रियाओं एवं मनोवृत्ति के जनक होते हैं। इनसे शुम का भी संहार मंत्र प्रकार नाम देवता मंत्रांत उद्देश्य सौर पुरुष पुल्लिगी मंत्र २. स्त्रोलिंगी मंत्र ३. नपुंसकलिंगी सौम्य स्त्री हुँ, फट, वषट् स्वाहा नमः वशीकरण, स्तंमन, उच्चाटन, अर्थप्रद शान्ति, पुष्टि, काम सिद्धि, धर्म, मुक्ति | Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्रों में मन्त्रवाद २०३ होता है और अशुभ का भी संहार होता है। मंत्र जप के पूर्व मंत्र न्यास की प्रक्रिया भी इसी आधार पर तीन प्रकार की होती है। मंत्रों का बहुमान्य विभाजन उनके लिंग के आधार पर किया गया है । इस दृष्टि से मंत्र तीन प्रकार के होते हैं जिनका विवरण ऊपर दिया गया है। ३ लौकिक उद्देश्यों के अनुरूप मंत्रों के नौ प्रकार बताये गये हैं: स्तंभन, संमोहन, उच्चाटन, वशीकरण, जुमण, विद्वेषण, मारण, शान्तिक और पौष्टिक । इनमें से प्रत्येक उद्देश्य के लिये विशिष्ट मंत्र होता है। कुछ मंत्र सभी प्रकार के उद्देश्य के पूरक होते हैं । मंत्रों का एक वर्गीकरण उनमें विद्यमान अक्षरों या वर्णों की संख्या के आधार पर किया जाता है। ज्ञानार्णव एवं द्रव्य संग्रह में ३५, १६, ६, ५, ४, २, १ आदि अक्षरों के शास्त्री ने इनके उदाहरण भी दिये हैं । गोविन्द शास्त्री के अनुसार, यदि मंत्रों में तो ३, ४, ५, ९, १२, १४, २२, २७, ३४, ३५, ३८ एवं तेतालीस अक्षर वाले यह भी बताया गया है कि दो हजार से अधिक अक्षर वाले मंत्र स्तोत्र कहलाते हैं। मंत्रों का जप अधिक प्रभावकारी बताया गया है। उन्होंने मंत्रों में पाये जाने वाले ४९ दोष भी बताये हैं। इन दोषों से रहित मंत्र ही जपयोग्य माना गया है। मंत्रों का निर्देश किया है। वीजाक्षर और पल्लव दोष न हों, साधना के योग्य होते हैं। इस आधार पर अल्पाक्षरी मंत्र मंत्रों की संरचना : मंत्रों के अंग सामान्यतः प्रत्येक मंत्र में तीन अंग होते हैं : अकारादि-क्षकारांत मातृकाक्षर कवर्ग से हकारान्त वीजाक्षर इसके और पल्लव या लिंग ( नमः स्वाहा आदि ) । प्रत्येक मंत्र में एकीकृत रूप में समन्वय किया जाता है । शास्त्री के अनुसार सभी जैन मंत्रों का वीज णमोकार मंत्र है। वीजाक्षरों के सूक्ष्मीकरण से ही अन्य मंत्र बनाये गये हैं । वीज कोश और वीज व्याकरण से वीजाक्षरों और मातृका वर्णों का महत्त्व ज्ञात किया जा सकता है । इनसे सम्बन्धित जैन शास्त्रीय विवरण सारणी २ में दिया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस विषय में वैदिक पद्धति के विवरण अधिक विस्तृत और व्यापक हैं। इन विवरणों में प्रत्येक वर्ण के लिये संकेतक, वर्ण, स्वरूप, आयुध वाहन, परिमाण, तात्विक रूप, देवता, शक्ति, रिषि, छन्द, चन्द्र / सौर कला एवं नाद / प्रणव कला का संसूचन किया जाता है। इन सूचनाओं के आधार पर ही मंत्रों का निर्माण और उनके कार्य एवं सामर्थ्य का अनुमान लगता है । मंत्रों के अंत में लगाये जाने वाले नमः स्वाहा, फट् आदि शब्द उनके लिंग और लक्ष्य के प्रतीक होते हैं । इन्हें ही पल्लव कहते । इन तीन अंगों के बिना मंत्र पूर्ण नहीं माना जाता । उदाहरणार्थ, हम निम्न रक्षा मंत्र को लें : इनका ओम् णमो अरिहंताणं हां हृदयं रक्ष रक्ष हुम् फट् स्वाहा। स्वाहा पल्लव हैं, अ, ओ आदि स्वरों से युक्त मातृका रक्षा मंत्र में पंच परमेष्ठियों का पृथक्-पृथक् पाठ किया जाता है। फट्, यह बीस अक्षर का मंत्र है। इसमें ओम्, हुम्, वर्ण हैं और क-ह तक के अनेक बीजाक्षर हैं । पूर्ण तभी यह मंत्र निर्दोष एवं पूर्ण माना जाता है । उपरोक्त विवेचन के आधार पर हम लघु शान्ति मंत्र का भावात्मक अर्थ ज्ञात करें। इस मंत्र में १९ अक्षर हैं, स्वाहा और ओम् पल्लव हैं। इसमें मातृका वर्ग और वीजाक्षर भो अनेक हैं । सारणी ३ के अनुसार इसमें प्रयुक्त अंगों के फलितार्थ से स्पष्ट है कि इस मंत्र में ऐसे ही वर्णों और पल्लवों का उपयोग किया गया है जो विभिन्न प्रकार की शक्तियों के स्रोत हैं और अशान्ति, तनाव आदि को हैं । स्त्रीलिंगी पल्लव होने से यह मंत्र शान्तिक, परास्त कर जीवन को शान्तिकर एवं सकारात्मक बनाने में सक्षम पौष्टिक और इच्छापूर्ति का प्रतीक है। इसी प्रकार अन्य मंत्रों के भी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [खण्ड वर्ण वायु ब्रा. तालु वा. ताल ब्रा. A P HAMA पृथ्वी ब्रा. ब्रा. बा. वा. २०४ पं० जगमोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ सारणी २-ध्वनियों/वीजाक्षरों से संबंधित विवरण क्र. अक्षर उच्चारण वोज तत्व लिंग अ कंठ आकाश, प्रणव कंठ सुख वीज वायु अग्निवीज अग्नि गुणवीज अग्मि ओष्ठ वायुवीज पृथ्वी ओष्ठ कंठ-ताल अरिष्ट नि. जल कंठ-तालु वशी वीजमूल जल कंठोष्ठ मायावीजमूल आकाश __ कंठोष्ठ अनेक वीजमूल आकाश नासिका लक्ष्मी, आकाश आकाश कंठ शान्ति वीज आकाश ऋद्धि वीज वायु, अग्नि दन्त लक्ष्मी वीजमूल पृथ्वी,जल क कंठ शक्ति वीज आकाश वीज वायु प्रणव वीजमूल १८. घ स्तंभन/मोहन . वायु विध्वंसन वायु उच्चा० वीजमूल अग्नि माया वीजमूल अग्नि आकर्षण वीजमूल अग्नि श्री वीजमूल अग्नि स्तंभन मोहन अशुभ वीजमूल चंद्र वीज 984493IMAA 44 मूर्धा वायु वायु शक्ति/सामर्थ्य सर्वशक्ति धन, आशा मृदु कार्य साधक अल्प शक्ति अद्भुत शक्ति विघटन निश्चल उदात्त अनुदात्त शीघ्र कार्यसाधक मृदु शक्ति सहयोगी सिद्धिदायक सत्य संचारक सुखोत्पादक कल्प वृक्ष साधक स्तंभन विध्वंसक खंड शक्ति शक्ति विध्वंस रोग नाश, सिद्धि शक्ति संचार अवरोधक अशान्ति निकृष्ट कार्य शान्ति विरोधी शान्ति, शक्ति शान्ति, शक्ति सर्व सिद्धि मंगल साधक आत्म शक्ति सहयोगी आत्म सिद्धि सहयोगी कठोर कार्य विघ्न विनाश अग्नि पृथ्वी GAL GAGAAAAAEE GAAAAAAAAAAAA पृथ्वी पृथ्वी जल पृथ्वी पृथ्वी 84444444_ol or मारण/माया वीजमूल आकाश/ध्वंस मूल आकर्षण बीज लक्ष्मी बीजमूल वशो० वीजमूल माया वीजमूल जल पृथ्वो ३२. ३३. ३४. ३५. ३६. ओष्ठ , जल जल आकाश आकाश आकाश सिद्धि वीजमूल Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३] जैन शास्त्रों में मन्त्रवाद २०५ ३८. भी लक्ष्मी वीज-विरोधी आकाश आकाश वै. वै. ४०. य वायु क्ष. तालु मूर्धा दन्त दन्तोष्ठ तालु अग्नि वोज श्री वोजमूल सरस्वती वीज अग्नि पृथ्वी क्ष. क्ष. सात्विक-विरोधी सिद्धि, सन्तान शान्ति, सिद्धि शक्ति वृद्धि लक्ष्मी, कल्याण विपत्ति निवारक निरर्थक सिद्धिदायक सर्वसाधक मंगल साधक पृथ्वी क्ष. मूर्षा क्ष.. स ह दन्त कंठ आह्वान वीज काम वीजमूल सर्व वीजमूल वायु अग्नि जल वायु क्ष. ४७. महमारचक्रम् (७)-14 -आज्ञाचक्रम् (६) बीमा की म्यूँटी-वीणा की ती पिङ्गला इडा मुखुम्ना विशुद्धचक्रम् (५) वैरवरी वाणी URICodaag मध्यमा वाणी अनाहतचक्रम् (४) A RANDONDAadhaaOAVE समान वायु वैश्वानर अग्नि पश्यन्ती वाणी मणिपूरचक्रम् (३) ama AmanLoanus स्वाधिष्ठानचक्रम् (२) मूलाधारचक्रम् (१) -परा वाणी कुण्डलिनी QUA Don: चित्र १. शरीर तंत्र में विभिन्न चक्र और नाडियां (सौजन्य डॉ० वागीश शास्त्री) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ hors to E y २०६ पं० जगमोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड फलितार्थ से उनकी जपनीयता एवं उपयोगिता प्रकट होती है। महाप्रज्ञ ने मंत्र के चार अवयव बताये हैं : शब्द अर्ध, उच्चारण और भावना। ये घटक मंत्र की प्राणवत्ता के निरूपक हैं। सारणी ३. लघु शांतिमंत्र का फलितार्थ ओम् तेजोवीज, कामवीज, प्रणव वाचक, सिद्धिदायक सर्वशांति, मंगल, कल्याण प्रणववीज, शक्ति द्योतक विषापहार वीज प्रणववीज, शक्ति द्योतक सर्व समीहित साधक शक्ति, बुद्धि, धन, आशा अद्भुत शक्तिशाली धन व आशापूरक सर्वशांति कार्यसाधक, चमत्कारोत्पादक, हितैषी सुयश, शक्ति, उत्पादक शक्ति प्रस्फोटक, वर्धक स्वाहा शांतिकर, हवन वाचक पल्लव स्वाहा, ओम् मंत्रलिंग स्त्रीलिंग कुछ विशिष्ट मंत्र जैन शास्त्रों में लोकिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक उद्देश्यों के लिये विशिष्ट मंत्र पाये जाते हैं। इनका जप विशिष्ट अवसरों पर किया जाता है । इनमें से कुछ मंत्र यहाँ दिये जा रहे हैं : १. अधित्य फलदायक मंत्र-ओम् ह्रीं स्वहं णमो णमो अरिहंताणं ह्रीं नमः । २. रोगनिवारक मंत्र-ओम् णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवझायाणं, णमो लोए सध्वसाहणं । ओम् णमो भगवति, सुअदे, वयाणवार संग एव, यण जागणीये, सरस्सई ए सव्व, वाइणि सवणवणे, ओम् अवतर अबतर देवि, मय सरीरं वपिस पुछ, तस्स पविससत्व, जण मयहरीये अरिहंत सिरिसरिये स्वाहा। ३. अग्नि निवारक मंत्र-ओम् णमो, ओम् अहं, अ सि आ उ सा, णमो अरिहंताणं नमः । ४. लक्ष्मी प्राप्ति मंत्र-ओम् णमो अरिहंताणं, ओम् णमो सिद्धाणं, ओम् णमो आइरियाणं, ओम् णमो उवज्झायाणं, ओम् णमो लोए सव्वसाहूणं । ओम् ह्रां ह्रीं ह्र ह्रौं ह्रः स्वाहा । ५. सर्वसिद्धि नंत्र-(१) ओम् असि आ उ सा नमः ( सवा लाख जप ), (२) ओम् ह्रीं श्रीं क्लीं नमः स्वाहा ६. शान्ति मंत्र-ये तीन प्रकार के हैं : वृहत, मध्यम और लघु । यहाँ मध्यम और लघु मंत्र दिये जा रहे हैं : मध्यम शान्ति मंत्र-ओम् ह्रां ह्रीं ह्र. ह्रौं ह्रः अ सि आ उ सा सर्वशान्तिं कुरु कुरु स्वाहा ( २१ अक्षर ) लघु शान्ति मंत्र-ओम् ह्रीं अहं अ सि आ उ सा सर्वशांतिं कुरु कुरु स्वाहा ( १९ अक्षर ) सर्वशान्ति मंत्र-ओम् ह्रीं श्रीं क्लू ब्लू अहं नमः Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्रों में मन्त्रवाद २०७ इनके कम-से-कम २१,००० जप करना चाहिये। यह मंत्र सिद्धचक विधान तथा गृहप्रवेशादि लौकिक क्रियाओं में मी जपा जाता है । ३] ७. वशीकरण मंत्र - लक्ष्मी प्राप्ति मंत्र में "ओम् हां 'स्वाहा' के बदले निम्न अंश जोड़कर पढ़ना: 'अमुकं मम वश्यं कुरु कुरु स्वाहा ( ११,००० जप ) ८. महामृत्युंजय मंत्र - लक्ष्मी प्राप्ति मंत्र में 'ओम् ह्रां 'स्वाहा' के बदले 'मम सर्व ग्रहारिष्टान् निवारय निवारय अपमृत्युं घातय घातय सर्वशान्तिं कुरु कुरु स्वाहा' पढ़ना । ( ३१,००० से १,२५,००० जप ) मंत्रों की साधना आध्यात्मिक या लौकिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये मंत्रों का प्रयोग किया जाता है। इस प्रयोग को मन्त्र साधना कहते हैं । इस प्रयोग में मन्त्र को विशिष्ट वातावरण व विधि के अनुरूप बार बार जपा जाता है। यह प्रक्रिया किसी सोते हुए व्यक्ति को वार वार जगाने के समान मानना चाहिये । मन्त्र का यह जप वाचिक, उपांशु एवं मानसिक - किसी भी रूप में किया जा सकता है। वाचिक जप में मन्त्र मुखोच्चारित होता है । उपांशु जप में मन्त्र की शब्दोच्चारण क्रिया भीतर ही होती है, वह मुख में से बहगत नहीं होता । मानसिक जप में बाहरो ओर मीतरी शब्दोच्चारण नहीं होता, केवल हृदय में मन्त्रों का चिन्तन, विचार होता रहता है । सोमदेव के अनुसार मानसिक जाप सर्वोत्तम होता है । यह वाचिक जप से सहस्त्र गुण फल वाला होता है । इस साधना में मौतिक या घर्षण अनुसार, मानसिक जप में ध्वनि जप शब्द, ध्वनि या मन्त्र को बार-बार पुनरावृत्ति को कहते हैं। इह हेतु सुनिश्चित आवृत्तियों के लिये कमल जाप, हस्तांगुलि जाप एवं माला जाप विधियां प्रचलित हैं। बारंबारता शक्ति की प्रतोक एवं जनक है। आयुर्वेदज्ञ अपने औषधों को बहुसंख्यक पाकों द्वारा ही अधिकाधिक गुणवान बनाते हैं । इससे वे वाह्य शरीर को सक्षम एवं समर्थ बनाने में सहायक होते हैं । मन्त्र साधना मी मन्त्रों का विशिष्ट संख्यक पाक है जो विशिष्ट शक्ति को, विद्युत् चुंबकीय शक्ति के रूप में, अन्तर में उत्पन्न करता है । इस प्रक्रिया में मन्त्र के वर्णों एवं ध्वनियों का शोधन एवं पाक हो कर अन्तरंग शुद्ध होता है। इसलिये जप वस्तुतः अन्तःकरण के लिये अन्तरंग की साधना है। शक्ति का नही, अपितु विद्युत-चुंबकीय शक्ति का उपयोग होता है । कुछ लोगों के आभासी होती है । पर मन्त्र साधक जानता है कि यह वास्तविक होती है। यह उसकी भावना, इच्छा एवं संकल्प शक्ति की तीव्रता पर निर्भर करती है। वस्तुतः भावना पर मन्त्र ध्वनियों का आरुढ करना ही जप है । इस प्रक्रिया में उत्पन्न शक्तिशाली विद्युत चुंबकीय तरंगों का ग्राही साधक भी हो सकता है और साधकेतर अन्य व्यक्ति भी हो सकता है। दोनों पर ही वांछित प्रभाव वड़ता है। इसका कारण यह है कि जप के कारण वार-वार एक-से लय से निकलते शब्द लहरपर-लहर उत्पन्न करते हुए दूरवर्ती माध्यम पर भी अपना इच्छित प्रभाव डालते हैं । ये विद्युत् धारा के समान ऊर्जा उत्पन्न करते हुए होनी को अनहोनी में परिणत कर देते हैं । मन्त्रावृत्ति की शक्ति सभी अवरोधों को पार कर साध्य सिद्धि में सहायक होती है । मंत्र साधना को विधि : साधक की योग्यता मंत्रों की साधना का मूल लक्ष्य तो आध्यात्मिक शक्ति का विकास और कर्मक्षय है, पर सांसारिक प्राणी इससे अनेक प्रकार के लौकिक लक्ष्य भी प्राप्त करना चाहता है। सात्विक साधक के लिये अनेक लौकिक लक्ष्य, निष्काम साधना से स्वयमेव प्राप्त होते हैं। प्रारंभिक साधक इन्हें ही सिद्धि समझ लेता है । वस्तुतः ये चरम सिद्धि के मार्ग के आकर्षण हैं । इनकी उपेक्षा कर आगे साधना करनी चाहिये | मंत्र साधना के लिये साधक पर जाति, लिंग या वर्ण का कोई बंधन नहीं Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड है । उसमें विशिष्ट प्रकार की योग्यता एवं आचार-वत्ता होना चाहिये । इसके लिये साधना के पूर्व साधक के लिये अष्ट शुद्धियों का विधान है : १. द्रव्य शुद्धि : इन्द्रिय एवं मन को वश में कर क्रोधादि विकारों से रहित होना २. क्षेत्र शुद्धि : २. समय शुद्धि: ४. आसन शुद्धि: मन्त्र साधना हेतु निराकुल स्थान, निर्जन स्थान, गृह का शांत कक्ष, श्मशान, शव, श्यामा एवं अरण्य पीठ आदि समुचित स्थान का चयन प्रातः, सायं एवं मध्याह्न में आवश्यतानुसार निश्चित काष्ठ, शिला, भूमि, चटाई, ताड़पत्र, रेशमी वस्त्र, पद्मासन, खड्गासन, ध्यानासन में मन्त्र जप करना समयावधि तक मन्त्र जाप, तिथि शुद्धि कम्बल आदि पर पूर्व या उत्तर दिशा में ५. विनय शुद्धि : मन्त्र के प्रति श्रद्धा, अनुराग एवं संकल्प वृत्ति ६ मनः शुद्धि : विचारों की विकृति हटाकर एकाग्रता का प्रयास ७. वचन शुद्धि : मन्त्र को शुद्धरूप में जपने का प्रयत्न ८. काय शुद्धि : नित्य क्रियाओं से निवृत्त होकर स्नान एवं स्वच्छ वस्त्र पहनकर शुद्ध शरीर से मन्त्र जप । अनेक स्थानों पर त्रिकरण शुद्धि, ईर्यापथ शुद्धि, भूमि-पात्र शुद्धि आदि के नाम भी पाये जाते हैं । ये अष्टशुद्धियाँ योग मार्ग के समकक्ष हैं । इसलिये यह कहा जाता है कि अच्छा योगी ही अच्छा मन्त्र साधक हो सकता हैं। योगरूप साधन और मन्त्ररूप साध्य । योग्य साधक को बहिरंग और अन्तरंग से शुद्ध, श्रद्धावान् एवं संकल्प- समृद्ध होना चाहिये । साधक की समुचित योग्यताओं के विषय में 'विद्यानुवाद' आदि ग्रन्थों में निरूपण है । कुमारसेन के 'विद्यानुशासन' में भी एतद्विषयक महत्वपूर्ण चर्चा है । पूजा, स्वाध्याय, इन्द्रिय-संयम, गुरु भक्ति, तप और दान करने की प्रवृत्ति से साधना फलवती होती है । के यह सामान्य धारणा है कि मन्त्र की साधना मन्त्रज्ञ गुरु के निर्देशन में करना चाहिये । गुरु दो प्रकार के होते हैं: माता-पिता, अग्रज आदि प्राकृत गुरु हैं। आचार्य, मामा, श्वसुर राजा और होता व्यवस्थाकृत गुरु हैं । गुरु विवरणशास्त्रों में उपलब्ध है । वस्तुतः गुरु वही है जो आल्हादकारी हो, अभ्युदय सहायक हो । स्थापनानिक्षेपित एवं मानसिक गुरु भी कल्याणकारी बताये गये हैं। हिन्दू शास्त्रों को अनुसार, गुरु को मनुष्य न मानकर देवतुल्य मानना चाहिये । इनमें साधक के भी निम्न गुण बताये गये हैं: विश्वास, श्रद्धा, गुरुमक्ति, इन्द्रिय संयम, मितभोजन एवं साम्यभाव । जैनाचार्य भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में इन गुणों को मानते हैं । मंत्र साधना की विधि देवोत ने बताया है कि वर्तमान में उपलब्ध मन्त्र साहित्य में मंत्र सिद्धि की सम्पूर्ण विधि कहीं भी नहीं दी गई है । इसका संकलन कर मंत्रज्ञों ने अपने अपने पास उसे पूर्ण कर रखा है । फिर भी, जो उपलब्ध है, उसके आधार पर उसकी रूपरेखा प्रस्तुत की जा सकती है। शास्त्रों में मन्त्र-साधना के लिये दस प्रकार के संस्कारों का विधान है। संपूर्ण साधना विधि चतुरंगी, पंचांगी या षडंगी होती है। यह चतुरंगी- - जप, ध्यान, पूजा, हवन तो अवश्य ही होनी चाहिये । तर्पण एवं भोज के बदले में कुछ अधिक जाप किये जा सकते हैं । सर्वप्रथम साधना प्रारम्भ हेतु उपयुक्त मास, तिथि एवं समय का चयन करना चाहिये । तदुपरान्त यथोचित समय पर उपरोक्त आठ शुद्धियों या संस्कारों को सम्पन्न करना चाहिये । उपयुक्त तिथि पर अमृत स्नान कर न्यास, अंगन्यास, कूटाक्ष रन्यास, आत्मरक्षा मन्त्र, परविद्याछेदन मन्त्र, अरिष्टनेमि मन्त्र एवं दिग्बंधनादि के द्वारा जप की पूर्वपीठिका तयार की जाती है । जपों की संख्या एवं मन्त्र भी निश्चित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शास्त्रों में मन्त्रबाद २०९ ३] कर लिया जाता है। सामान्यतः जया की निश्चित संख्या नहीं होती और जप तब तक करना चाहिये, जब तक मन्त्र सिद्ध न हो जावे । णमोकार मन्त्र के विषय में यह बताया गया है कि इसका सात लाख जप करने से कष्टमुक्ति और दारिद्रय नाश होता है। मन्त्रसिद्धि का मान मन्त्राधिष्ठाता देवताओं की उपस्थिति से होता है। 1 जप करने के लिये निश्चित एवं शुद्ध स्थान पर एक चौ-पाट रखकर उसके बीच में सांथिया बनाना चाहिये । उसके चारों कोनों पर चार और मध्य में एक कुल पांच कलश रखें ये कला नये हों, प्रत्येक में हल्दी की गांठें, सुपारी तथा अक्षत ( एक में सवा रुपया ) डालें। उनके मुख पर नारियल, तूस, माला रखकर उन्हें सजा दें कलशों के साथ ही पंचरंगी या केशरिया ध्वजाओं के चार थपे रखें। चौपटा के पूर्व या उत्तर में सिहासन पर विनायक यन्त्र रखें। उत्तर वा पूर्व दिशा में अखंड ज्योति धृत या तेल दीप रखें। इसके बाद जपासन के समक्ष धूपघट, धूपपात्र, सूत्र की माला एवं जपगणना हेतु कुछ बादाम, सुपारी या लोगें साथ ही यदि मन्त्र याद न हो, तो उसे शुद्ध रूप में कागज । पर लिखकर सामने रखे । मन्त्र संकल्प को भी चौ-प्राट के मध्य कलश के पास लिखकर रखें। 1 , इसके बाद, मंगलाष्टक का पाठ करते हुए पुष्पवर्षा करें। तदनन्तर शरीर की रक्षा तथा विभिन्न दिशाओं से आने वाले विघ्नों की शांति के लिये मंत्रोच्चारण पूर्वक कर-न्यास, अंगन्यास और दिशाबंधन करें कलाई में रक्षासूत्र बाँधे तिलक लगायें और यज्ञोपवीत बाँचें। इसके बाद यन्त्र का अभिषेक और पूजन करें। फिर उद्देश्य विधान पूर्वक जप का संकल्प करें और जल छिड़कें। अब मन्त्र जप प्रारम्भ करने के पूर्व नौ वार णमोकार मन्त्र पढ़ें और जप प्रारम्भ करें। माला जप में या अन्य विधि में प्रत्येक माला ( १०८ बार जप ) पूर्ण होने पर, रहेगा। इस प्रसंग में काम आने वाली विधि व मन्त्रों का विवरण साहित्याचार्य ने दिया है। जप प्रारम्भ करने के पूर्व प्रातः एवं सायं करनी चाहिये। ऐसा माना जाता है कि एक दिन व्यक्ति णमोकार मन्त्र के समान ३५ अक्षर के मन्त्र को एक घंटे में हजार बार जप करता है। ही होते हैं। अतः एक दिन में संख्या निश्चित की जाती है। का जप करने के लिये कहते हैं। का महत्व नहीं माना जाता, पर अपनी अपनी रुचि का प्रश्न है अन्तिम विधि सम्पन्न की जाती है। धूप खेलें, तो अच्छा यह क्रिया प्रत्येक वार एकवार जपने पर एक प्रायः मन्त्र इससे छोटे पांच से दस हजार तक अप हो सकते हैं। इसी आधार पर एवं उद्देश्य के अनुरूप जप आचार्य रजनीश जप की संख्या निश्चित नहीं करते, वे तीन माह तक प्रतिदिन तीस मिनट इनकी प्रक्रिया में पूर्वोक्त वातावरण निर्मात्री एवं मनोवैज्ञानिकतः प्रभावशील पूर्वपीठिका 'रेचन' की उनकी प्रक्रिया भी शास्त्रीय प्रक्रिया से अच्छी नही प्रतीत होती । यह जप संख्या पूर्ण होने पर अथवा मन्त्र सिद्धि होने पर पूजा और हवन द्वारा साधना की मंत्र की सफलता की पहिचान यह माना जाता है कि प्रत्येक मन्त्र के अधिष्ठाता देव देवियां होते हैं। मन्त्र सिद्ध होने पर वे साधक के समक्ष अपने सौम्य रूप में प्रकट होते हैं। उनकी उपस्थिति लौकिक मन्त्रसिद्धि का प्रतीक है। धरसेनाचार्य ने पुष्पदंत भूतबलि की परीक्षा उनकी मंत्रज्ञता के आधार पर ही की थी। इसी सिद्धि के आधार पर वे घरसेन से आगम विद्या प्राप्त कर सके। मन्त्र-साधना की सफलता विशिष्ट प्रकार के स्वप्नों से भी ज्ञात होती है। जब साधना समय में साधक के स्वप्न में सफेद हाथी, घोड़ा, पूर्ण कलश, सूर्य, चन्द्र, समुद्र, शासन देवता या जिन बिब के दर्शन होते हैं, तो इन्हें मन्त्र सिद्धि का प्रतीक माना जाता है । मन्त्र सिद्धि की संभावना का अनुमान काकिणी लक्षण विधा से भी लगाया जा सकता है । अविश्वास करने लगते हैं । इस अनेक साधकों को मंत्र सिद्धि नहीं होती, अतः वे और अन्य जन मन्त्रों पर विफलता के निम्न प्रमुख कारण संभव हैं: २७ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड 1. साधक में साधना की पात्रता न होना / 2. साधक की समुचित गुरु न मिलना / 3. युग के प्रभाव के अनुसार, आस्थाहीन मन्त्र जप करना। इस आस्थाहीनता का अनुमान कर ही ऋषियों ने कहा होगा कि कलियुग में चौगुनी मात्रा में जप करने से मन्त्रसिद्धि संभव है। संभवतः यह संख्या आस्था को बलवती बनाने के लिये ही स्थिर की गई हो। 4. मंत्र को अशुद्ध उच्चारण पूर्वक जपनाः सदोष मन्त्र जपना 5. अनुष्ठान की पूर्ण प्रक्रिया का संपादन न करना 6. अशुभ मुहूर्त, प्रतिकूल मन्त्र का जाप आदि अन्य कारण / शास्त्रज्ञों का मत है कि उपरोक्त कारणों के न रहने पर एवं दृढ़ इच्छा, संकल्प एवं आस्था रखने पर मन्त्रसिद्धि अवश्य होती है। इससे जीवन उत्साह एवं शक्ति से भरपूर होता है, संसार सुखमय प्रतीत होने लगता है।* पठनीय सामग्री 1. वाल्टर सूबिंग; भक्टरिन आव जनाज, मोतीलाल बनारसी दास, दिल्ली, 1962 2. सुधर्मा स्वामी; समवायांग, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1966 3. साध्वी चंदना (सं०); उत्तराध्ययन, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, 1972 4. शास्त्री, नेमिचंद्र; णमोकार मंत्रः एक अनुचिंतन, मा० ज्ञानपीठ, दिल्ली, 1967 5. त्रिपाठी, राममूर्ति; जीत अभि० प्रन्थ, जयध्वज प्रकाशन समिति, मद्रास, 1986, पेज 2. 167 6. गोविन्द शास्त्री; मंत्र वर्शन, सर्वार्थसिद्धि प्रकाशन, दिल्ली, 1980 7. साहित्याचार्य, पन्नालाल, मंदिर-वेदी-प्रतिष्ठा कलशारोहण विधि, वर्णी ग्रन्थमाला, काशी, 1971 / 8. जैन विद्या संगोष्ठी; बंबई १९८३-विवरण, भा० ज्ञानपीठ, 1984 9. आचार्य रजनीश; रजनीश ध्यान योग, रजनीशधाम, पूना, 1987 10. लक्ष्मीचंद्र सरोज, कै. चं. शास्त्री अमि. ग्रंथ, रीवा, 1980 पेज 140 * इस लेख के तयार करने में डा० एन० एल० जैन ने मेरी आधारभूत सहायता की है। लेखक उनका कृतज्ञ है।